“इन पेड़ों को काटने से पहले तुम्हें अपनी कुल्हाड़ियाँ हमारी देहों पर चलानी होंगी!”

26 मार्च 1974. उत्तराखंड का एक छोटा सा गाँव. नाम रैणी. गाँव की सभी महिलाएं एक बहादुर स्त्री के नेतृत्व में तीन दिन और तीन रात अपने पेड़ों को बचाने के लिए उनसे चिपक कर खड़ी रहती हैं. इन पेड़ों को काटने आये जंगलात के ठेकेदार और उनके आदमी इस विरोध के लिए ज़रा भी तैयार नहीं हैं. वे समझ रहे हैं कि रोज़गार की तलाश में चमोली शहर गए हुए गाँव के सभी पुरुषों की अनुपस्थिति में उनका काम आसानी से निबट जाना है. गौरा देवी उन्हें बार-बार ललकारती हैं – “इन पेड़ों को काटने से पहले तुम्हें अपनी कुल्हाड़ियाँ हमारी देहों पर चलानी होंगी!” ठेकेदार और उनके आदमियों को हार कर वापस जाना पड़ता है. रैणी के पेड़ बचे रहते हैं.

यह ऐतिहासिक चिपको आन्दोलन की शुरुआत थी. (दिलचस्प और प्रेरक रहा है चिपको आन्दोलन का इतिहास)

गौरा देवी 1925 में उत्तराखंड के लाता गांव के में नारायण सिंह के परिवार में जन्मी थीं. कुल 12 वर्ष की आयु में उन्का विवाह रैणी गांव के रहनेवाले मेहरबान सिंह हो गया. विवाह के मात्र 10 वर्षों के उपरान्त मेहरबान सिंह की असमय मृत्यु हो गयी जिसके कारण गौरा देवी को अपने और अपने बच्चों के जीवनयापन में बहुत तकलीफें झेलनी पडीं. यथासंभव बच्चों को पालपोस कर उन्होंने उन्हें स्वावलंबी बनाया. उनके सुपुत्र चन्द्रसिंह भारत-तिब्बत व्यापार के काम में उनका हाथ बंटाने योग्य हुए तो 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद यह व्यापार बंद कर दिया गया. (सरदार मान सिंह के रूप में सुन्दरलाल बहुगुणा)

परिवार का खर्च ऊन-व्यवसाय, ठेकेदारी और मजदूरी जैसे अस्थाई समाधानों से चलता रहा. धीरे-धीरे गौरा देवी ने अपने गांव की गतिविधियों में दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया. वे अपने लोगों के साथ मिलकर काम करने और रहने के महत्व को समझने लगीं. 1970 का साल अलकनंदा नदी में आई विनाशकारी बाढ़ का वर्ष था. जाने माने पर्यावरणविद श्री चंडी प्रसाद भट्ट के आह्वान पर लोगों ने बाढ़ और उसके समाधानों के बारे में गंभीरता से सोचना शुरू किया.

गौरा देवी का यह सुपरिचित फोटो मशहूर पर्यावरणवादी अनुपम मिश्र ने खींचा था

1962 के चीन युद्ध के बाद भारत सरकार ने अपनी सीमाओं की सुरक्षा पर विशेष ध्यान देना शुरू किया जिसके सिलसिले में गढ़वाल के चमोली जिले में सुगम सैन्य मार्ग बनाने की योजना बनी. इस योजना के अंतर्गत रास्ते में पड़ने वाले वृक्षों का अंधाधुंध कटान शुरू हो गया. इस कार्य के कारण स्थानीय लोगों में असंतोष बढ़ने लगा. इस असंतोष को संगठित विरोध का जामा पहनाने की नीयत से गढवाल के गांवों में महिला दलों की स्थापना होने लगी. 1972 में गौरा देवी को रैणी के महिलासन्गठन की मुखिया चुनी गईं. इन्हीं दिनों उन का संपर्क चंडी प्रसाद भट्ट और अन्य पर्यावरण कार्यकर्ताओं से हुआ.

सरकार ने 1974 के जनवरी माह में तय किया कि रैणी गांव के तकरीबन ढाई हज़ार पेड़ों को काट फेंकने के लिए चिह्नित किया गया. इस निर्णय के विरोध में 23 मार्च को गोपेश्वर नगर में एक सभा आयोजित हुई जिसमें गांव की महिलाओं ने गौरा देवी की अगुवाई में जुलूस निकाला.

उसके बाद जो हुआ उस की बानगी शुरू में दी गयी है.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

6 hours ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

7 hours ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

5 days ago

साधो ! देखो ये जग बौराना

पिछली कड़ी : उसके इशारे मुझको यहां ले आये मोहन निवास में अपने कागजातों के…

1 week ago

कफ़न चोर: धर्मवीर भारती की लघुकथा

सकीना की बुख़ार से जलती हुई पलकों पर एक आंसू चू पड़ा. (Kafan Chor Hindi Story…

1 week ago

कहानी : फर्क

राकेश ने बस स्टेशन पहुँच कर टिकट काउंटर से टिकट लिया, हालाँकि टिकट लेने में…

1 week ago