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घ्यूं त्यार क्यों मनाया जाता है

अपनी विशिष्ट लोक परम्पराओं से उत्तराखंड के लोग अपने समाज को अलग खुशबू देते हैं. शायद ही ऐसा कोई महिना हो जब यहां के समाज का अपना कोई विशिष्ट त्यौहार न हो. ऐसा ही लोकपर्व आज घी त्यार या घ्यूं त्यार.
(Ghyu Tyaar Uttarakhand Festival)

इसे घृत संक्रांति, सिंह संक्रांति या ओलगिया संक्रांति भी कहा जाता है. ओलगिया संक्रांति का नाम ‘ओलग’ से बना है. ओलग या ओलुक का अर्थ एक प्रकार की भेंट से है. यह शब्द कुमाऊं में महाराष्ट्र से आया है.

बद्रीदत्त पांडे ने अपनी किताब कुमाऊं का इतिहास में लिखा है कि

पहले इस दिन चन्द राज्य के समय अपनी कारीगरी और दस्तकारी की चीजों को दिखाकर शिल्पी लोग इस दिन पुरस्कार पाते थे, अन्य लोग भी साग-सब्जी, दही दुग्ध, मिष्ठान और अन्य प्रकार की बढ़िया चीजें दरबार में ले जाते थे और मान्य पुरुषों की भेंट में भी जाते थे. यह ओलग प्रथा कहलाती थी. जैसे बड़े दिन अंग्रेजों को डाली देने की प्रथा है, वही प्रथा यह भी है.

पिछले कुछ दशकों तक घ्यूं त्यार के दिन परिवारों द्वारा आपस में खाने की वस्तु देने का प्रचलन पहाड़ों में काफ़ी देखने को मिलता था. इस दिन लड़की के ससुराल वाले, उसके मायके वालों को बरसाती सब्जी (मूली, गाब), केले, घी, ककड़ी, भुट्टा इत्यादि दिया करते थे. अक्सर इस दिन लड़के अपने मामा भेटने जाते थे या दामाद अपने ससुराल भेटने नाते हैं. इसे ओल्गा भेटने जाना भी कहते हैं.
(Ghyu Tyaar Uttarakhand Festival)

पहाड़ों में हमेशा से सभी प्रकार के उपकरण बनाने का जिम्मा शिल्पकार वर्ग का रहा है. इस दिन शिल्पकार कृषि उपकरण दाथुली, सगड़, हल, कुटेला या अन्य उपकरण भेंट करते. कई शिल्पकार डोली बनाकर लाते. डोली में सुंदर सी गुड़िया को सजाकर लाते और भेंट करते. बदले में उनको अनाज और पैसे दिया करते थे.

सावन मास के अंतिम दिन रात के समय खूब पकवान बनाये जाते हैं जिनमें पूड़ी, उड़द की दाल की पूरी व रोटी, बड़ा, पुए, मूला-लौकी-पिनालू के गाबों की सब्जी, ककड़ी का रायता बनते हैं. इन पकवानों को घी के साथ खाया जाता है. खीर अगले दिन सुबह बनती है जिसमें खूब सारा घी डालकर खाया जाता है. इस दिन छोटे बच्चों के सिर पर घी भी लगाया जाता है.

घ्यूं त्यार का जिक्र उत्तराखंड के किसी पुराने लोकगीत इत्यादि में नहीं मिलता है न ही इस दिन किसी प्रकार के अनुष्ठान या पूजा का कोई जिक्र है. इसे क्यों मनाया जाता है इस बारे में भी कोई ठोस प्रमाण अभी तक नहीं मिले हैं.
(Ghyu Tyaar Uttarakhand Festival)

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