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उत्तराखंड में सकल पर्यावरण सूचक

देश के विकास की दर की माप के सूचक सकल राष्ट्रीय उत्पाद या जीडीपी के मानक हैं परन्तु आर्थिक क्रियाओं से संबंधित प्रकृति व परिवेश यथा जल-जमीन और जंगल से संबंधित पर्यावरण की लागतों और इनसे प्राप्त लाभ के प्रसंग में यह वृद्धि के मूल्यांकन का सबसे दुर्बल उपकरण सिद्ध होते है.
(Gross environment Product Index Uttarakhand)

आर्थिक विकास में आर्थिक के साथ अनार्थिक घटकों का अतुल योगदान होता है और इसी कारण पूरी माइक्रो व मैक्रो सिस्टम या व्यष्टि व समष्टि प्रणाली में इनकी उपदेयता बनी है. इसे ध्यान में रख सभी जनों के कल्याण व सहजरूप से उपलब्ध प्राकृतिक पारिस्थितिकी के प्रबल योगदान के मात्रात्मक व गुणात्मक विश्लेषण के लिए जीईपी अर्थात सकल पर्यावरणीय उत्पाद पर निर्भर रहना अधिक युक्ति संगत पाया गया. यह ऐसा मापदंड बन सकता है जिससे प्रकृति दत्त पारिस्थितिकी तंत्र से मिलने वाली सेवाओं को मापा जा सके. इसके चर- अचर व प्राचल परिवेश से मिलने वाले योगदान का मुद्रा मूल्य नियत कर सकते हैं. इसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक कल्याण व सांस्कृतिक भिन्नताओं के प्रसंग में प्राकृतिक पूंजी के वास्तविक मूल्य को प्रदर्शित करना है.

सकल पर्यावरण सूचक का मापन करते हुए संसाधनों के उपयोग, पर्यावरण की गुणवत्ता, प्रदूषण के स्तर और स्थिरता से जुड़े कई संकेतकों का प्रयोग किया जाता है.इनमें पहला है पर्यावरणीय संकेतक जिसमें वायु गुणवत्ता, जल गुणवत्ता व मिट्टी की उपजाऊ शक्ति और प्रदूषण के स्तर मुख्य कारक हैं. फिर ध्यान रखा जाता है कि किसी गतिविधि या संस्था द्वारा उत्सर्जित कुल ग्रीन हाउस गैसें कितनी हैं अर्थात कार्बन फुटप्रिंट की दशा क्या है? यह निगरानी रखनी होगी कि जैव विविधता का स्तर क्या है? इसे बायो डाइवर्सिटी सूचकों के द्वारा तय किया जाएगा. इससे परिस्थितिकी तंत्र की स्थिरता का पता चलेगा.

सकल पर्यावरण उत्पाद की संकल्पना देश के भौगोलिक स्वरुप व सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश को ध्यान में रख भिन्न होती हैं क्योंकि हर राज्य में संसाधनों की उपलब्धता व उनके उपयोग के चलन अलग-अलग होते हैं. इसीलिए इसकी मात्रात्मक गणना में ऐसे कई चरण और मापन के तरीके सम्मिलित होते हैं जिनसे क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र से प्राप्त लाभों का मात्रात्मक मूल्य तय हो सके. यह एक जटिल प्रक्रिया है.

मानव भी जैविक घटक का हिस्सा है और उसका परिवेश पर गहरा असर पड़ता है खासकर सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से. दूसरी ओर अजैविक धटकों में मिट्टी भूमि का आधार है जिसमें खनिज और कार्बनिक पदार्थ होते हैं जो यह पोंधों की वृद्धि के लिए आवश्यक होते हैं. दूसरा है जल, जो सभी जीवन रूपों के लिए जरुरी है व जलवायु, मौसम और पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित करता है. तीसरी है वायु जो गैसों का मिश्रण है जो प्रकृति के वातावरण को बनाता है व जीवन के लिए ऑक्सीजन, नाइट्रोजन आदि प्राण वायु प्रदान करता है. चौथा है प्रकाश अर्थात सूर्य की रौशनी जो ऊर्जा का मुख्य स्त्रोत है और सभी जैविक प्रक्रियाओं को संचालित करती है. फिर आता है तापमान जो किसी इलाके की जलवायु को प्रभावित करता है और जीवों की जीवन शैली को निर्धारित करता है.
(Gross environment Product Index Uttarakhand)

पहाड़ी क्षेत्र के भौतिक घटकों में पर्वत, तलाऊं उपराऊँ की जमीन, गाड़ गधेरे नदी,गल यानी हिमनद, बर्फीले पहाड़ के साथ रौखड़ जैसी सभी भू आकृतियाँ शामिल होंगी तो मौसम व जलवायु में तापमान, आद्रता, वर्षा, हवा की गति जैसे सभी भौतिक घटकों का हिस्सा रहेंगी और यह पर्यावरण की स्थिति को निर्धारित करेंगी. साथ ही ऐसे रासायनिक तत्व व यौगिक तो साथ रहेंगे ही जो जैविक व अजैविक प्रक्रियाओं को प्रभावित करते चलते हैं. पोषक तत्व चक्र में कार्बन, नाइट्रोजन व जल चक्र भी जो पर्यावरण में तत्वों के प्रवाह व पुनः चक्रण को प्रभावित करते हैं.

इन सब से मिल कर बनता है पर्यावरण जिसके साथ एक दूसरे कारक के जटिल अंतर सम्बन्ध होते हैं. यहाँ यह जानना जरुरी है कि सकल पर्यावरण निर्देशक का निर्धारण कैसे किया जाता है. यह एक दुरूह प्रक्रिया है जिसमें पर्यावरणीय गुणवत्ता, संसाधनों के उपयोग, प्रदूषण के स्तर व स्थिरता से जुड़े विभिन्न कारकों को शामिल किया जाता है. इसे मापने के लिए कुछ मुख्य तरीकों और संकेतकों का उपयोग करते है. जिनमें मुख्य हैं पर्यावरणीय संकेतक जिसमें वायु प्रदूषण के स्तर को वायु गुणवत्ता सूचक मापता है तो जल के प्रदूषण स्तर को जल गुणवत्ता सूचक वहीं मिट्टी की उपजाऊ शक्ति और और प्रदूषण के स्तर को मिट्टी की गुणवत्ता का परीक्षण किया जाता है. यह देखना भी जरुरी है कि किसी क्रिया, गतिविधि से या संस्था द्वारा उत्सर्जित कुल ग्रीन हाउस गैसें कितनी हैं. इसे कार्बन फुटप्रिंट कहेँगे. अगले चरण में पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिरता के सूचक ध्यान में रखे जायेंगे जो जैव विविधता के स्तर को मापेंगे. संसाधनों के उपयोग अर्थात जल, ऊर्जा व कच्चे माल का उपयोग और उनकी कुशलता की माप के संकेतक बनाए जायेंगे. इन प्रक्रियाओं के उपरांत पर्यावरणीय प्रभाव का आंकलन किया जाता है. यह एक औपचारिक प्रक्रिया है जो परियोजनाओं और नीतियों के पर्यावरण प्रभाव को मापती है.

यह देखना जरुरी है कि राज्य या इलाके में प्राकृतिक संसाधनों का अर्थात पानी, ऊर्जा और कच्चे माल का उपयोग किस प्रकार किया जा रहा? फिर आता है पर्यावरणीय प्रभाव का आंकलन जो एक औपचारिक प्रक्रिया है जिसमें परियोजनाओं और नीतियों के पर्यावरण पर पड़े प्रभावों की समीक्षा होती है. अब आते हैं सततता सूचक, जो दीर्घकालिक सतत विकास और संसाधनों के टिकाऊ उपयोग को मापने के संकेतक हैं. यह भी जानना जरुरी है कि देश में जो पर्यावरण नीति है, वह अपने निर्दिष्ट कानूनों और नीतियों के अनुपालन के प्रति कितनी संवेदन शील है?
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सकल पर्यावरण सूचक जैसी व्यापक अवधारणाओं की माप किये जाने वाले संकेतक और विधियों का विकास बीसवीं सदी के मध्य से तब हुआ जब पर्यावरण की समस्याओं के लिए लोग जागरूक हुए व सरकारें दबाव में आयीं.यह सोच उभरी कि पारिस्थितिकी ही स्थाई आर्थिकी है. 1970 के दशक से पर्यावरण आंदोलन आरम्भ हुए. जल-जमीन और जंगल से जुड़ी परेशानियों से आम जनता परेशान हुई. जंगलों की कटाई, नदियों की गंदगी, नगर महानगरों में हवा में विषाक्त गैसों का बढ़ना ऐसी शुरुवाती समस्याएं थीं जिनसे सामाजिक संगठनों ने इनके विरोध में आवाज उठाई और सरकार बाध्य हुई कि वह इनके निवारण के उपाय अमल में लाये.

पर्यावरण के मुद्दों पर 1972 में स्टॉक होम में यूनाइटेड नेशन का स्टॉक होम अधिवेशन हुआ जिससे समस्या व समाधान की नीति पर बहस छिड़ी. 1980 के दशक में ब्रुटलैंड रिपोर्ट (1987) में सतत विकास की अवधारणा प्रस्तुत की गई जिससे पर्यावरण के घटकों के मापन की जरूरत पर बल दिया गया और सतत विकास के मापन के सूचकांक खास तौर पर विकसित किये जाने लगे. 1990 के दशक में जैव विविधता और ग्रीन हाउस उत्सर्जन को मापने के लिए कार्बन फुट प्रिंट व अन्य सूचक सामने रखे गये. इन मापन विधियों पर चर्चा का क्योटो प्रोटोकॉल (1997) हुआ जिनसे ग्रीन हाउस गैसों की जानकारी भी मिल सके. वर्ष 2000 के बाद सतत विकास लक्ष्य पाने के लिए 2015 में संयुक्त राष्ट्र ने सत्रह सतत विकास लक्ष्य नियत किये जिनमें पर्यावरण संकेतकों को प्रमुख प्रतिमान मिला. पर्यावरण प्रभाव आंकलन या ईआईए की प्रक्रिया विश्व स्तर पर लागू हुई.

भारत ने रियो डि जनेरियो (1992) में हुए पृथ्वी सम्मेलन में भाग लिया जिसके बाद देश में विकास व पर्यावरण के मापन के महत्त्व को रेखांकित किया गया. 1992 -93 में पर्यावरण की उन समस्याओं की पड़ताल की गई जिन्हें ‘राष्ट्रीय पर्यावरण नीति’ व संबंधित विकास नीतियों में शामिल किया जाना अभीष्ट था. पर्यावरण के सूचचांक लगातार विकसित करने का क्रम बना. विभिन्न परियोजनाओं के पर्यावरण पर पड़े प्रभाव के आंकलन हेतु ईआईए निर्देशक तय हुए. 2010 में पर्यावरण पक्षोँ की न्यायिक समीक्षा के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग या एन जी टी का गठन किया गया. 2013 में भारत ने ग्रीन जी डी पी का प्रयोग शुरू किया जो परंपरागत सकल राष्ट्रीय उत्पाद में पर्यावरण की लागतों को समाहित करता है. 2015 में उन सतत विकास लक्ष्यों पर चलने की पहल हुई जिन्हें संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2030 तक अपनाने का लक्ष्य तय किया गया था.
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देश में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने पर्यावरण से संबंधित समंक एकत्रित करने व उन्हें प्रकाशित करने के प्रयास किये तो केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने वायु व जल गुणवत्ता के संकेतकों के समंक जुटाए.

उत्तराखंड में सकल पर्यावरण सूचक (जीईपी ) का प्रयोग औपचारिक रूप से 19 जुलाई 2021 से आरम्भ हुआ. यह सूचक राज्य की प्राकृतिक आपदाओं का मूल्यांकन करने के लिए उचित समझा गया. सकल प्राकृतिक सूचक, सकल घरेलू उत्पाद के समान है पर इसमें पर्यावरणीय सेवाओं और प्राकृतिक संसाधनों के योगदान को मापने का प्रयास किया जाता है. यह पहल उत्तराखंड को भारत का पहला राज्य बनाती है जिसने जीईपी का उपयोग किया.

सकल पर्यावरण सूचक का उपयोग उत्तराखंड में पर्यावरण की सेवाओं और प्राकृतिक संसाधनों के मूल्यांकन के लिए किया गया जिसमें वनों की सेवाएं, जल संसाधनों की दशा, जैव विविधता और कार्बन सिंक जैसे घटक शामिल हैं. इनसे राज्य की प्राकृतिक सम्पदा का आर्थिक महत्त्व पता चलता है. मुख्य रूप से जल-जंगल-जमीन व वायु संबंधी सूचकांक सम्मिलत रहे जिस पर आधारित जीईपी आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण के मध्य उपज गये असमायोजन के निवारण की नीति प्रस्तावित करता है.

जीएसपी के आंकड़ों के आधार पर पर्यावरण संरक्षण व सतत विकास के लिए नीतियों में सुधार का रास्ता बनता है अर्थात प्राकृतिक संसाधनों के स्थाई प्रबंधन व संरक्षण के लिए बेहतर रणनीतियाँ बनाई जा सकती हैं. जिसमें सबसे जरुरी है प्रकृति व मनुष्य के मध्य अधिक सामंजस्य बनाना जो ऐसी टिकाऊ आर्थिक नीति की भावना से पूरित हों जिसमें पर्यावरण स्थायित्व के साथ आर्थिक प्रोत्साहन का तालमेल बने रहे. यह संकल्पना रही कि जी एस पी राज्य को सतत विकास की दिशा में आगे ले जाने हेतु मार्गदर्शन करता है व इस पर चलते आर्थिक विकास के साथ पर्यावरण स्थिरता को भी सुनिश्चित किया जा सकता है.

जीएसपी की विवेचना यह भी स्पष्ट करती है कि पर्यावरणीय सेवाओं का आर्थिक मूल्य कितना अधिक है जिससे सरकार व अन्य भागीदारी वाले उपक्रम राज्य में अधिक विनियोग की सम्भावनाएं तलाश सकें. सबसे बड़ा पक्ष तो यह है कि इसके उपयोग से स्थानीय समुदायों को उनके प्राकृतिक संसाधनों के महत्त्व के बारे में संवेदनशील बनाया जाना संभव है जिससे पर्यावरण संरक्षण में आम लोगों की भूमिका अधिक सक्रिय हो सके.
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सकल पर्यावरण सूचक के दिशा निर्देश के बावजूद उत्तराखंड में पर्यावरण की समस्याओं का बढ़ना एक जटिल मुद्दा है जो अनेक कारकों से प्रभावित है. इनमें जलवायु परिवर्तन मुख्य है जिसकी विभीषिका से अचानक ही मौसम की प्रवृति में बदलाव दिखते हैं. कभी अधिक बारिश है तो कहीं इसका अभाव. ठंडे इलाकों में भी अत्यधिक गर्मी पड़ने लगी है, ऋतू चक्र बदल रहे. बेमौसम फूल खिलने लगे हैं. मानसून अनियमित होने लगा है तो कई इलाकों में सूखे की जैसी घटनायें घटित हो रहीं हैं. जंगल की आग से भारी नुकसान हुआ है. सड़कों के टूटने के साथ उनसे सटी पहाड़ियों के धचकने की घटनाएं बढ़ रहीं हैं. इस सब से पर्यावरण की अपार क्षति हुई है.

राज्य में हो रही अंतरसंरचनात्मक गतिविधियों जैसे सड़कों का निर्माण और उनका चौड़ीकरण, बांध परियोजनाएँ, शहरीकरण का अनियोजित विस्तार व चुनी हुई जगहों की ओर पर्यटन गतिविधियों के बढ़ने से प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र पर क्षमता से अधिक बोझ पड़ा है. हाल की ऐसी घटनाओं से जाहिर होता है कि विकास की परियोजनाओं में पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ईआईए) व जीईपी सूचक का समुचित उपयोग किया जाना संभव नहीं हुआ जिनसे पर्यावरण की समस्याएं बढ़ी हैं.

प्रदेश में खनिज साधनों का अवैध व अनियमियत दोहन पर्यावरणीय क्षति का मुख्य कारण है. खनन गतिविधियों से भूमि का क्षरण, वनों की कटाई और जल स्त्रोतों का प्रदूषण हुआ है. वहीं जंगल की आग और वनों के अवैध कटान से वन्य जीवों का प्राकृतिक आवास दायरा सिमट रहा है, मानव-वन्य जीव संघर्ष बढ़ रहा है तो जंगल की भयावह अग्निकांड की घटनाओं ने बेहिसाब फ्लोरा-फोना नष्टप्राय कर दिये हैं. जैव विविधता को भारी खतरा हुआ है. अवैध खुदान से अनेक दुर्लभ जड़ी बूटियां नष्टप्राय कर दी गईं हैं इनमें से अधिकांश जैसे यॉरसा गम्बू, सालम मिश्री, सालम पंजे की तस्करी के जाल अन्तर्राष्ट्रीय बाजार तक फैले हैं.
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जीईपी के उपयोग की स्वीकारोक्ति के बावजूद, अधिकांशतः स्थानीय प्रशासन व सम्बंधित निकाय व एजेंसियों के द्वारा पर्यावरण के आधार निदेशक नियमों व नीतियों का समुचित पालन नहीं होता. निगरानी का तंत्र विकसित ही नहीं है जब कोई घटना घट जाती है, अखबारों में खबर छपती है तब लीपापोती की जाती है. कानूनों के कमजोर प्रवर्तन से पर्यावरण हमेशा उपेक्षा का शिकार बनता है.

पर्यावरण संरक्षण व संवर्धन के प्रयासों में समुदाय की भागेदारी व जागरूकता अलगाव से ग्रस्त है. इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि पर्यावरण की चिंता करने वाले मठाधीश सरकार के कृपापात्र बनने में तो सक्षम रहते हैं पर पहाड़ के आम जन की तकलीफ से उनका नाता जुड़ ही नहीं पाता. स्वयं सेवी संगठन व गैर सरकारी संगठन कॉर्पोरेट तरीकों से संचालित हैं वैसे भी इनकी नियति संसाधनों पर पकड़ बना अपने निहित लक्ष्य को प्राप्त करने की है आम जन की भागेदारी से तो भारी विवर्तन है. स्थानीय समुदाय भी इस हेराफेरी के अल्पकालिक लाभ से आकृष्ट हो संरक्षण व सुरक्षा की उन नीतियों के विरोधाभासी काम कर गये जिनसे समाधान सम्भव हो पाता. जब तक सुस्पष्ट नीतियों के कार्यन्वयन, समुदाय की भागेदारी व पर्यावरण की समझ के परंपरागत मूल्यों पर आधारित सोच में सुधार नहीं होगा तब तक जी ई पी सूचक से भी सैद्धांतिक बाजीगरी होती रहेगी.

उत्तराखंड में देहरादून स्थित हेमवती नंदन बहुगुणा पर्यावरण एवं सामाजिक विकास संस्था (हेस्को) के संस्थापक डॉ. अनिल जोशी ने सकल पर्यावरण उत्पाद की अवधारणा को बढ़ावा देने व इसे लागू करने की पहल की. हेस्को का योगदान ग्रामीण विकास व पर्यावरण संरक्षण पर केंद्रित रहा है जिसके माध्यम से उन्होंने जीईपी के विचार को विकसित किया और उत्तराखंड की पर्वतीय पृष्ठभूमि में इसके क्रियान्वयन का प्रारूप बनाया. डॉ. अनिल जोशी ने जीईपी को एक वैकल्पिक सूचक के रूप में प्रस्तावित किया जो सकल घरेलू उत्पाद की तरह ही महत्वपूर्ण है व पर्यावरणीय सेवाओं का मूल्यांकन करता है.

प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध होते हुए भी उत्तराखंड जिन प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रहा है उनके समायोजन की सुविचारित नीति यह ही होनी चाहिए कि आर्थिक विकास के साथ पर्यावरण संसाधनों का भी मूल्यांकन और संरक्षण किया जाना चाहिए. जी ई पी के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों व पारिस्थितिकीय सेवाओं का आर्थिक मूल्यांकन संभव है. जिस प्रकार आर्थिक क्रियाओं का विश्लेषण व मूल्यांकन किया जाता है उसी प्रकार हमें वनों, जल स्त्रोतों व जैव विविधता जैसी पर्यावरणीय सेवाओं का भी मूल्यांकन करना चाहिये.
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डॉ. अनिल जोशी की पहल पर उत्तराखंड सरकार ने जुलाई 2021 में जीईपी को औपचारिक रूप से अपनाया व इस अवधारणा पर चलने वाला देश का पहला राज्य बना. ऐसे प्रयास किये जाने संभव हुए कि राज्य में पर्यावरणीय साधनों का उचित मूल्यांकन हो व उनका संरक्षण किया जा सके. यह केवल तब सम्भव है जब जीईपी का उपयोग नीतियों को बनाने में सम्यक रूप से हो, ऐसे कि विकास और पर्यावरण समंजित हो सकें. जीईपी के समंक नीतिगत निर्णयों को अधिक टिकाऊ और पर्यावरण संवेदनशील बनाने में अधिक प्रभावी सिद्ध हो सकते हैं. उन्होंने हेस्को के माध्यम से ग्रामीण और स्थानीय समुदायों को पर्यावरण संरक्षण में सम्मिलित किया. जी ई पी के माध्यम से उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की कि प्राकृतिक साधनों का संरक्षण सीधे सीधे समुदायों के हित में होता है जो यहाँ की परंपरागत मान्यताओं से भी जुड़ाव रखती हैं.

उत्तराखंड में जीईपी लागू करने के बावजूद पर्यावरण की समस्याएं और गहन हुई हैं. इसके कारणों तक जाएँ तो सबसे प्रभावी कारण नीतियों के प्रभावी क्रियान्वयन की दुर्बलता है. नीतियाँ प्रभावी रूप से चलाई नहीं गईं, केवल जीईपी को एक सूचक के रूप में प्रयोग किया गया लेकिन उसके अनुसार ठोस कदम उठाने में कई हित आपस में टकराते रहे. निर्णायक कदम उठाने से प्रशासन बचता रहा. हर बार यह देखा गया कि स्थानीय प्रशासन और संबंधित एजेंसियों के बीच तालमेल व समन्वय का झोल रहा.

दूसरा उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य में ग्लोबल वार्मिंग-जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभाव पड़े. कहीं अत्यधिक बारिश तो कहीं खंड वृष्टि कहीं सूखा तो कहीं तापमान में वृद्धि. साथ में वर्षा काल आरम्भ होते ही बादल फटने, हिमनद खिसकने और बाढ़ के साथ पथ अवरोध की निरंतरता लगातार बनी रहती है. जीईपी इन्हीं के प्रति संवेदनशील रहने की वकालत करता है पर प्रकृति के यही कारक कहर बने दिखते हैं. इनके मूल में जाएँ तो अवैध खनन, अनियंत्रित निर्माण कार्य और बुनियादी ढांचे के विकास की गड़बडियों से पर्यावरण को आघात पहुँचते रहा है.

सड़कों के निर्माण, बांध परियोजनाओं और शहरीकरण में पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ईआईए )की सही प्रक्रिया का पालन नहीं होता जिससे पारिस्थितिकी तंत्र पर गंभीर आघात होते हैं. दुर्बल व भंगुर इलाकों में सड़क व निर्माण कार्य स्वीकृति मिलती है जिसके लिए वन अधिनियम संशोधन जैसे विधेयक पारित कर दिये जाते हैं. भूमि की धारक क्षमता को ध्यान में रखे बिना पर्यटन स्थल फैलते चले गये हैं जिससे वहां के जल-जमीन-जंगल का संतुलन बिगड़ चुका है. वनों की कटाई, जल स्त्रोतों का अति दोहन और जैव विविधता के ह्रास के संकट बढ़ते गये हैं.

सामाजिक व आर्थिक दबावों के साथ मनमाने राजनीतिक मूल्य भी पर्यावरण की उपेक्षा करते हैं. अधिकांश मामलों में स्थानीय समुदायों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जाता जिससे जन समुदाय की वास्तविक अवश्यताओं व चिंताओं नजरअंदाज कर दी जाती हैं.

जीईपी के प्रभाव का आंकलन और निगरानी नियमित रूप से नहीं की जाती जिससे नीतियों के प्रभाव को मापे जाने का संकट उभरता है. पर्यावरण के मुद्दों पर गहन अनुसन्धान व समंक एकत्रित करने व उनके संग्रहण की कमी से तर्क संगत निर्णय लिए जाने सम्भव नहीं होते.

पर्यावरण संरक्षण के लिए बने कानूनों, जीईपी की अवधारणा और समुदाय की भागीदारी के लिए वित्तीय व संसाधन की सीमाऐं व उन्हें सही दिशा में खर्च न कर पाने के साथ पर्यावरणीय सेवाओं के लिए पर्याप्त विनियोग न जुट पाना कई ऐसी योजनाओं को आधा अधूरा छोड़ देता है जिनसे भावी विकास की रुपरेखा तय होना सम्भव हो सुदीर्घकलिक विकास हो.
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पर्यावरण के लिए बने नियमों और उनमें किये सुविचारित संशोधन भी असमंजस के पक्ष हैं. इनकी संवैधानिक व नीतिगत चुनौतियां हाशिये पर रहती हैं. ऐसे परिप्रेक्ष्य में सम्यक नीति निर्माण, प्रभावी क्रियान्वयन व समुदाय की हिस्सेदारी विगलन की चपेट में दिखने लगती है.

(जारी)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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