एक दिन मुझे पछेटिया बन कर सचमुच शिकार पर जाने का मौका मिल गया.
पछेटिया मतलब शिकारी के पीछे-पीछे चलने वाला आदमी. शिकारी थे नयाल मास्साब, जिन्हें शिकार मारने का बेहद शौक था. शिकार तो बस नाम भर के लिए ही खाते थे- ज्यादा से ज्यादा एक कटोरी, लेकिन मारने का जुनून था. खिमदा से बंदूक लेकर आसपास के चांठे-चट्टानों में निकल जाते. दिन-दिन भर भटकते. कभी कुछ मार लिया तो थोड़ा-बहुत शिकार लेकर आ जाते और पास-पड़ोस में बता देते कि वहां पर शिकार मारा है, ले आओ. लोग भागते और अपना-अपना हिस्सा लेकर चले आते. कुछ लोग जो खाली हाथ रह जाते, वे पता करते कि कौन ज्यादा ले गया. उनसे मांग लेते. एक बार उन्होंने झंडीधार के पीछे जड़्यो (बारहसिंगा) मारा था. खबर हुई तो लोग झोले लेकर भागे और झोला भर-भर कर शिकार लाए. लेकिन, मास्साब? वही-दो टुकड़े और थोड़ा-सा शोरबा.
हां तो, उस दिन न जाने कैसे उन्होंने मुझसे कहा, “देवेंद्र, शिकार पर चलोगे?” मैं चौंक गया. वे तो सदा पान सिंह को साथ ले जाते हैं. मुझे कभी भी साथ नहीं ले गए. तो आज? पानसिंह यानी पनदा गांव गया हुआ था और मास्साब के हाथ बंदूक चलाने के लिए खुजला रहे थे. मुझे पहली बार मौका मिला था. बोला, “जी मास्साब, मैं चलूंगा.”
वे बोले, “तो चलो.” उन्होंने कंधे में लटकाने वाला अपना झोला मुझे पकड़ा दिया.
आगे-आगे वे और पीछे-पीछे मैं. पछेटिया. मुझे गांव में ही पनुदा और दूसरे संगी-साथियों ने बताया था कि पछेटिया का काम भी शिकारी से कोई कम नहीं. उसे भी शिकारी के साथ उसी की तरह, चुपचाप, दम साध कर चलना पड़ता है. शिकारी का हर इशारा समझना पड़ता है. उसके कदमों पर कदम रख कर, उसकी आंख का इशारा देख कर बिना हिले-डुले शिकार को देखना पड़ता है. और, जब शिकारी निशाना साध कर फायर कर दे तो शिकारी से भी पहले झपट कर शिकार को हथियाना पड़ता है. कई बार तो चांठे-चट्टानों पर फायर करने के बाद घायल घुरड़-काकड़ सीधे नीचे लुढ़कता जाता है. तब उस पर नजर रख कर जगह का अंदाज लगाना पड़ता है और जितनी जल्दी हो सके वहां पहुंच कर शिकार पर कब्जा करना पड़ता है. पछेटिया शिकारी की हर मदद करता है. पछेटिया को तो छाया समझो शिकारी की. हंसी-खेल नहीं है पछेटिया बनना, हां.
मुझे वे सब बातें याद थीं और मैं अपनी जिम्मेदारी निभाने को तैयार था. मास्साब ने मुझसे कुछ नहीं कहा. बस आगे-आगे चलते रहे. मैं सोचता रहा, शायद वे भी पछेटिया के काम बताएंगे, लेकिन उन्होंने इस बारे में कुछ नहीं कहा. खैर, मुझे पता था, मुझे क्या करना है.
हम सामने झंडीधार के चांठे-चट्टानों पर चढ़े. झंडीधार मतलब खालगड़ा के उस पार ऊंचे माथे की तरह खड़ी पहाड़ की चोटी. वह जैसे हरदम हमें बुलाती रहती थी कि आओ, यहां आकर इस ऊंचाई से चारों ओर देखो. हम संगी-साथी चीड़ानि धार में भूमिया देवता के मंदिर से सीधी खड़ी चढ़ाई चढ़ कर दो-तीन बार झंडीधार तक हो आए थे. वहां से हमने दूर-दूर तक, पहाड़ों पर बसे छोटे-छोटे गांवों के माचिस की डिबिया जैसे मकान देखे. नीचे घाटी में उठता सफेद घना कोहरा देखा था और आते-जाते, बारिश की झड़ी से बचते-बचाते हरेभरे पेड़ों पर उगे मौस की मोटी कालीन जैसी सुनहरी, मुलायम परतें, झुमकों-सा झूलता झूला (लाइकेन) और बांज-रंयाज के पेड़ों पर लटकते लंबे-लंबे काले बाल भी देखे थे. चोटी पर पहुंच कर हमने पत्थरों का बड़ा ढेर देखा. उन पर हमसे पहले वहां पहुंचे लोगों ने खोद-खोद कर अपने नाम लिखे हुए थे. हमने भी आसपास से पत्थर खोज कर उन पर अपना नाम उकेरा और उन्हें पत्थरों के ढेर के ऊपर सजा दिया. मैं सोच रहा था, हमारे वे नाम लिखे पत्थर अब भी वहीं होंगे!
मैं मास्साब के पीछे चुपचाप चल रहा था. मास्साब उन टेढ़े-मेढ़े रास्तों, पगडंडियों से अच्छी तरह परिचित थे. वे एक जगह रुके. मुझे पीछे रुकने का इशारा किया. बंदूक का निशाना साधा. मैंने अपना दम साधा और बिना हिले-डुले सामने की चट्टान पर देखा. एक घुरड़ धूप सेंक रहा था. मास्साब के निशाना साधते-साधते अचानक वह उठा और फुरती से पलट कर पीछे की ओर कूद गया. मास्साब बंदूक नीचे करते हुए बुदबुदाए, “बच गया.”
वे फिर आगे बढ़े. इधर-उधर, नीचे-ऊपर, ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों से, जिन पर केवल पैर टिकाने भर की जगह थी. नीचे-ऊपर सीधी चट्टान. उन्होंने इशारा किया, चलो पीछे की ओर चलते हैं. हम चांठे-चट्टानों से निकल कर झंडीधार की कांख में पहुंचे और ऊपर चढ़ते-चढ़ते पीछे की ओर बढ़ने लगे. वहां उत्तरी ढलान थी.
बहुत देर से, आसमान में काले बादल गरज रहे थे. हल्की बारिश हुई. और, अचानक बर्फ की हल्की पंखुड़ियां बरसने लगीं. मास्साब बोले, “धीरे-धीरे चलते रहो. आवाज नहीं होनी चाहिए. यों भी, वातावरण में हिमपात के समय का सन्नाटा उतर आया था. हल्की-सी आवाज भी दूर तक सुनाई देती.” हम मुंह ढांपे, दम साधे चलते रहे. एक जगह मास्साब ने हिमपात का जायजा लेने के लिए रुकने का इशारा किया. मैं रुक गया. उन्होंने बैठने का इशारा किया. मैं बैठ गया. फिर धीरे से बोले, “वो, वहां नीचे बारहसिंघे रहते हैं. पिछली बार एक मारा था. मगर, आवाज सुन कर भाग जाते हैं. इसलिए हम चुपचाप चलेंगे. तुम मेरे हाथ का इशारा समझना. शिकार दिखते ही मैं तुम्हें पीछे रुकने का इशारा करूंगा. तुम जहां होगे, वहीं रुक जाना. उधर दाई तरफ घुरड़ भी रहते हैं. उससे आगे बहुत बड़ी चट्टान है. इसलिए घुरड़ हुए तो वे उधर नहीं भाग सकते. बस, बात तब है जब मिल जाएं.”
और, मिल गए घुरड़. ऊपर झंडीधार की चोटी की ओर तेजी से हिमपात हो रहा था मगर हम ढलान के बीच में आ चुके थे. वहां बर्फ की छिटपुट पंखुड़ियां गिर रही थीं. तभी, मास्साब ने हाथ से पीछे रुकने का इशारा किया. मैं रुका. झुरमुटों के बीच से देखा, सामने एक नहीं दो-तीन घुरड़ थे. शायद किनारे पर एक लाल-भूरे रंग का काकड़ भी था. वे हलके हिमपात और वर्षा की बूंदों का आनंद ले रहे थे. मास्साब ने निशाना साधा. आराम से. बाकी घुरड़ तो बेखबर थे, लेकिन एक की नजर शायद हम पर पड़ गई. वह कान खड़े करके हमारी ओर एकटक देखने लगा.
तभी, मास्साब ने लिबलिबी दबा दी…..धांय…और हम भागे उस ओर. लेकिन, वहां कुछ नहीं था! मास्साब को विश्वास नहीं हुआ. वहां तक गए. जमीन पर खून की बूंदें देखने लगे. लेकिन, खून का भी कोई निशान नहीं मिला. वे थोड़ा हताश हो गए. बोले, “अच्छा-खासा सामने खड़ा था. बिल्कुल निशाने पर. लेकिन, हुआ क्या?” जो हुआ, उस पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ. आगे चलते-चलते भी मुड़ कर इधर-उधर देख लेते कि कहीं घायल घुरड़ का कोई निशान छूटा हो.
मैं उनके पीछे-पीछे चल कर एक हरे-भरे ढलान के सिरे पर पहुंचा. वहां हम एक काली चट्टान पर बैठ गए. उसी से नीचे कहीं उन्होंने बारहसिंघा मारा था. उन्होंने बंदूक बगल में रख दी. उसमें ग्राफ वाला कारतूस भरा था, बड़ा जानवर मारने के लिए. फिर मुझसे झोला मांगा. उसमें से पुरानी चुन्नी और कागज में लपेटे पराठे निकाले और बोले, “लो, खाओ. खाना तो खा लें.” दो बार शिकार सामने आने के बाद भी खाली हाथ रहना उन्हें खटक रहा था.
मैं नीचे फैली हरियाली की ओर देखते हुए पराठा खा रहा था कि अचानक एक चट्टान के पास किसी रंग-बिरंगी चीज पर नजर पड़ी. जब तक मैं समझूं कि क्या है, मास्साब ने बंदूक उठाई और…धांय! फिर बोले, “चलो, कुछ तो मरा.” मैंने हैरान होकर उनकी ओर देखा. वे कह रहे थे, “ग्राफ था. लेकिन, चलो कोई बात नहीं.”
मैंने पूछा, “मास्साब, था क्या?”
“अरे, देखा नहीं तुमने? चेड़ था. चलो ढूंढो.”
चेड़ यानी बड़े आकर का रंग-बिरंगा जंगली मुर्गा. उसके खूब लाल काले पंख होते हैं. हम ढलान पर कूदे. कुछ काले और लाल पंख हवा में तैरते हुए नीचे आ रहे थे. हवा में बारुद की गंध थी. मास्साब को चेड़ के चंद कटे-फटे टुकड़े मिल गए. उन्हें देख कर बोले, “बचता भी क्या? घुरड़ मारने का ग्राफ था. चलो, शिकार नहीं मरा नहीं कह सकते. शकुन हो गया.”
लेकिन, मेरा मन बेचैन हो गया. चेड़ की जीवन लीला समाप्त हो गई थी. अब मुझे ख्याल आया- उसके बच्चे कहां होंगे. उसके संगी-साथी उसका इंतजार कर रहे होंगे. वह बेचारा आया ही क्यों चट्टान पर? शिबौ-शिब.
पछेटिया पछताते हुए मास्साब के पीछे-पीछे चल रहा था. मास्साब को निशाना चूकने का मलाल था. उन्हें अपना निशाना चूकने पर कतई विश्वास नहीं हो रहा था. एक-दो बार चलते-चलते अपने-आप से बोल पड़े, “नहीं, निशाना तो चूकना ही नहीं था. मैंने घुरड़ की दूरी का अनुमान लगा कर ठीक जगह पर गोली मारी थी. फिर भी वह बच कैसे गया?”
बहरहाल, घुरड़ बच गया और चेड़ शहीद हो गया था. घर ले जाने के लिए हाथ में कुछ नहीं था. दिन भर भागते-भागते थक चुके थे. घुरड़ नहीं मारा गया सोच कर मैं मन ही मन खुश भी हो रहा था.
“चलो, कोई बात नहीं!” लंबी सांस लेकर मास्साब ने कहा, “लौटते हैं अब.”
उन्होंने कंधे पर बंदूक रखी, पुरानी खानदानी कैंची सिगरेट सुलगाई और धुवां छोड़ते हुए घर की ओर चल पड़े. मुझे उस समय गांव के संगी-साथियों की वह बात भी याद आई कि…कई पछेटिया भी बड़े शकुनी होते हैं. जितनी बार शिकारी के साथ जाते हैं, शिकार मरता ही मरता है. खाली हाथ लौटने का तो मतलब ही नहीं!
उतना शकुनी न होने की उस दिन मुझे बहुत खुशी हुई. शायद मास्साब भी यह समझ गए हों क्योंकि मुझे शिकार पर साथ ले जाने का उनका वही पहला और आखिरी दिन था.
असल में मन में बड़ा द्वंद्व चलता रहता था कि शिकार खाना चाहिए या नहीं. मन में एक ओर किसी जीव के प्राणों की बात उठती तो दूसरी ओर मांसाहारी भोजन की. कभी इधर का पलड़ा भारी होता, कभी उधर का. फल यह होता कि कई बार जब मास्साब या खिमदा शिकार मार लाते तो मैं शिकार छूता भी नहीं था. पूजा और पढ़ाई में मन लगा लेता. लेकिन, जब पता लगता कि भड्डू में पकता शिकार आज खत्म हो रहा है, फिर न जाने कब आएगा, तो मेरे सब्र का बांध टूट जाता. मैं उस दिन शिकार खा लेता. ददा भी कहते थे कि कल-परसों इतना शिकार बना, तब तो तूने खाया नहीं. बहरहाल, उस दिन भरपूर शिकार खाता. नयाल मास्साब को पता लगता तो कहते, “जब था तो नहीं खाया, अब बचा-खुचा खा रहे हो? सियार कहीं के!”
लेकिन, मन और जीभ का द्वंद्व चलता रहा.
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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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शिकारी का पछेटिया बन कर भी मन अन्दर से शिकार की सलामती की फिक्र करता रहे यह स्थिति वेहद दिलचस्प है। यह सुखद है कि शिकार की सलामती का पलड़ा भारी रहा, एक जीवन बच गया
Very nice stories ठैरी।