पिथौरागढ़ में बुधवार को ‘हिल-जात्रा’ मनाई गई. यह एक ख़ास आयोजन है जो कि सिर्फ़ पिथौरागढ़ में ही मनाया जाता है. आठूँ-सातूँ पर्व के आठ दिन बाद हर साल हिलजात्रा मनाई जाती है जिसमें कलाकार लकड़ी के मुखौटों और अन्य रंग रोगन के ज़रिए अलग अलग पात्रों का वेश बनाते हैं और नृत्य नाटिका होती है. यह अभिनय, स्वांग और रोमांच का उत्सव है जिसमें पहाड़ी कृषि प्रधान समाज की छाया दिखाई देती है.
इस आयोजन का मुख्यपात्र है लखिया भूत जो कि किंवदंतियों में महादेव का गण है. हर साल होने वाले इस त्योहार में स्थानीय समाज लखिया भूत से खुशहाली का आशीर्वाद मांगता है.
हिल-जात्रा पहाड़ के किसान समाज का पर्व है इसलिए इसके किरदारों में कृषि से जुड़े पात्र नज़र आते हैं. जैसे हुक्का-चिलम पीते हुए मछुवारे, शानदार बैलों की जोडियाँ, छोटा बल्द , बड़ा बल्द, अड़ियल बैल (जो हल में जोतने पर लेट जाता है), हिरन चीतल, ढोल नगाडे, हुडका, मजीरा, खड़ताल अर घंटी की संगीत लहरी के साथ नृत्य करती नृत्यांगानाएं, कमर में खुकुरी और हाथ में दंड लिए रंग-बिरंगे वेश में पुरुष, धान की रोपाई का स्वांग करते महिलायें, ये सब पहाड़ी समाज के असल पात्र हैं जो इस उत्सव में कलाकारों द्वारा अभिनीत किए जाते हैं.
कहा जाता है कि हिल जात्रा की शुरूआत नेपाल से हुई थी. नेपाल के राजा ने कुमौड़ के चार महर भाईयों (कुंवर सिंह महर, चैहज सिंह महर, चंचल सिंह महर और जाख सिंह महर) की वीरता से खुश होकर यह जात्रा भेंट स्वरुप उन्हें दी. साथ ही उन्हें मुखौटे, हल और दूसरी चीज़ें भी दी गई. इन्हें लेकर ये भाई अपने गांव कुमौड़ लौटे और इस उत्सव का आयोजन किया. तब से यह लगातार मनाया जाता है. कुमौड़ के अलावा भी यह उत्सव पिथौरागढ़ ज़िले के अस्कोट, देवलथल और कुछ अन्य गांवों में मनाया जाता है, लेकिन लखिया भूत का प्रदर्शन कुमौड़ और देवलथल के उड़ई गांव में ही होता है.
इस आयोजन में अभिनय करने वाले पात्र अपने मुखौटों को बेहद खूबसूरती से सजाते हैं. आइए शामिल हो जाएं इन तस्वीरों के साथ हिल-जात्रा में.
काफल ट्री डेस्क
(तस्वीरें पिथौरागढ़ से हमारे सहयोगी कमल पाठक ने उपलब्ध कराई हैं.)
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