उत्तराखंड का गढ़वाल हिमालय अपनी नैसर्गिक सुन्दरता तथा पवित्र वातावरण के लिए प्रसिद्ध रहा है. यह क्षेत्र भारतीय संस्कृति की चेतना का केन्द्र रहा है. गढ़वाल चित्रकला शैली भी इसी क्षेत्र की एक प्रमुख शैली है. इस शैली का इतिहास औरंगजेब के शासनकाल से प्रारम्भ होता है.
(Garhwali School of Painting & Molaram)
औरंगजेब से बचने के लिए सुलेमान शिकोह, गढ़वाल के तत्कालीन राजा पृथ्वीपतिशाह (1625- 1660) के पास संरक्षण के लिए आया था. उसके साथ दिल्ली दरबार के दो, पिता एवं पुत्र चित्रकार शामदास और हरदास भी थे. राजकुमार मेदनीशाह ने सुलेमान शिकोह को औरंगजेब को सौंप दिया, परन्तु दोनों कलाकारों को अपने पास ही रहने दिया.
हरदास की तीसरी पीढ़ी मौलाराम (1740-1833) प्रख्यात कवि और गढ़वाली चित्रकला शैली का जन्मदाता बना. वास्तव में मौलाराम के पूर्वज शामदास और हरदास चित्रकार व स्वर्णकार थे. कुछ लोग मौलाराम के पिता मंगतराम को गढ़वाली चित्रकला शैली का जनक मानते हैं. प्रारम्भ में इस कला शैली की छाप मिलती है.
भारत में इस्लाम के प्रभाव व प्रार्दुभाव से चित्रकला के क्षेत्र में नये-नये आयाम स्थापित हुए. फारस से आये शासकों ने भी स्थापत्य कला की ओर विशेष ध्यान दिया, चौदहवीं पन्द्रहवीं शताब्दी में एक मिली जुली कला शैली का विकास हुआ. बाबर स्वयं भी चित्रकला का शौकीन था. वह भारत में फारस से चित्रकारों को अपने साथ लाना चाहता था किन्तु सफल नहीं हुआ.
हुमायूं तथा अकबर ने भी चित्रकारों तथा चित्रकला को प्रोत्साहन दिया, जहांगीर के समय में तो चित्रकला ने सम्पूर्ण आयाम प्राप्त किये. शाहजहाँ के समय में भी चित्रकला का विकास हुआ. उस समयकी चित्रकारी के विषय फल, फूल विशेष होते थे. महलों व बगीचों तक विशेष विषय होते थे. औरंगजेब के शासनकाल में चित्रकल को हतोत्साहित होना पड़ा. फलतः तत्कालीन चित्रकारों ने अपना रूझान पहाड़ी रियासतों तथा क्षेत्रों की ओर उन्मुख किया. चित्रकारों का एक दल मुगल दरबार राजस्थान होता हुआ पहाड़ी रियासतों की ओर उन्मुख हुआ. पहाड़ी चित्रकला शैली की दो प्रमुख शाखाएं हैं – कांगड़ा शैली व गढ़वाली शैली.
कांगड़ा शैली की आकृतियों में नाक और माथे के बीच भीतर की ओर गहराई नहीं रहती. एक चक्षु चित्रों में माथे की रेखा नाक तक प्रायः सीधी चली जाती है. भृकुटी के पास थोड़ी ही भीतर की ओर धंसी हुई रहती है. उसी प्रकार ठोढ़ी के नीचे गले तक जाने वाली रेखा भी सीधी दिखाई पड़ती है. आँखें भी सीधी रहती हैं. सारा सिर करीब-करीब वर्गाकार रहता है.
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इसके विपरीत गढ़वाली चित्रकला शैली में भृकुटी के पास नाक की रेखा भीतर की ओर झुकी हुई और चिबुक से गले तक जाने वाली रेखा भी कुछ अधिक गोलाई लिये होती है और धनुषाकार होती है. इनके मुखाकृतियों का यदि उसी प्रकार ग्राफ बनाया जाय तो आयताकार होंगे. ये मुखाकृत्तियाँ कांगड़ा शैली की अपेक्षा लम्बी होती हैं. पहाड़ी चित्रकला लगभग दो सौ वर्षों तक (1650-1890) उन्नत दशा में रही. उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यकाल से ही पहाड़ी चित्रकला का पतन प्रारम्भ हुआ. इस कला का स्वर्णयुग अठारहवीं शताब्दी का समय माना जाता है. काश्मीर, जम्मू, कांगड़ा, वसोहली, सुकेत, मंडी, गढ़वाल इन पर्वतीय रियासतों अथवा जागीरों ने अनेक चित्रकारों को आश्रय दिया तथा सोलहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी तक इन राज्यों के पारस्परिक सम्बन्ध काफी घनिष्ठ रहे.
गढ़वाली चित्रकला शैली के समस्त चित्रों के साथ जितनी कविताएं प्राप्त है उन पर हिन्दी के रीतिकाल की काव्य परम्परा की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है. गढ़वाली चित्रकला शैली का विषय अत्यन्त विस्तृत रहा है. सांसारिक व असांसारिक विषयों को रंगों में बांधा गया है. गढ़वाली चित्रकला शैली की विशेषता, नायक नायिकाओं के शरीर पर आभूषण है, क्योंकि गढ़वाली चित्रकार पेशे से स्वर्णकार रहे हैं. इन चित्रकारों ने नारी के अलावा पौराणिक विषयों में देवी-देवताओं को बड़ी दक्षता के साथ चित्रित किया है. भागवत पुराण गढ़वाली शैली के चित्रकारों का आधार रहा है.
गढ़वाली चित्रकला शैली की सबसे बड़ी विशेषता प्रकृति चित्रण है. बिना पत्तों के वृक्ष विशेष रूप से मौलाराम के चित्रों में फूलों से लदे हुए मन्दार वृक्ष दर्शाये गये हैं. चौड़े पंखों की तरह फैले हुए वृक्ष तथा कांटेधारी पुष्प वल्लरियों से भरी झाड़ियाँ गढ़वाली कला शैली के चित्रों में बखूबी से चित्रित की गई है. नायिकाओं का चित्रण बखूबी किया गया है. मौलाराम ने नायिकाओं के निष्पाप सौन्दर्य चित्रण एवं संगीतमय लय को प्रकट करने के लिए रेखाओं का शुद्ध प्रयोग किया. मौलाराम की सुन्दर चित्रकारी ने गढ़वाली चित्रकला के विकास में चार चांद लगा दिये.
गढ़वाली शैली के प्रमुख चित्रकार थे, मौलाराम, जिनकी चित्रकलाशैली सर्वत्र एक जैसी नहीं है. गढ़वाली चित्रकला शैली के सर्वप्रमुख आचार्य, कुशल राजनीतिज्ञ, इतिहासविद् मोलाराम ने विभिन्न कोणों से अपनी योग्यता को प्रदर्शित किया था. उन्होंने अपनी रचनाओं से गढ़वाली साहित्य को नई दिशा भी प्रदान की. मौलाराम दिल्ली के चित्रकार शामदास की पांचवी पीढ़ी में जन्मे. इन्होंने अपने जन्म से श्रीनगर (गढ़वाल) को धन्य किया. 1833 में निधन हुआ. लगभग 93 वर्षों तक जीवित रहे. इनके पिता मंगतराम तथा माता रमादेवी पेशे से स्वर्णकार थे. प्रायः सभी चित्रकार चाहे वे राजपूत शैली या बिन्दु चित्रकार रहे हों, वे वास्तव में पेशे से स्वर्णकार ही थे. इन्होंने अपने पिता से स्वर्णकला के साथ-साथ चित्रकला भी सीखी थी.
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मौलाराम गढ़वाल के चार महाराजाओं के शासनकाल में कार्य करते रहे. महाराज प्रदीपशाह (1717-1722) ललितशाह (1722-1780) जयकृतशाह (1780-1785) प्रद्युम्नशाह (17851804) इन सभी राजाओं के शासनकाल में मौलाराम को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला था. यद्यपि मौलाराम गोरखा दरबार की कृपा पर आश्रित थे. तो भी इन्होंने आत्मस्वाभिमान की नहीं छोड़ा. मौलाराम ने लम्बे जीवनकाल में कई युगों को देखा – गढ़वाल के राजाओं की छत्रछाया में 1803 तक जीवन बिताया, यह इनकी कला साधना की पराकाष्ठा का युग था. इनके जीवन का द्वितीय भाग गोरखा शासनकाल में बीता था और तीसरा युग अंग्रेजों के आगमन के बाद 1815-1833 तक रहा. इस प्रकार अपनी कला साधना को उन्होंने श्रीनगर (गढ़वाल) में ही परवान चढ़ाया और यही पर अन्तिम सांस ली.
वृद्धावस्था व अर्थाभाव के कारण मौलाराम का स्वभाव आध्यात्मिक हो गया था. इस प्रकार इस युग में मौलाराम ने आध्यात्म तथा मन सम्बन्धी गाथाओं, कालों की रचनाएं की तथा चित्रकारिता के लिए देवी, चामुण्डा, अष्ट दुर्गा, ग्रह आदि धार्मिक विषयों को चुना. इसके साथ-साथ नये चित्रकारों को भी शिक्षित तथा प्रोत्साहित किया. इनके शिष्य चित्रकला का ज्ञान प्राप्त करने के लिए टिहरी से श्रीनगर 30 मील पैदल चलकर आते थे. उनके शब्दों की बानगी देखिये –
टिहरी से तिरत रहैं गुरुद्वारे श्री नगर.
आवत जात हि पग थके दियो कवि नहीं सगर.
डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल (हिन्दी साहित्यकार) ने मौलाराम के बारे में कहा है कि मध्यकाल की सांस्कृतिक सुसुप्ति के युग में पहाड़ी चित्रकार ही कला के भारतीयपन को जागृत कर रख सके हैं. मौलाराम ने पहाड़ी चित्रकला को श्रेष्ठ नेतृत्व प्रदान किया. 1775 में बनाये चित्र का शीर्षक मोर प्रिया, इसमें अपने प्रिय मोर के साथ खेलती हुई नवयौवना को चित्रित किया गया है.
कहाँ हजार कहाँ लाख हैं, अरब, खरब धन ग्राम.
समझे मौलाराम तो, सरब सुदेह इनाम.
मौलाराम रंगों के कुशल चितेरे थे. इनके चित्रों में हिमालय की छटा, गढ़वाली पशुपक्षियों और वृक्षों की शोभा, नदी का चित्रण है. बंगाल के प्रमुख कलाविश प्रो.ओ. सी. गांगुली के अनुसार – ‘गढ़वाल के मौलाराम के नेतृत्व में कांगड़ा शैली के चित्रकारों ने भारतीय चित्रकला के समूचे इतिहास में सुन्दरतम् अध्याय जोड़ा है.’
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मौलाराम की चित्रकला में अठारहवीं शताब्दी की चित्रकला के अनेक प्रभाव दिखाई पड़ते हैं, उदाहरणार्थ – हुक्के के बर्तन का घंटी के आकार का होना तथा चित्रों के साथ हिन्दी, फारसी, संस्कृत तीनों भाषाओं में प्रशस्ति पद्य लिखे होते हैं. मौलाराम के चित्रों में राजस्थानी, मुगल, पहाड़ी तीनों समकालीन शैलियों का प्रभाव भी दिखाई पड़ता है. पहाड़ी चित्रकला के प्रिय विषय- कृष्ण और रूकमणि, राधा-कृष्ण, कृष्ण-गोपियां, सन्यासी राजसी पुरुष, रामायण, महाभारत, दशावतार, कामसूत्र इत्यादि रहे हैं. कांगड़ा के कुछ कलाकार गढ़वाल आये और गढ़वाल के कुछ कलाकार कांगड़ा गये. मौलाराम के शिष्यों में चैतृ और मलकू भी प्रसिद्ध हैं. उनके नाती आत्माराम के चित्र भी उपलब्ध हैं. गढ़वाल के कला पारखी राजाओं ने भी कुछ चित्रों को बनाया है.
मौलाराम की ‘कला’ की कलाविदों ने प्रशंसा की है क्योंकि पहाड़ी व कांगड़ा कला शैली के विद्वान मौलाराम हुए हैं. उनके चित्रों ने गढ़वाली कला शैली को नये आयाम दिये. मौलाराम की कला शैली में भारतीय संस्कृति, और उस समय की चित्रकला पद्धति और प्रगति पूर्ण रूप से पाई जाती है. पहाड़ी कला में जो क्रांति अठारहवीं शताब्दी में हुई और जो उनके जीवन से सम्बन्धित है, वह पूर्णरूप से मौलाराम की कला में पाई जाती है. मौलाराम की कला में सामान्य साहित्य व सरलता, सौन्दर्य है, उनकी कला में अतीत की गम्भीरता और धीरे-धीरे आगे बढ़ती अठारहवीं सदी की प्रचूर रमनीयता पूर्ण रूप से पाई जाती है.
प्रसिद्ध चित्रकार अजीत घोष के अनुसार कई दृष्टियों से गढ़वाली चित्रकला अपनी समकालीन कांगड़ा चित्रकला शैली से बहुत आगे प्रतीत होती है. चित्रों को शोभायमान और अलंकृत करने के उपादानों में वारिकी और प्राकृतिक सौन्दर्य प्रदर्शन में गढ़वाली कलाकार आगे हैं”. श्री वाचस्पति गैरोला का कहना है कि “सदियों से पिछड़ी और अस्तित्व की तलाश में भटकती हुई गढ़वाली चित्रकला शैली ने एक ही दशक की अल्पायु में अपनी अलग पहचान बनाकर भारतीय चित्रकला की समृद्धि में एक नवीन अध्याय जोड़ दिया”.
मौलाराम की प्रसिद्धि चित्रकार के रूप में उत्तरी भारत के शहरों में फैल चुकी थी. मौलाराम कभी-कभी अपने चित्रों के ऊपर तथा पीछे चित्र का भाव तथा लक्षण पद्य में लिख दिया करते थे. जिससे गढ़वाली चित्रकला शैली का प्रचार-प्रसार हुआ.
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गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर (गढ़वाल) से टिहरी स्थानान्तरित होने पर भी मौलाराम तथा उनके वंशज श्रीनगर ही रहे. इस प्रकार पहाड़ी चित्रकला शैली में मौलाराम का अभूतपूर्व योगदान था. मौलाराम की वजह से पर्वतीय कला की उत्पत्ति और उसकी मृत्यु की कथा सामग्री मिलती है. आश्रयहीन होने के कारण मौलाराम के वंशज गढ़वाली चित्रकला शैली का पर्याप्त विकास न कर सके और इस शैली का दुःखद अन्त हो गया. लेकिन मौलाराम की कलाकृतियां आज भी हमारी गौरवशाली इतिहास की समृद्धि को पुष्ट कर रही है.
आज भी विदेश में अमेरिका के प्रसिद्ध ‘बोस्टन संग्रहालय में मौलाराम के उत्कृष्ट कला चित्र शोभा बढ़ा रहे हैं. इससे पूर्व 1947-48 में मौलाराम की चित्रकला को विश्व चित्रकला प्रदर्शनी में लंदन में भी दिखाया जा चुका है. निःसंदेह मौलाराम ने अपनी कला शैली से गढ़वाल/पहाड़ की जनता को ही नहीं समस्त उत्तर भारत को एक उच्च कला की सांस्कृतिक विरासत दी है. जिसका प्रचार-प्रसार व संवर्धन की बड़ी आवश्यकता है ताकि अगली पीढ़ी अपनी समृद्ध कला से प्रेरणा लेकर भारतीय संस्कृति को सम्पुष्ट करे.
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–प्रो. सोहन लाल भट्ट
प्रो. सोहन लाल भट्ट का यह लेख पुरवासी के सोलहवें अंक से लिया गया है.
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