अंतर देस इ उर्फ़… शेष कुशल है! भाग – 14
अमित श्रीवास्तव
उत्तर पत्र लीक हो गया. फिर वाइरल. घोर कलियुग में ऐसा हो जाता है. प्रश्न से ज़्यादा उत्तर की औकात हो जाती है. चूंकि चर्चा चलन में है इसलिए आप भी पढ़िए. निबन्ध गुडी गुडी के उभरते सितारे पप्पन पांडे ने लिखा था. कक्षा-वक्षा, साल-वाल मत पूछिए. जितना उस कागज़ के बंडल में था सब यहाँ दिया जा रहा है.
प्रश्नपत्र- निबन्ध
विषय- महंगाई और उसके प्रभावों पर एक निबन्ध लिखिए
समय- तीन घण्टा
पूर्णांक- सौ
प्राप्तांक- (इस रिक्त स्थान की पूर्ती नहीं की गई थी)
प्रस्तावना
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. समाज के सुख-दुःख उसके अपने सुख-दुःख हैं. प्रस्तुत विषय `महंगाई’ के बारे में सर्वप्रथम यह विचारणीय है कि यह सुख है अथवा दुःख. विषय की शुरुआत एक उदाहरण से करते हैं. कल हम अपनी मोटरसाइकिल में पेट्रोल भरवाने, बताते चलें कि यह भ्रम है कि हमारे कन्ने सब एयर क्राफ्ट ही हैं, पम्प गए थे. हमने पाव भर तेल लिया और लौटने को थे कि राधा आईं और नाचने लगीं. हमें सुख की अनुभूति हुई. वो तो पेट्रोल पम्प वाले ने हमें बताया कि अब राधा एक पाव तेल में ही नाचने लगीं हैं नौ मन की ज़रुरत ही नहीं पड़ती. उप्पर-उप्पर देखने से इसे राम राज्य कहा जा सकता है. लेकिन अन्दर-अन्दर?
द्वितीय उदाहरण. कल रात के खाने में कटोरी में इतनी दाल थी कि रामू काका ने कहा कि बबुआ इतनी दाल तो जवानी में कस के सूंघ लेते थे तो अन्दर आ जाती थी. हमें बुरा लगा. हमने कस के सूंघा लेकिन दाल अन्दर क्या जाती छींक बाहर आ गई. दाल और छींक की प्रिंटिंग हमारे सफेद झक्क कुर्ते पर आ गई. हमें दुःख हुआ. इन दोनों ही उदाहरणों से सिद्ध होता है कि महंगाई सुख भी है दुःख भी.
एक वो दिन था जब पेड़ से गिरते हुए सेब को देखकर श्री न्यूटन को पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल का भान हुआ था. एक आज का दिन है. अव्वल तो सेब को पेड़ से टपकने ही नहीं दिया जाता उसे पहले ही कोमल डालियों से नोचकर, इंजेक्शन देकर पका कर, पॉलिश कर निर्यात हेतु तैयार कर दिया जाता है और अगर माना सेब पेड़ से गिरता ही तो आज श्री न्यूटन को गुरुत्वाकर्षण नहीं बल्कि लाभाकर्षण बल की कौंध होती. वो सोचते एक सेब बीस-पच्चीस रूपए का तो होगा ही और उसपर अगर एक गोल स्टीकर चिपका कर एक्सपोर्ट क्वालिटी (निर्यात गुणवत्ता) लिखवा लिया जाए तो पचास से कम का नहीं बैठेगा. स्पष्ट है कि न्यूटन यदि आज के ज़माने में पैदा हुए होते तो हम जी इज इक्वल टू नाइन पॉइंट एट वन (पृथ्वी का गुरुत्व बल 9.81) की जगह जी इज इक्वल टू फिफ्टी रुपीज़ (पृथ्वी का गुरुत्व बल 50 रूपए) याद कर रहे होते. ये अलग बात है कि तब जी एक स्थिरांक न होता. (2 जी भी नहीं ?)
परिभाषा
महंगाई को अर्थशास्त्रीय अवधारणा के अनुसार मुद्रा स्फीति कहते हैं. प्रकारांतर से इसे रूपए का अवमूल्यन भी कह सकते हैं. यदि किसी निश्चित स्थान और समय में बीस रूपए के दस सेब खरीदे जा सकते हैं और किसी कारणवश अब बीस रूपए के मात्र पांच ही सेब खरीदे जा सकें तब इसे सेब की कीमत का बढ़ना अथवा रूपए की कीमत का घटना भी कह सकते हैं. यही महंगाई है, यही अवमूल्यन. समय और स्थान का निश्चित होना ज़रूरी है क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि आप पूर्व शासनकाल में अथवा पृथ्वी की किसी दूसरी जगह जैसे इटली आदि चले गए हों. इस परिभाषा के दूसरे पक्ष पर विवाद है. योजनाकारों का (नीतिकार परिभाषा के किसी भी पक्ष से सहमत दिखाई देते हैं असहमति का कॉलम डिलीट हो गया है सम्भवतः) ऐसा मानना है कि अवमूल्यन दरअसल रूपए का नहीं मनुष्य का है. उनके अनुसार मनुष्यों की तीन मोटी श्रेणियां होती हैं. प्रथम श्रेणी उन लोगों की जो सेब हमेशा खरीद सकते हैं. द्वितीय श्रेणी में वो लोग आते हैं जो सेब कभी नहीं खरीद सकते. तृतीय श्रेणी उन लोगों की बनती है जो कभी सेब खरीद सकते हैं, कभी नहीं. मुद्रास्फीति या अपस्थिति मनुष्य के एक श्रेणी से दूसरे में जाना या आना है. यह महंगाई की गतिज परिभाषा भी कही जा सकती है.
सिद्धांतकारों का यह भी मानना है महंगाई किंचित हिंसक प्रवित्ति की होती है. लोक कथाओं एवं गीतों में इसे डायन शब्द से विभूषित किया जाता है. जैसे `महंगाई डायन मारे जात है.’ मारने की विस्तृत क्रिया-विधि का उल्लेख लोक गीतों से ज़्यादा इतिहास ग्रन्थों में मिलता है. यथा श्री मुहम्मद बिन तुगलक़ के जीवनकाल की कुछ घटनाएं. आइये जानते हैं वो क्या हैं.
श्री मुहम्मद बिन तुगलक जी ने दोआब क्षेत्र में कर के मूल ढाँचे में परिवर्तन करके कर-वृद्धि की. आम जन इसके लिए तैयार नहीं थे. अचानक हुए इस परिवर्तन से उनके हाथों के तोते उड़ गए. इतिहासकारों में इस सम्बन्ध में मत भिन्नता है कि उनकी अगली कार्यवाही इन्हीं उड़े हुए तोतों में से किसी तोते ने बिन तुगलक़ जी के कान में फूंक कर करवाई थी अथवा उनके पास अपना कोई पालतू तोता था क्योंकि कहा जाता है कि उनकी अगली कार्यवाही पिछली थी. अर्थात जो बाद में हुआ वो पहले हुआ था. अर्थात पहले होने वाली चीज़ बाद की थी. तो जो अगली कार्यवाही पिछली हो चुकी थी वो ये थी कि उन्होंने तत्समय प्रचलित मुद्रा को नल एंड वायड अर्थात अमान्य करते हुए चर्ममुद्रा अर्थात चमड़े के सिक्के चलाए. जनता जो कि पहले से ही विपन्न, त्रस्त और व्याकुल थी इस अचानक हुए परिवर्तन से त्राहि मॉम-त्राहि मॉम कर उठी. (कॉपी चेक करने वाले ने यहाँ एक बड़ी सी स्माइली बनाई और पता नहीं क्यों लिख दिया `म म मियाँ पम पम… यशोदा का नंदलाला जू जू जू… जू जू जू’) कारण स्पष्ट है. जनता चीज़ों के दाम में अतिशय वृद्धि से त्रस्त थी. आप को ज्ञात ही है कि चीज़ों के दाम बढ़ने का अर्थ महंगाई है. श्री तुगलक़ ने जो राजधानी बदलने का निर्णय लिया और दौलताबाद को कूच करवाया वह भी व्यर्थ साबित हुआ क्योंकि अमेजॉन ( स्पेल करेक्ट आमजन) के दिन नहीं बहुरे, बुरे ही रहे. दौलताबाद में भी कोई दौलत नहीं थी.
सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्ष
सर्वप्रथम इस महंगाई के नकारात्मक पक्ष का अध्ययन करते हैं. किसी ने क्या खूब लिखा है-
एक हमें आँख की लड़ाई मार गई
दूसरी तो यार की जुदाई मार गई
तीसरी हमेशा की तन्हाई मार गई
चौथी ये खुदा की खुदाई मार गई
बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई
प्रस्तुत गीत के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन सब में भयानक महंगाई ही है क्योंकि आपकी लड़ाई तो आप झप्पी पा के जीत सकते हैं (क्रम का ध्यान अवश्य रक्खें. पहले आंख की लड़ाई फिर झप्पी वर्ना जग हंसाई हो सकती है). यार की जुदाई भी कुछ सालों में ही पूरी की जा सकती है यथा गठबंधन हो सकता है. तन्हाई के बारे में नो कमेंट्स. (पप्पन ने यहां एक स्माइली बनाई थी. तकनीकि दिक्कतों की वजह से उसमें गड्ढे पड़ गए थे इसलिए दिखाया नहीं जा सका) और खुदा की खुदाई तो आप कुछ पूजा, वंदना, अर्चना या तीर्थ भ्रमण करके ठीक कर सकते हैं. बची महंगाई जो आपके पास बचे सबकुछ का सत्यानाश कर सकती है. इसलिए ये कहना गलत न होगा कि महंगाई डायन मारे जात है.
सिक्के का, वो जो श्री तुगलक़ ने चलाया था उसका नहीं, दूसरा पहलू भी है. यही डायन उर्फ़ महंगाई पारलौकिक शक्तियों को ग्रहण कर कुछ लोगों के लिए दैवीय हो जाती है. भूरे-काले रंग के बाज़ार के अनुनायियों के लिए ये पारस-पत्थर सदृश है. प्याज, टमाटर, घर की मुर्गी कोई भी सामान उठाकर इसपर रगड़ा सोने का हो गया. राजनीति के सेवकों के लिए यह साक्षात गो-रस है. इसे भाषण देने से पहले दो घूँट पीना पड़ता है बस. भाषण मीठा वोट चींटी. संक्षेप में कहा जा सकता है कि महंगाई इज़ ए गुड सर्वेंट फॉर ए बैड मास्टर. खुदा न खांसता (तो चौकीदार सब पार करवा देता) अगर आप गुड मास्टर बनना ही चाहें ये, अर्थात महँगाई, टँगड़ी मार ही देगी. फिर चाहे वो गिरे या आप.
इस प्रकार हमने देखा कि ‘प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी’ वाला मामला बनता है. अर्थात अलग-अलग लोगों के लिए महंगाई का अलग-अलग असर होता है.
उपसंहार
हमने देखा कि महंगाई यत्र-तत्र-सर्वत्र है. इस महंगाई की व्यापकता का अनुमान इस ग़ज़ल से भी लगाया जा सकता है जिसमें नायक नायिका के सौन्दर्य के बहुविध प्रभावों की तुलना नाना प्रकार के भौतिक संसाधनों से करते हुए कहता है कि `लगावेलू तू लिपस्टिक/ हिलेला आरा डिस्टिक/ जिला टॉप लागेलू…’ पहले ऐसे दो-तीन इंची चीज़ के सौन्दर्य पर पूरा डिस्टिक नहीं हिलता था. गाना वाना बज जाता था जैसे `दो नाज़ुक लब (अर्थात होठ) हैं या आपस में दो लिपटी हुई कलियाँ/ ज़रा इनको अलग करदो तरन्नुम फूट जाएंगे.’ यह सरासर महंगाई का प्रभाव ही है. दीगर प्रश्न यह है कि क्या इस चहुविध फैली महंगाई से निजाद मिल सकती है? यदि हां तो कैसे? इस सम्बंध में शोध अभी प्रचलित है. अब तक की शोध प्रगति का सार-संक्षेप दो आप्त वाक्यों में किया जा सकता है-
प्रथम- जीवन मे हर वस्तु के लिए कीमत और हर कीमत के लिए वस्तु की उपादेयता बनी रहनी चाहिए!
द्वितीय- वस्तुएं कीमती होनी चाहिये महंगी नहीं ! (इसके बाद दो शब्द लिख कर काटे गए थे आंख गड़ाकर पढ़ने में आए… ‘बाबू मोशाय!’)
निबन्ध की समाप्ति पर प्रस्तुत है हमारी स्वचुरित रचना ‘वाह क्या महँगाई है’-
`वाह वाह क्या महंगाई है
क्या खूब धूम मचाई है.
दो-दो गज ज़मीन को
अब लड़ता भाई-भाई है.
प्याज चढ़ रहा चोटी पर
सेंसेक्स ने डुबकी खाई है.
किसान-युवा-मजदूरों पर
भर-भर कर शामत आई है.
कल के सपने क्या देखें
आगे खड़ी एक पाई है.
हाय हाय क्या महंगाई है
वाह वाह क्या महंगाई है..’
_________________
निरीक्षक की टिप्पणी- इग्जामिनी इज़ बेटर दैन द एग्जामिनर. एग्जामिनर इज़ बेटर दैन द पेपर सेटर. पेपर सेटर इज़ बेटर दैन द प्रिंसीपल. प्रिंसीपल इज़ बेटर दैन द इग्जामिनी.
हस्ताक्षर- अपठनीय
डिस्क्लेमर- यह लेखक के निजी विचार हैं.
अंतर देस इ उर्फ़… शेष कुशल है! भाग – 13
अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
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