यह 1842 का साल था जब कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले एक अख़बार ‘इंग्लिश मैन’ में पहाड़ों में एक झील के होने से जुड़ा एक आलेख छपा. पहाड़ियों के बीच एक खुबसुरत झील से जुड़े विवरण को पढ़कर दुनिया भर के लोग इसे लेखक की कपल-कल्पना मानने लगे. लोग तो यहां तक कहने लगे कि ‘इंग्लिश मैन’ छपा यह लेख झूठा और मगढ़नत है. करीब डेढ़ सौ दशक पहले दुनिया जिस झील के अस्तित्व को लेकर असमंजस में थी वह नैनीताल थी.
(Foundation Day of Nainital)
पिलग्रिम के नाम से छपे इस आलेख में नैनीताल की खुबसूरती कुछ इस तरह बयां की गयी –
बांज, देवदार और दूसरे अन्य पेड़ों के झुरमुट से घिरा एक लहरदार समतलभूमि वाला घास का मैदान है. यह झील के तट से ऊपर एक मील तक एक शानदार पहाड़ तक है. पहाड़ इसके अंतिम छोर पर है. झील के किनारों पर भी सुंदर पहाड़ से घिरे हैं. पहाड़ के ढलान शिखर से नीचे पानी के किनारे तक घने जंगलों से ढके हैं. झील का पानी बेहद साफ़ है झील में पानी की आपूर्ति वसन्त में शिखरों के जंगलों से निकलने वाली एक छोटी जलधारा करती है. आसपास की चोटियों पर जंगलों में हिरणों के अनगिनत झुंड रहते थे और तीतर इतने अधिक थे कि उन्हें शिविर के मैदान से भगाना पड़ा.
(Foundation Day of Nainital)
इस आलेख के लेखक का वास्तविक नाम पर्सी बैरन था. यात्राओं का शौक़ीन बैरन शाहजहांपुर में शराब और चीनी का कारोबारी था. एक लम्बे अरसे तक यह बात मानी जाती रही कि नैनीताल में कदम रखने वाला पहला यूरोपीय बैरन था. बाद में यह तथ्य सामने आया कि नैनीताल में बैरन से पहले कुमाऊं कमीश्नर रहे ट्रेल आ चुके थे.
कुमाऊं कमिश्नर ट्रेल की नैनीताल यात्रा के विषय में कहा जाता है कि ट्रेल नैनीताल से भली-भांति परिचित थे. स्थानीय लोगों द्वारा ट्रेल को बताया गया कि यह झील अत्यंत पवित्र है उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए ही कमिश्नर ट्रेल ने ब्रिटिश हुकूमत को इस झील की जानकारी कभी न दी.
यह माना जाता है कि बैरन 1839 के वर्ष आज ही के दिन पहली बार नैनीताल पहुंचा. पिछले कुछ वर्षों से नैनीताल का स्थापना दिवस बैरन के नैनीताल में पहला कदम रखने की इसी तारीख पर मनाया जाता है.
(Foundation Day of Nainital)
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