Featured

अंतर देस इ उर्फ़… शेष कुशल है! भाग – 10

गुडी गुडी डेज़

अमित श्रीवास्तव

तंत्री-नाद कबित्त-रस सरस राग रति-रंग. अनबूड़े बूड़े तरे जे बूड़े सब अंग!!

सरिता देवी. सुंदरी. सरिता सुंदरी. सस्सु. अपनी सस्सु. बला की खूबसूरत. हालांकि किसी ने आज तक बला को देखा नहीं था पर कहते यही थे. बच्चे तो बच्चे, बाप रे बाप, बाबा ओ बाबा सब लट्टू थे उसपर. उसे मुहल्ले में कहीं आते-जाते देखा तो सब अपनी धुरी पर नाच जाते. जहां से दिखना शुरू होती वहां से पिक करके और जहां तक शरीर विज्ञान गर्दन घुमाने की अनुमति देता वहां तक आँखों ही आँखों से ड्रॉप करके आते. लट्टू क्या लंगड़ थे सब उसके पियार में. उसे बिना पता चले, ऐसा मासूम सा मानना था उनका, एक दूसरे से प्रतिस्पर्द्धा की स्वस्थ परम्परानुसार बेवजह पेच फंसा लेते. फिर खींचने-ढीलने में कभी कोई जीतता कभी कोई. उसे पता चले बिना उसके लिए जूतम पैजार होना आम बात थी. मुहल्ले में समय-समय पर होने वाले झगड़े उसकी वजह से हैं अगर उसे पता चले तो? खी…खी…खी… करके हंसते मासूम लौंडे. बड़े बुजुर्गों का मानना था कि उसे कुछ-कुछ तो पता है.

गलियों से गुजरती तो किंचित कौतूहल कम कमीनेपन के समर्पित भाव से पलट…पलट… पलट वाला डायलाग बुदबुदाया जाता. जिसे देख लेती उसकी तो निकल पड़ती. विनीत कम विजई भाव से वो चारों तरफ इस तरह की उड़ती हुई नज़र डालता अपने प्रतिस्पर्धियों पर जैसे कि उसे चार-धाम दर्शनों का लाभ प्राप्त हुआ हो. अगर किसी को देख मुस्कुरा देती तो उसके तो वारे नोर्मल न रह पाते न्यारे ही हो जाते. जाने इतना पसीना हो जाता या किसी अन्य उपाय से वो द्रवित हो उठता कि उसे लगता कि गंगा ही नहा आया. और अगर किसी लड़के से बात कर लेती वो तो गदगद कम गुदगुद कम गोदी-गोदी स्टेज पर पहुँच जाता. इतना आत्ममुग्ध इतना अभिभूत इतना उदार हो उठता जैसे कि उसने अभी-अभी अपने पुरखों का तारण कर दिया हो गया में.

सस्सु से सामीप्य के आधार पर गर्व, शर्म, सहानुभूति और ईर्ष्या जैसी बहुत सारी क़नातों के साथ धीरे-धीरे मुहल्ले में ख़ेमे बंट गए. बँटवारा मोटे तौर पर तो हैव्स एंड हैव नॉट्स के जैसा था लेकिन बारीकी से देखने पर लिटिल, अ लिटिल द लिटिल जैसे बहुत से सेक्टर सब सेक्टर कटे हुए थे ख़ेमों में. वो जिन्हें वो देखती वो जिन्हें नहीं देखती, वो जिन्हें देखती पर मुस्कुराती नहीं वो जिन्हें देखती और मुस्कुरा उठती, वो जिन्हें देखती मुस्कुराती पर बात वात न छेड़ती वो जिनसे बात भी कर लेती जैसे बहुत से `वो’ थे जो `वो’ होने की आस लगाए रहते.

ऐसे ही एक `वो’ थे जो सस्सु के `बड़े वो हो’ बनने की आस जगाए मुहल्ले में आए थे. बनवारी उर्फ़ बतकुच्चन मामा. जब से उन्होंने सस्सु को सुना, देखा, जाना था लहालोट हो गए थे. कहते हैं लोग, चूंकि उनका तो काम ही है कहना, कि इन्होने सस्सु से पहले सस्सु का सुन्दर चेहरा दूर से ही किसी आईने में देख लिया था. तभी से वो लालायित हो गए. कुछ लोग कहते हैं, चूंकि उनका भी काम है कहना, कि वो कांच नहीं कैलाइडोस्कोप था. जितनी बार घुमाओ अलग ही तस्वीर बनती है. जो भी हो मुद्दे की बात यही थी कि सस्सु के हुस्न से घायलों की लिस्ट में बतकुच्चन एक चुनौती के रूप में आ चुके थे क्योंकि लोग कह नहीं पाते थे, हालांकि उनका तो काम ही है कहना, बस सोच के रह जाते थे कि बतकुच्चन के तीर, तैयारी और टीम तीनों खतरनाक थे.

एक दिन टीम बतकुच्चन की बैठक हुई. टुटहे चबूतरे पर. वही जो लूडो-लंगड़-लतखोरी के साझे संस्करण वाले खेल तथा खाली टाइम में कल्लू कोतवाल की पीठ खुजाने के काम आता था. चबूतरा, जैसा कि उसका धर्म था, बहुत ही स्ट्रेटेजिक लोकेशन पर था. वहां से मुहल्ले के हर घर का दर और हर दर से घर के अन्दर नज़र रक्खी जा सकती थी. अभी उसपर बतकुच्चन अपने साथी लौंडो के साथ इस समस्या पर मंथन करने विराजमान थे.

`मेरी रातों की नींद दिन का चैन और बाकी जो समय बचता है उसका भी कुछ खो गया है…’ बतकुच्चन बातों का कचूमर करते हुए बोले `ज़्यादा कुछ तो था नहीं खोने को तो यई मानना चइये कि कोई बेसिक चीज़ ही खोई होगी…’

टीम तुरत मानने में जुट गई. वाई आई पटेल तो अपने खाली सिर को खुजलाते ढूंढने में ही लग गए. ईंटों के नीचे, पेड़ के पीछे, कूएँ के बाहर, नाबदान के अन्दर हर जगह. ढूंढते-ढूंढते ही पूछने लगे- `भईया बताओ ये तीनों चीज़ें एक साथ ही रक्खी थीं या अलग-अलग?’

‘छोटे तेरा कुच्छ नई हो सकता…’ बतकुच्चन ने उनके सिर, वही जो खाली था, पर एक चपत लगाते हुए कहा. फिर बाएं हाथ के पंजे और दाहिनी छाती के गठजोड़ से ज़रा सा बायलोजिकल होते हुए बोले `अरे मैं बोल रहा हूँ कि मुझे यहां पर लगी है और तुम…’ फिर एकदम से फिलोसॉफी पर उतरते हुए कहा `दर्दे-दिल, दर्दे-जिगर दिल में जगाया… ’

लड़कों ने यहीं से लपका और मानस-पाठ की तरह पाठ-क्रम तोड़े बिना `आपने-आपने’ कहना शुरू कर दिया. दिल बाईं तरफ होता है ये जानकारी रखते हुए सब इस घिसी-पिटी बात पर अतिरिक्त रूप से भावुक हो गए कि प्यार अंधा होता है, उसे दाहिने-बाएँ का क्या मालूम? उनका एक `आपने’ इधर जा रहा था एक उधर. इससे पहले कि मुहल्ले की अन्य बालाएं मुग्ध हो अपनी ही बलाएं लेनी शुरू कर दें बतकुच्चन ने आँखें इस तरह से बनाईं कि अन्य किसी ज्ञात शब्द के अभाव में उसे तरेरना कह सकते हैं और बोले- `डोंट वेस्ट टाइम… दर्द से निपटने का मलहम बताओ…’

मलहम या सलाह सुझाने का पहला हक़, जितना भी रह गया था, उस निगरानी समिति का था जिसके सदस्य बचपने से रिटायर होकर किनारे बैठे वो अड़सैली गा रहे होते जिसका संज्ञान कोई नहीं लेता था. उन्होंने अपना हक़, जितना जता सकने के आदेश थे, जताते हुए सुझाया कि- `ऐसा करो सस्सु के पूज्य पिता को पटाओ. काम बन जाएगा. तन से, मन से, धन से, जन से, कैसे भी नर्तन से. वो खुश तो काम नक्की समझो.’

मामा ने एक छोटा सा ‘हुंह’ किया जिसे खींचकर ‘पुराने-लोग, पुरानी-बातें’ किया जा सकता था. मामा के परम मित्र अमृत लाल `अनोखे’ `कर दी न सठियाने वाली बात’ भाव से मुस्कुरा रहे थे. बोल पड़े- `अरे ददा उपाय भी कैसा बताया आपने ब्रह्म विवाह मिक्स्ड विद आर्ष. अब नहीं चलता ये सब. और वैसे भी मामला आशिक़ी का है कौन सात जनम के सतहत्तर चक्करों में फंसे?’ फिर दूसरे लौंडों से छीनने के अंदाज़ में मांगते हुए बोले- `हाँ भई और लोग भी उपाय बताएं, अपना सुझाव दें’ सुझाव का आदेश कड़क था. आदेश और सलाह में वही अंतर है जो पी एम ओ और कैबिनेट सेक्रेटेरिएट में है. मुलायम और कड़क का वही अंतर है जो कैबिनेट और किचेन कैबिनेट में है. इन घोर सांसारिक बातों में न फंसकर आप आगे की कहानी सुनें.

अज्जू आँखें मिचमिचाए देख रहे थे. ‘उपाय है एकदम साफ़ जूतों पर चेरी लगाएं चमक फिर से वापस लाएं’ गाने को आए पर गीत-संगीत पर बनवारी की स्वाभाविक नकारात्मक प्रतिक्रिया सोचकर बड़े अदब से आगे बढ़े, होठों की टोंटी खोली और अभी-अभी पीसे हुए बातों के दाने उगलने लगे- ‘मैंने पता लगवाया है सस्सू बहुत दिनों से चाइना वाली छोटी निब की पेन, जिसका पेट दबा कर सियाही भरी जा सकती है, उसके लिए म धन च धन ल रही है. इधर आपने किया गिफ्ट उधर मामला फिट !’

ये नया तरीका ईजाद किया था अज्जू ने. जिस शब्द पर ज़ोर लगाना हो उसको तोड़कर बीच-बीच मे धन लगा देते. जानते थे धन बड़ी पॉवर फुल चीज़ है. तरीका और छोटी निब वाली पेन गिफ्ट करने का आइडिया दोनों अच्छे लगे बतकुच्चन को लेकिन चाइना शब्द पर ज़रा सी आपत्ति थी. शब्द में बदलाव के लिए वाई आई और कलम के इंतजाम के लिए पुराने दोस्त पवन पुरनिया एंड संस की ओर इकट्ठे मुख़ातिब हो कहा- `करो कुछ जु धन गा धन ड़!’ फिर अगले सुझाव के लिए रज्जू दद्दा की ओर खिसकते हुए बतकुच्चन ने मन की बात कह दी- `ददा तुम भी बोलो कुछ तुम्हारे तो लगभग घर का मामला है’

वैसे भी रज्जू उस्ताद थे इन मामलों के. इतने कि रांझणा कहलाते थे करीबी दोस्तों के द्वारा. लम्बोतरे से थे लेकिन आवाज़ जाने क्यों अक्सर बैठी रहती. परमानेंट ऊंचा कद और अक्सर बैठी हुई आवाज़ अजीब सा इफेक्ट देती थी. ऐसा लगता कोइ दुछत्ती पर अधलेटा नीचे को मुंह लटकाए कुछ बोल रहा है. अधलेटी सी आवाज़ में बोले- `ददा काम हो जाएगा. सर्वप्रथम कुछ असामाजिक तत्व अर्थात गुंडे सस्सु को छेड़ेंगे. फिर आप अचानक अवतरित होकर उसे बचाएंगे. इससे दो बातें होंगी एक तो आपकी स्वयं की छवि से गुंडत्व के तत्व निक्षेपित हो जाएंगे और द्वितीय सस्सुजी के ह्रिद्यानिहित सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्पंदनों का स्पर्श कर उसे झंकृत कर सकेंगे. फॉर्मूला पुराना है लेकिन इतिहास गवाह है कि आजतक फेल नहीं हुआ…’

गुंडे शब्द पर अनोखे चिहुंक उठे थे और इतिहास पर बतकुच्चन. इनका जिक्र होने पर जाने क्यों तनिक विचलित हो जाते थे दोनों. दोनों ही पूछ बैठे `छेड़खानी तो ठीक है लेकिन वो छिड़े भी तो और वो भी हमीसे… क्योंकि आप तो जानते ही हैं कि उस शम-ए-फ़रोजां के परवाने हज़ारों हैं’

`आपको परेशान होने की किंचित भी आवश्यकता नहीं है. हम ऐसा माहौल बना देंगे कि सभी के मानस पटल पर आप दोनों की छवि ही विराजेगी. लोगों के पास उसका और उसके पास लोगों का कोई ऑप्शन ही नहीं छोड़ेंगे. उसे सबके लिए सस्सु से टीना बना देंगे. और जो नहीं मानेगा उसे…’ आख़िरी शब्दों तक आते-आते रांझणा की आवाज़ पूरा ही लेट गई

`टी धन ना… ट धन ईना… टें धन…’ वाई आई पटेल संधि-विच्छेद में लग गए. उन्हें पता ही नहीं था कि ये शब्द टीआईएनए के संक्षेपीकरण से बना है. बतकुच्चन मामा सलाहों के संक्षेपण में लग गए. उनको बहुत सी सलाह मिल गई थी. लेकिन उनका मन अनोखे की सलाह के लिए मचल रहा था.

अनोखे गाढ़े दोस्त थे. उसमें भी गाढ़े ज़्यादा थे दोस्त कम. इसलिए उनसे बड़ी आशाएं थीं बतकुच्चन की. अनोखे अपनी दाढ़ी खुजा रहे थे और शर्त लगाकर कहा जा सकता था, हालांकि कोई लगाता नहीं था, कि लगे हाथ तिनके निकाल रहे थे. जब घोंसला बनाने भर के तिनके इकट्ठे हो गए तब डबल सीक्रेट एजेंट 007 की तरह लुक देते हुए फौर्म्यूला नंबर फोर टू ज़ीरो पेश किया- `स्कूल में एक डांस कम्पटीशन करवाया जाए…’

`डांस कम्पटीशन… कम्पटीशन… कम्पटी… कम्प्ट… कप…ट ’ लौंडों ने आश्चर्य से इतनी बार रिपीट किया कि लगा किसी खाली कमरे में दीवारों से टकरा कर बात इको इफेक्ट देने लगी हो. अनोखे ऐसा इको पसंद करते थे इसलिए होने दिया फिर एक लंबा गैप लेकर अगली बात पर आए- `स्कूल में एक डांस कम्पटीशन करवाया जाए’ ये जानते हुए कि बात वही है, पर ये मानते हुए कि अनोखे ने कही है, लौंडे फिर आश्चर्य में पड़ गए. वहीं पड़े-पड़े बतकुच्चन ने आत्म-मंथन, आत्म-स्वीकृति और आत्म-प्रश्न सा किया- `पर नाचना? मी? आई मीन… रियली?’

`हम सब जानते हैं कि वो बहुत करारा नचाती है लेकिन आपको नाचना नहीं नचाना है गुरु…’ अनोखे ने बात की ट्विस्ट के साथ कमर, जो कमरा थी, हौले से हिलाई

`लेकिन बात तो फिर वहीं अटक गई… इसकी क्या गरंटी कि मेरे संग ही नाचेगी आख़िर हैं और भी मैख़ाने राहों में’ बतकुच्चन नाच के नशे में भी पुख्ता होना चाहते थे

`आपको तो पता ही है कि ही कांट डांस साला…’ कहते हुए अनोखे ने `ही’ पर जिधर इशारा किया था वो इतना ओब्वियस था कि राज़, राज़ न रहकर कपूर बनकर उड़ गया हवा में, `दूसरों के लिए ड्रेस कोड लगा दिया जाएगा. वो जो जांघिया नहीं पहनेगा वो डिस्क्वालिफाई. जांघिये की भी कैटेगरी होगी. पटरे वाले बिना पटरे वाले. बिना पटरे वाले डिस्क्वालिफाई. पटरे वाले जांघिये में भी नाड़े वाले बिना नाड़े वाले होंगे. नाड़े वाले डिस्क्वालिफाई. बिना नाड़े में कुछ लोग सेफ्टी पिन लगाएंगे कुछ नहीं. सेफ्टी पिन लगाने वाले डिस्क्वालिफाई. इस वीडिंग आउट प्रोसेस से बचेंगे बिना सेफ्टी पिन बिना नाड़े के पटरे वाले जांघिये. कुल मिलाकर…’ यहाँ रूककर अनोखे ने एक सांस भरी और उसी को छोड़ते हुए बोले -`कुल मिलाकर खुला खेल फ़र्रुखाबादी !’

अद्भुद! आश्चर्यजनक किन्तु सत्य टाइप सुझाव. बतकुच्चन तो लहालोट हो आए. उन्हें अपनी टीम पर घमंड हो आया. इतने बेहतरीन सुझाव. उनका सीना हर सलाह पर कई-कई इंच चौड़ा होता गया. आप सोच रहे होंगे बतकुच्चन ने आख़िर कौन सी सलाह अमल में लाई होगी. किसे बेस्ट सलाहकार का तमगा दिया होगा. लेकिन आप भूल रहे हैं कि बतकुच्चन चाणक्य के चन्द्रगुप्त नहीं मामा थे. वो ‘सुनो सबकी- करो मनकी’ वाले सरकारी सिद्धांत पर कार्य करते थे. उन्होंने सारे प्रपोज़ल इकट्ठा किये, उनका चूरा किया, घोंटा, पीसा फिर छोटे-छोटे मोदक बना कर सबमें बंटवा दिए. सबको लगा कि उसकी, बल्कि उसी की सलाह मानी गई.

सस्सु का हुआ वही जो होना था. सलाह के मोदक का चूर-चूर काम में आया. सस्सु नाची, भरपूर नाची बतकुच्चन के साथ और आज तलक धा-धिन्ना जारी है. तबले फूट चुके हैं घुंघरू टूट चुके हैं लेकिन ना धन च धन ना… !!

डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.

 

अमित श्रीवास्तव

उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

Recent Posts

‘पत्थर और पानी’ एक यात्री की बचपन की ओर यात्रा

‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया…

2 days ago

पहाड़ में बसंत और एक सर्वहारा पेड़ की कथा व्यथा

वनस्पति जगत के वर्गीकरण में बॉहीन भाइयों (गास्पर्ड और जोहान्न बॉहीन) के उल्लेखनीय योगदान को…

3 days ago

पर्यावरण का नाश करके दिया पृथ्वी बचाने का संदेश

पृथ्वी दिवस पर विशेष सरकारी महकमा पर्यावरण और पृथ्वी बचाने के संदेश देने के लिए…

5 days ago

‘भिटौली’ छापरी से ऑनलाइन तक

पहाड़ों खासकर कुमाऊं में चैत्र माह यानी नववर्ष के पहले महिने बहिन बेटी को भिटौली…

1 week ago

उत्तराखण्ड के मतदाताओं की इतनी निराशा के मायने

-हरीश जोशी (नई लोक सभा गठन हेतु गतिमान देशव्यापी सामान्य निर्वाचन के प्रथम चरण में…

1 week ago

नैनीताल के अजब-गजब चुनावी किरदार

आम चुनाव आते ही नैनीताल के दो चुनावजीवी अक्सर याद आ जाया करते हैं. चुनाव…

1 week ago