एक बार गाँव के थोकदार जी ने अपने शहर जाते चौदह साल के बच्चे गुन्दरू को वापस आते समय अच्छा गुड़ ले आने को कहा. जाड़ों के दिन है यह तो चाहिए ही और शहर से गुन्दरू गुड़ तो लाया पर कुछ इस तरह-
(Gundru Folk Stories of Uttarakhand)
गुन्दरू ने गुड़ की भेली थैली में रखी. लाला जब गुड़ तोल रहा था तभी से गुन्दरू के नथूने फूलने लगे और जीभ लपलपाने लगी और पेट कुलबुलाने लगा. खैर पैदल चलना शुरू हुआ. कुल दस मील का उतार चढाव था पर थका देने वाली यात्रा, पर तगड़े गुन्दरू को कुछ लग ही नहीं रही थी. सारी परेशानी झोले में रखे गुड़ ने कर रखी थी. सारा ध्यान उसी में लगा था तो कब चढ़ाई आई उतार आया. कब बांज का जंगल गायब हो गया और कब बालखिला नदी का शोर छूटा उसे कुछ पता न चला. आखिर उसकी अंगुली थैले के ताल देने लगी और थोड़ी देर बाद नाखून हरकत करने लग गए और कुछ गुड़ नाखूनों से खुरचा गया. जीभ में गुड़ की खुरचन पहुँची तो सारे शरीर में खून तेजी से दौड़ने लगा, दिल की धड़कन बढ़ने लगी. गजब की लार मुँह में बनने लगी.
स्वाद एक बार लग गया तो फिर काबू मुश्किल. उसने पूरी भेली को थैली से निकाला और उसे एक चट्टान में रखकर बड़ी कारीगरी से उसने एक कील से उसका थोड़ा हिस्सा निकाल लिया और फिर आसपास से गुड़ खरचकर उस खाली हिस्से को भरने की कोशिश की और सचमुच उसने उस खाली जगह को बड़े अच्छे से भर दिया. उसे अपनी कारीगरी पर बड़ा घमंड हुआ कि इतनी सफाई से जगह भरी है कोई पता नहीं लग सकता कि इस हिस्से से गुड़ निकाला गया है. यह काम करके उसने मजबूती से उसने मुट्ठी तान के निर्णय लिया कि अब बिल्कुल गुड़ नहीं खाएगा. पर आगे चलते-चलते धीरे-धीरे उसकी मुट्ठियाँ खुलने लगीं.
कुछ दूर जाकर फिर एक टुकड़ा गुड़ का निकाला और फिर वही कारीगरी, पर कारीगरी भी कब तक चलती. कुछ देर बाद उसने देखा गुड़ की भेली एक चौथाई रह गई. अब क्या किया जाय? उसे अपराध बोध से ज्यादा मार का डर लग रहा था. उसने बहादुर बनने की कोशिश की और इस बहादुरी के जोश में उसने एक टुकड़ा फिर खा लिया. और मन-ही-मन घर में जो सवाल जवाब होंगे उसकी कल्पना करने लगा – और उसका जवाब भी देने लगा. थोड़ी देर बाद उसने गुड़ निकाला तो उसके हालात देखकर उसे रोना आया. वह अब अपने को आने वाले संकट के लिए तैयार करने लगा, बहानों का आविष्कार करने लगा.
(Gundru Folk Stories of Uttarakhand)
उसने बहुत से बहाने पैदा किए. उन्हें छाँटा. पर कोई भी बहाना जानदार नहीं लग रहा था. फिर भी उसे लगा वह अच्छा कथाकार भी बन सकता गया. एक पुराना बहाना था-गिर गया और गुड़ लुढक गया. पर इसके लिए अपने को भी चोट लगानी होती. और इससे माँ के स्नेह का भी भाजन बनता कि गुड़ तो गया भाड़ में पर लड़का बच कर आ गया. पर इस बहाने में जो चित लगानी पड़ती वह आगे चलकर गड़बड़ भी पैदा करती इसलिए इस बहाने को छोड़ दिया गया.
पैसे कहो गये वाले बहाने में तो सीधे मार पड़ती. यह भी हो सकता है कि लाला ने काम तोला पर लाला से पूछताछ की गई तो दतरफा मार पड़ेगी. एक बहाना था “सामने बाघ आ गया. सामने एक बच्ची थी. उसे बचाने के चक्कर में वह भागा तो झोला ही लुढ़क गया. इस बहाने में उसे शाबाशी भी मिल सकती है कि उसने किसी बच्ची को बचाया. उसने किस्से को कहने के लिए अभिनय करना भी शुरू कर लिया. वह सब अनजाने में ही हो रहा था. इतना असली कि उसे लगा पिताजी सामने हैं और वह घटना का वर्णन कर रहा है. पर क्या पिताजी की गुस्से से भरी पातालभेदी आँखों के सामने वह टिक भी पाएगा!
अब घर भी नजदीक आ गया. उसे जल्द ही आखरी फैसला लेना था. बस एक लतड़ाक. एक पहाड़ी भर पार करनी थी कि उसका गाँव. वह एक चट्टान में उदास बैठ गया. उसने फिर से थैले के गुड़ को टटोला, उसे आहिस्ता से बाहर निकाल उसे रोना आ रहा था. इस भरी दुनिया में प्रकृति के बीच यह घटना जिसे उसने ख़ुद ही घटित किया था उसे दुनिया की सबसे बड़ी दुर्घटना नजर आ रही थी. गुड़ की सूरत की तरह वह भी उदास लगा रहा था. वह उसे देखने का साहस नहीं कर पा रहा था. बस उँगलियाँ ही उसे नाप रही थी. फिर एकाएक तेजी से उसके अन्दर एक निर्णय कौंध गया जो घोर संकट में अचानक आता है.
फुड फुक्का (गोली मारो ) जो होना है हो गया. देखी जाएगी. उसने कहा जब होना ही है तब क्या? जो है उसे भी खा लो. झेलना तो है ही. उसने उसका बड़ा सा टुकड़ा तोड़ लिया. उसकी आँखें उसके निर्णय के साथ बन्द हो रही थीं. वह आनन्द के चरम में था. उसे नींद भी आ गई. वह कुछ देर सोता रहा. फिर अचानक चौंक कर वह उठा. सूरज देव जल्दी-जल्दी अपनी आखरी पारी खेल कर जा रहे थे. घर जाने की जल्दी में उनके कदम तेज चल रहे थे. उसने पास के झरने का पानी पीया. गुड़ की मिठास को अन्दर-के-आनन्द को जिया. यह स्वाद आँवले खाने के बाद पानी पाने से अधिक मीठा था.
उसने फिर थैली को टटोला. अब बचे का भी क्या करना. इसे पेट में डालना ही सही होगा. अब इतनी दूर से आकर इतने पैसे खर्च कर पिताजी को इस गुड़ के टुकड़े को दिखा कर वह कहेगा यह रहा यह दुर्लभ गुड़ का टुकड़ा? उसे हंसा आ गई. वह खूब हंसा. इसी हँसी में वह पूरा गुड़ खा गया. उसे अहसास ही नहीं हुआ कि चौदह साल बच्चा तीन किलो गुड़ को खा गया. शाम अब आने की पूरी तैयारी में थी. परछाइयाँ बनने लगी थी. पहाड़ियों में अन्तिम किरण विलीन हो रही थी. जो समय उसने गुड़ के साथ बिताया था वह बीत गया. हजारों निर्णयों जिन्दगी को देखते हुये वह घर आ रहा था. अब उसे याद आ रहा था पूरा मामला. उसे लगा उसमें अच्छा कारीगर होने की ताकत थी. इन चार घंटों में उसने कितनी जिंदगियां जीयीं थी. क्या दिमाग है, दिमाग का खेल है पर अब समझ में नहीं आ रहा था कि स्थिति का सामना वह कैसे करेगा?
(Gundru Folk Stories of Uttarakhand)
आखिर में गाँव के दो तीन घर पारकर अपने बरामदे में आने से पहिले उसने समझ लिया झूठ तो बोलना ही पड़ेगा. अब पिताजी स्वीकारें या न स्वीकारें. वह बाघ वाली बात ही बताएगा. आजकल गाँव में बाघ भी लगा है. हाँ उसमें बच्ची वाली बात हटानी पड़ेगी. दो-दो फायदे नहीं लेने कि गुड़ भी खाया और बहादुर भी बना. पर जब होगा किस गाँव की वह बच्ची थी तो मामला गड़बड़ हो सकता था. माँ गले से लगा लेगी, रोएगी. उसने थैला भी पास के गधेरे में फेंक दिया मामले को और भी यकीन वाला और ताकतवर बनाने के लिए. अपने बाल बिखेर लिए. खरोंच भी… एक बहुत बड़े खतरनाक सच के मुकाबले के लिए वो बहुत बड़ा झूठ बोलने के लिए तैयार होकर निश्चित होकर घर में घुस गया पर एक अफसोस ने उसे अचानक ठिठका दिया. एक खुशी जो गुड़ आने के कारण उसके भाई बहिनों उसके माता पिता में आती. शहर की बात का आनन्द आता वह तो खत्म हो गया… जाड़ों में बर्फ के साथ गुड़ खाने का आनन्द! घर वापस आते समय खुशियाँ झोले में भर लाने का आनन्द ! इस अफसोस ने उसे देली में ही स्तब्ध कर दिया. अभी तक वह वहीं खड़ा है स्तब्ध तब से.
(Gundru Folk Stories of Uttarakhand)
किसी जमाने में पॉलीथीन बाबा के नाम से विख्यात हो चुके प्रभात उप्रेती उत्तराखंड के तमाम महाविद्यालयों में अध्यापन कर चुकने के बाद अब सेवानिवृत्त होकर हल्द्वानी में रहते हैं. अनेक पुस्तकें लिख चुके उप्रेती जी की यात्राओं और पर्यावरण में गहरी दिलचस्पी रही है.
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