गर्जिया देवी मन्दिर उत्तराखण्ड के लोकप्रिय मंदिरों में एक है. यह रामनगर से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर ढिकुली और सुंदरखाल गांव के पास बना हुआ है. यह माता पार्वती के प्रमुख मंदिरों में से एक है. उत्तराखण्ड में भगवान शिव की अर्धांगिनी माँ पार्वती को कई नामों से जाना जाता है. इनमें से एक नाम ‘गिरिजा’ या ‘गर्जिया’ भी है. गिरिराज हिमालय की पुत्री होने के कारण उन्हें इस नाम से पुकारा गया है. गर्जिया देवी मन्दिर में मंदिर कोसी नदी के तट पर एक शांत व दिलकश छोटी पहाड़ी के ऊपर बना हुआ है. यहाँ माँ वैष्णवी के रूप में मौजूद हैं. मान्यता है कि जिन मन्दिरों में देवी वैष्णवी के रूप में स्थित होती हैं वहां उनकी पूजा फूलों से की जाती है और जहाँ शिव शक्ति के रूप में होती हैं, वहाँ बलि देने की परंपरा रही है.
ढिकुली, गर्जिया क्षेत्र, का इतिहास लगभग 3000 साल पुराना है. इतिहासकारों का मानना है कि कूर्मांचल की सबसे प्राचीन बसासत वहां पर थी जहाँ आज रामनगर बसा हुआ है. कोसी के किनारे बेस इस नगर को तब ‘वैराट पत्तन’ या ‘वैराट नगर’ के नाम से जाना जाता था. कत्यूरी राजाओं के आने के पहले यहाँ कुरु राजवंश के राजा राज्य किया करते थे, यह प्राचीन इन्द्रप्रस्थ (आधुनिक दिल्ली) के साम्राज्य की छत्रछाया में रहा करते थे. प्रख्यात कत्यूरी राजवंश, चन्द्र राजवंश, गोरखा वंश और अंग्रेज़ शासकों ने यहाँ राज किया है. कहा जाता है कि गर्जिया का यह स्थल 1940 से पहले उपेक्षित ही था. वर्ष 1940 से पूर्व इस मन्दिर की स्थिति आज जैसी नहीं थी, कालान्तर में इस देवी को उपटा देवी (उपरद्यौं) के नाम से जाना जाता था.
लोकमान्यता थी कि वर्तमान गर्जिया मंदिर जिस पहाड़ी टीले में स्थित है, वह कभी ऊपर पहाड़ों से कोसी नदी की बाढ़ में बहकर आ रहा था. मंदिर को टीले के साथ बहते हुये आता देखकर भैरव द्वारा उसे रोका गया. उन्होंने बहते मंदिर से कहा ‘थि रौ, बैणा थि रौ’ (ठहरो, बहना ठहरो) यहाँ पर मेरे साथ निवास करो. तभी से गर्जिया में देवी यहाँ निवास कर रही हैं. 1940 से पूर्व यहाँ घना जंगल हुआ करता था जहाँ खतरनाक जंगली जानवर रहा करते थे. सर्वप्रथम वन विभाज (जंगलात) के कर्मचारियों तथा स्थानीय नागरिकों ने टीले पर मूर्तियों को देखा. इन मूर्तियों को देखकर लोगों को यहाँ माँ गार्जिया की मौजूदगी का अहसाह हुआ. इस सुनसान जंगली इलाके में तब घास-फूस के सहारे कोसी नदी की प्रचंड धारा को पार करना पड़ता था. तमाम मुश्किलों के बाद भी भक्तजन इस स्थान पर माँ के दर्शनों के लिये आया करते थे. उन दिनों इस टीले के पास माँ दुर्गा का वाहन शेर भी गर्जना किया करता था. कई बार लोगों ने शेर को इस टीले की परिक्रमा करते हुये भी देखा है.
1956 में कोसी नदी में आयी भीषण बाढ़ में मन्दिर की सभी मूर्तियाँ बह गई थीं. पं. पूर्णचन्द्र पाण्डे ने मंदिर का पुनः जीर्णोद्धार किया. 1971 में मन्दिर की देखरेख के लिए मंदिर समिति का गठन किया गया. वर्तमान में इस मंदिर में गर्जिया माता की 4.5 फिट ऊंची मूर्ति स्थापित है. मुख्य मूर्ति के साथ सरस्वती, गणेश तथा बटुक भैरव की संगमरमर की मूर्तियाँ भी यहाँ स्थापित हैं. यहाँ एक लक्ष्मी नारायण मंदिर भी स्थापित है. इस मंदिर में स्थापित मूर्ति यहाँ पर खुदाई के दौरान मिली थी.
यहाँ आकर मन्दिर में पहुँचने से पहले भक्त कोसी नदी में स्नान करते हैं. फिर 90 सीढ़ियाँ चढ़कर मुख्य मंदिर तक हैं. यहाँ भक्त फूल, प्रसाद, घण्टा, छत्र, चुनरी, जटा नारियल, लाल वस्त्र, सिन्दूर, धूप, दीप आदि चढाते हैं. बहुत-से लोग अपनी मनोकामना के लिये चुनरी की गाँठ बाँधते हैं. गार्जिया माँ के दर्शनों के बाद भक्त भैरों मन्दिर, शिव मन्दिर के दर्शन कर यहाँ खिचड़ी चढ़ाते हैं. पूजा के विधान के अनुसार माता गिरिजा की पूजा करने के बाद बाबा भैरव को चावल और मास की दाल चढ़ाकर पूजा-अर्चना करना जरूरी माना जाता है. मान्यता है कि भैरव की पूजा के बाद ही माँ गिरिजा की पूजा का सम्पूर्ण प्रतिफल हासिल होता है.
नवरात्र तथा गंगा स्नान पर हज़ारों की संख्या में श्रद्धालु यहाँ आते हैं. अनुमान है कि वर्ष भर में पांच लाख से भी ज़्यादा श्रद्धालु यहाँ आते हैं. यहाँ आने वाले श्रद्धालु कई मन्नतें मांगते हैं. नव-विवाहित स्त्रियाँ यहाँ अक्षुण सुहाग की मनोकामना करती हैं. निःसंतान दंपत्ति संतान प्राप्ति की कामना करते हैं. कार्तिक पूर्णिमा को माता गिरिजा देवी के दर्शनों एवं पवित्र कौशिकी (कोसी) नदी में नहाने के लिए भारी संख्या में श्रद्धालु यहाँ आते हैं. इसके अतिरिक्त उत्तरायणी, बसंत पंचमी, गंगा दशहरा, नव दुर्गा, शिवरात्रि, में भी काफ़ी संख्या में दर्शनार्थी आते हैं.
सभी फोटो: kafaltree.com
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बलि के विषय में केवल और केवल भ्रांतियां हैं।
किसी भी वेद ,पुराण में देवताओं को प्रसन्न करने के विषय में बलि का जिक्र नही है।
बजाय किसी भी धर्म ग्रंथ को आधार बना कर या ना बनाए बगैर यदि मनुष्य वर्तमान देश काल परिस्थिति के अनुरूप स्वविवेक से निर्णय लेना सीख ले तो बलि ही क्या अन्य धर्म द्वारा मान्य अथवा अमान्य अव्यवहारिक धारणाओं, रूढ़ियों से पीछा छुड़ा सकता है।