अंतर देस इ उर्फ़… शेष कुशल है! भाग – 3

पिछली कड़ी

गुडी गुडी डेज़
-अमित श्रीवास्तव

उन दिनों कोई ख़बर बम की तरह नहीं फूटती थी. सिलिर-सिलिर जलती रहती. बीच-बीच में कोई सूखा समय देख कर झर्रर से लपक उठती फिर धीरे-धीरे राख़ सी बैठ जाती. पूनम मेहता के आरोप भी ऐसे ही कुछ दिनों तक सिलिर-सिलिर करते रहे. आज उसके झर्रर वाला दिन था. सरेआम कॉलेज के पीछे वाले गार्डेन में मीटिंग बुलानी पड़ी. जिसमें आम का पार्ट आठ हज़ार की छात्र संख्या वाले कॉलेज के कुल जमा आठ छात्र-छात्राओं ने निभाया. ऐसी मीटिंग में कॉलेज के प्रिंसिपल कभी होते कभी नहीं होते थे. कभी नहीं होकर भी होते और आज होकर भी नहीं थे और चूंकि कॉलेज की बिना नुक्ते वाली इज्जत का सवाल था इसलिए मनोविज्ञान विभाग के हेड ठाकुर मृत्युंजय उर्फ़ चट्टान सिंह ने बागडोर संभाली थी.

भनक ऐसी चीज़ थी जो उन दिनों बहुत चूज़ी हुआ करती थी. किसी-किसी को ही लगती थी. हालांकि संक्रमणकारी तब भी थी पर इतनी भी नहीं जितनी कि भनक की पड़पोती है. वाइरल. इतनी तेज लगती है कि लगता है इसी ने जुलाब खा लिया हो. इस मीटिंग की भनक धीरे-धीरे लगती गई लोगों को. धीरे-धीरे लोग इकट्ठा होने लगे. धीरे-धीरे मजमा लग गया.

पूनम का कहना था कि अतर सर ने उसके साथ कुछ गलत बात कर दी थी. गलत बात! ऐसे व्यवहार के लिए ऐसे काम चलाऊ शब्द! दरअसल ऐसे मामलों में भाषा भी समर्पण कर देती थी. ये शब्द भी तब ही निकलते थे जब सहनशीलता भी समर्पण कर देती थी. हुआ दरअसल यों था कि एक्ज़ाम के पहले प्रैक्टिकल हो रहे थे. उन्हीं दिनों में किसी दिन रजनीकांत सिन्हा, रीडर, रसायन शास्त्र ने मौका देखकर छात्रा पूनम के साथ कोई हरकत कर दी थी. उसने उसी वक़्त कुछ लोगों को बताया. पहले तो, ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज के सुख-दुःख उसके अपने सुख-दुःख हैं’ के तहत गुरुजी को ही समाज मानते हुए परम् सामाजिक कर्तव्य निभाया गया. सबको इग्नोर करने की सलाहियत बख्शने का. इग्नोर करो. इग्नोर करो. प्रतिष्ठित आदमी हैं. कॉलेज के प्रोफेसर हैं. बाल बच्चेदार हैं. और तो और दो-दो लड़कियों के बाप हैं. ऐसा कैसे? ना ! कुछ दिन दबा भी रहा मामला. सिलिर-सिलिर जलता रहा अन्दर ही अन्दर. लेकिन आज फिर सूखा समय देखकर.

रजनीकांत सिन्हा उर्फ अतर सर तीन बातों के लिए भयानक स्तर पर ख्यात थे. (ख्यात के आगे `कु’ या `वि’ वाला उपसर्ग समयानुसार और समझने वाले की अपनी लाभ-हानि के अनुसार बदलता रहता था.) पहली, उनके चेहरे पर एक ढीली-ढाली मुस्कान हमेशा पड़ी रहती थी. दूसरी, उनके शरीर, जी हाँ शरीर, क्योंकि उन्हें सुबह नौ से साढ़े नौ के बीच अक्सर अपने बरामदे में उघारे बदन भी पाया जाता था, से एक कसी-कसी सी सुगंध ट्वेंटी फोर इनटू सेवेन फूटती रहती थी. खुशबू से लटपटान रहते गुरूजी. ऐसा लगता कि जैसे अभी इत्र के कण्डाल में से कूद मारकर बाहर निकले हों. रोज अलग-अलग महकते. बेला-गुलाब-जूही-चम्पा-चमेली की गंध में अंतर ढूंढना हो तो उनसे सम्पर्क किया जा सकता था. कभी किसी छात्र को शक़ होता तो कान के जाने किस खोह से इत्र के फाहे निकाल कर सुंघा देते. कहते `ये महसूस करो मेरीगोल्ड. पिछले हफ्ते ही लाया हूँ मैं ये अतर.’ छात्र शब्दकोश में मेरी-मैरी में उलझ सकता था लेकिन उस खुशबू पर आजीवन कोई शक़ न कर सकता था.

उनका नामकरण `अतर सर’ खुशबू में रचे-बसे रहने के कारण हुआ था या इत्र को अतर कहने की उनकी अदा की वजह से, इस बारे में, जैसा कि इतिहासकारों में हर महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना को लेकर रहता है, मतांतर था. लेकिन उनसे जुड़ी तीसरी बात के बारे में इतिहासकारों के बीच मतैक्य था. उनका मत था कि उनकी ये आदत लिजलिजी, भदेस और अजीब थी. इससे ज़्यादा उसके बारे में कुछ कहा नहीं मिलता. उनके हाथों में सुबह के वक्त अक्सर एक सने आटे की गोली हुआ करती थी जिसे वो उंगलियों के बीच मसलते पाए जाते थे. इस बारे में बहुतों ने उनसे पूछा भी लेकिन कुछ कहने की बजाय वो मुस्कुराते. उनकी ढीली मुस्कान में एक हल्का कम्पन सा होता और वो टाईट हो जाती. बस!

शिक्षक थे लेकिन पढ़ाते थे. गुरु-ता उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी. कुटाई ज़्यादा हो गई होगी क्योंकि मसाला बहुत महीन था. संस्कार भी उनमें ठूंस-ठूंस कर भरे थे. भरान ज़्यादा हो गया होगा क्योंकि अक्सर छलक जाता था. पूनम के केस में छलक गया लगता था.

पूनम का कहना था कि इस गलत बात के पहले भी गलत बात हुई थी. बात ये थी कि एक दिन गुरूजी ने छुट्टी के वक्त पूनम को एक किताब दी. घर पहुंचकर पूनम ने देखा कि उसमें एक गुलाबी लिफ़ाफ़ा था जिसमें एक प्रेम पत्र रक्खा हुआ था. पूनम ने दूसरे दिन गुरूजी के चैम्बर में जाकर घोर आपत्ति जताई. गुरूजी ने लंगड़ा सा एक्सक्यूज़ ये दिया कि बहुत पहले उन्होंने अपनी प्रेमिका को देने के लिए लिखा था गलती से किताब में रह गया होगा. जब आपत्ति हुई कि ये कागज़ तो इतना पुराना नहीं है तो दूसरी लंगड़ी मारी कि दरअसल अभी यादाश्त के लिए री राइट किया है. देखो न इसमें ये शे’र `न झटको कांधे से गेसू /कई दिल फूट जाते हैं’ ये आजकल की चीज़ थोड़ी न है. उन दिनों उनका पूरा मानना था कि अंदर से खाली चीज़ टूटती नहीं फूटती है. वो तो बाद में उन्होंने टूट और फूट वाली थीसिस लिखी. दिल टूटता है, सिर फूटता है. दांत टूटते हैं किस्मत फूटती है. आदि-आदि. पूनम थोड़ी नरम पड़ गईं. मौक़ा मिला. गुरूजी ने बहुत महीन आवाज़ में निवेदन किया कि चाहे तो वही रख ले क्योंकि पूनम का चेहरा उस कॉलेज वाली प्रेमिका से हू-ब-हू मिलता है. पूनम ने लिफ़ाफ़ा वहीं पटका और दनदनाते हुए कमरे से बाहर निकल गईं.

पूनम से सबूत के तौर पर वो प्रेम-पत्र माँगा गया. ज़ाहिर है नहीं था. वो दूसरे आरोप पर आईं. उन्होंने कहा कि वो तो कह भी नहीं सकतीं जो कमरे से बाहर जाते-जाते गुरूजी ने कहा. गवाह के तौर पर आए सहायक अध्यापक मगन तिवारी जो इस प्रेम-पत्र-प्रकटीकरण के दौरान आलमारी के पीछे खड़े थे उन्होंने कहा कि उन्होंने भी इनको बहुत गन्दी बात कहते सुनी. फिर थोड़ी देर इस बात को कहते रहे कि क्यों गुरूजी लोगों को गन्दी बात नहीं कहनी चाहिए फिर वो ये कहने लगे कि माहौल इतना ख़राब हो गया है कि चारों तरफ बस गन्दी बात ही हो रही है. खराब माहौल के बारे में सब एक साथ मुतमईन हो गए. माहौल और खराब न हो इस वास्ते ज़रूरी है कि गन्दी बात न की जाए कहकर वो शांत हुए.

पूनम आख़िरी घटना पर आईं. वो प्रैक्टिकल की जानकारी करने ग़लती से होली के चार-पांच दिन पहले कॉलेज आ गईं. उस दिन छुट्टी हो गई थी. गुरूजी ने जानबूझ कर डेट बताने में देर की. फिर जब सब चले गए तो दरवाज़ा घेर कर खड़े हो गए. वो उन्हें धक्का देकर बाहर तो आ गईं. लेकिन क्या उन्हें इस तरह…? और उस दिन बाहर कॉरीडोर में पूनम के साथ हुआ उसका ज़िम्मेदार कौन? पूनम ने एक बड़ा प्रश्नचिन्ह उछाल दिया.

चट्टान सिंह ने `क्या’ उठा लिया. क्या और किसी को कुछ कहना है? मामला निपटाना चूंकि सबसे बड़ा धार्मिक अनुष्ठान हुआ करता था इसलिए चट्टान सिंह ने अतर सर से सफाई मांगने की जगह ये प्रश्न आम लोगों की तरफ उछाला था. लोग अपने-अपने धर्म का पालन करने लगे. सलाह की आहूतियां दी जाने लगीं. बीच-बीच में कुछ आरोप की लकड़ियां भी लगीं. जैसे सरला ने हिम्मत करके बताया कि उस दिन गुरूजी ने क्या कहा था. उन्होंने एक आंख की टीप देते हुए मगन सर से कहा था कि `एक बार हमरे पास आई जात दुई दिना में गाभिन न कई दिहे त कह’.

आग भड़क गई. अतर सर ने दांत में फंसी सुपाड़ी चुभलाना छोड़कर दाहिनी तरफ अपने चेले दामोदर, जो उनके लिए आश्चर्यजनक रूप से `बड़े मियाँ दीवाने, ऐसे न बनो/ हसीना क्या चाहे हमसे सुनो’ वाले बड़े मियाँ थे, की ओर देखा. बड़े मियाँ इस इशारे के इंतज़ार में थे. तीसरे सप्तक में बोल उठे. बचपन में उनके कान खराब होने की वजह से वो ऊंचा सुनते थे. इस वजह से उनका नीचे के सुर भी खराब हो गए थे. उन्होंने कहा कि ये सरला पूनम सब बकवास करती हैं. गलत फायदा उठाती हैं. सरला की कॉपी दिखवा लीजिये फस्ट इयर की. एतना नम्बर मिल गया. कैसे? ये नीता हैं इनका बकवास प्रोजेक्ट भी पास हो गया. काहें? पूनम का तो एडमीशन ही… धनंजय के पास हॉकी की सर्टिफिकेट रहा तभओं पूनम क्यों? दामोदर ने `क्या’ को `कैसे’ और `क्यों’ में कन्वर्ट कर दिया.

पूनम ने विमला को देखा. विमला काफी देर से गुमसुम थीं. इस `क्यों’ से तन्द्रा टूटी तो बुद्बुदाईं कि अतर सर ने पिछले साल उन्हें भी इसी तरह एक कागज़ की चिट पर कुछ लिखकर दिया था. उसने इग्नोर किया तो उन्होंने ऐसे ही कुछ बहाने से रोककर कुछ इमोशनल बात कही. फिर एक दिन उसका रास्ता भी रोक लिया था. वो तो अच्छा हुआ कि कुछ और लडकियां आ गईं नहीं तो… लेकिन इस घटना को एक साल हो लिया. पहले क्यों नहीं आईं वो? पहले क्यों नहीं की शिकायत? विमला की ये शिकायत टाइम बार हो गई. लेकिन उनके बयान से एक बात तो तस्दीक हुई कि अतर सर का प्रेम प्रदर्शन त्रिस्तरीय होता था. पहले पत्र-प्रेषण, फिर भावनात्मक भयादोहन और आखिर में स्व-समर्पण.

चट्टान सिंह इस प्रैक्टिकल से थ्योरी पर आए और पूछा और है किसी की कोई शिकायत? पूनम ने सीमा की ओर नजरें कीं. सीमा ने सुनीता को देखा, सुनीता ने सुमन को और फिर तीनों अपनी सलवार की बकरन देखने लगीं . मतलब साफ़ था. उधर से उम्मीद जाती रही. यहाँ आने से पहले उन्होंने पूनम से वायदा किया था कि साथ देंगी. लेकिन…

मौके की नज़ाकत का फायदा उठाते, नचाते और हवा में उछालते हुए विक्की, रज्जू, आलोक, जावेद कई स्वर उठे. सबने प्रश्न फेंके. इन लडकियों को कोई कुछ क्यों नहीं कहता. मल्लब जीन्स पहिन के कॉलेज में आना, मल्लब एक्स्ट्रा क्लास के बहाने देर तक रुकना, मल्लब ग्रुप स्टडी के लिए लाइब्रेरी के पीछे झुंड बनाकर बैठना इनको कितना छूट चाहिए?

‘क्यों’ बिगड़ कर ‘कितना’ हो गया था. प्रश्नों के तीर का मुंह उल्टी दिशा में हो चुका था. एक छात्र ने दुबारा उसे सीधा करने की कोशिश की. उसने अतर सर को डिस्कोर्स में खींचते हुए कहा कि ये हम सब के सामने उस दिन की होली का बहुत गिजगिजा वर्णन करते हैं. वो कहते हैं कि `कॉरीडोर में कुछ लड़के थे. उन्होंने पूनम को… आय-हाय अइसे गिराई-गिराई के पोतेन अउर अइसी-अइसी जगहां पोतेन कि… आय-हाय’ ऐसा लगता है कि सर कल्पना में बार-बार उसे ज़मीन पर गिराकर.

आग दुबारा भड़क गई. ज़रूरत थी रफा-दफा मन्त्र उच्चारण की. लम्बे धार्मिक अनुष्ठानों में रफा की ज़रुरत पड़ ही जाती है. अतर सर की निगाहें सैन्य विज्ञान के प्राचार्य इस लिहाज से शस्त्र ज्ञान के साधक किन्तु शान्ति के उपासक अतएव शास्त्र ज्ञान के उत्सर्जक सजल सिंह की ओर उठीं. सजल अपना ज्ञान जल लेकर तत्काल सक्रिय हो उठे. अपवित्र पवित्रो वा सा करते हुए उन्होंने कुछ श्लोक बोले. फौरी तौर पर जिसका मतलब यह निकला कि पुरुष वस्तुतः राम या हद्दे हद्दा लक्ष्मण है और स्त्री निस्संदेह सूपर्णखा, जो मौक़ा मिलते ही उसपर कूद पड़ती है. पुरुष विश्वामित्र है और स्त्री मेनका जो उसकी तपस्या भंग करने पर आतुर हो जाती है. लेकिन फिर भी, परन्तु, तथापि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और उनको समभाव से रहना चाहिए.

आग लगभग काबू में आ गई थी. चट्टान सिंह ने जेब से रुमाल निकाला. अपना चश्मा साफ़ करते हुए उन्होंने आँखे मिचमिचाईं जो अमूमन वो उस वक्त करते थे जब वो डिसीजन डिलीवरी पॉइंट पर होते थे. वाक्य की शुरुआत ‘कहना तो नहीं चाहिए फिर भी’ से करते हुए उन्होंने शब्दों की एक मृगी मुद्रा पर पॉज़ लिया परम्परा, अनुशासन और संस्कार ! थोड़ी देर इन शब्दों का हव्य देते रहे फिर तेईस मिनट तक धारा प्रवाह जाने क्या-क्या उच्चारित करते रहे. चौबीसवें मिनट पर जब वो रुके वातावरण पवित्र हो चला था. उन्होंने चार बातें सबकी गांठ में बन्धवाईं. पहली, छुट्टी की सूचना समय से रिलीज़ होनी चाहिए… दूसरी, आदमी अगर मन में ठान ले तो अपनी लिखावट सुधार सकता है… तीसरी टूट और फूट में जाहिरा तौर पर कोई खास अंतर नहीं होता और चौथी एवं सबसे मानीखेज, भूल-चूक: लेनी-देनी: आज नगद:कल उधार: बरपट: शुभ लाभ!!

लोगों ने अपनी-अपनी गांठ थामी और भूल-चूक-माफ़-करो-सियार-मुंह-साफ-करो ( उन्होंने मुंह नहीं कहा था!) मुद्रा में विदा हुए.

पुनश्च: लेकिन किसी का ध्यान रसायन शास्त्र विभाग की चपरासी लक्ष्मी देवी की तरफ नहीं गया जो दीवार की आड़ में खड़ी सब सुन-देख रही थी. उसे शायद आटे की गोलियों का राज़ पता था!!

डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.

 

अमित श्रीवास्तव

उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं.  6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता). 

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