हल्द्वानी के बरेली रोड में आज भी अब्दुल्ला बिल्डिंग विख्यात है. इसके बारे में माजिद साहब बताते हैं कि उनका जो बगीचा था उसके मुख्य स्थान पर 1902 में बिल्डिंग बननी शुरू हुई और भवन निर्माण के हुनरमन्दों के हाथों में यह सवरती रही. 1920 से इसका व्यावसायिक जगह के रूप में इस्तेमाल होने लगा.उस समय यहां जंगली जानवर खुलेआम घूमते हुए दिखाई देते थे. तब हल्द्वानी से बड़ी जगह कालाढूंगी हुआ करती थी. व्यवसाय का केन्द्र कालाढूंगी होने से व्यापारियों का वहां आना जाना था. तब अब्दुल्ला साहब के मंगल पड़ाव वाली बिल्डिंग के सामने मैदान था, जहां बैलगाड़ी से सामान उतरता था और मंगल की बाजार लगा करती थी. आज वह मैदान पूरी तरह से अतिक्रमण के हवाले हो चुका है. 1936 में उनके परिवार का वनभूलपुरा स्थित मकान बना. इस प्रकार शहर बसने के साथ शामिल हुए इस प्रमुख परिवार का आज भी दबदबा कायम है लेकिन शहर में मची अंधी लूट से वह चिन्तित हैं. माजिद साहब चाहते हैं कि गन्दे नालों को ठीक करवाने सहित शहर के अतिक्रमण हटें ताकि इस खुबसूरत शहर की कुछ तो शक्ल दिखाई दे.
वर्तमान में अपराध की जड़ बनते जा रहे हल्द्वानी शहर के पुराने दिनों को याद करने पर पता चलता है कि भाईचारे की मिसाल रहा यह क्षेत्र एक-दूसरे के भरोसे पर ज्यादा आबाद हुआ. शहर के बसने-बसाने में महत्वपूर्ण अब्दुल्ला परिवार के बुजुर्ग 85 वर्षीय कय्यूम साहब बताते हैं कि हल्द्वानी में कभी कोई फसाद नहीं हुआ. 1857 में इनके दादा हाजी महताब रियासत ताजपुर से हल्द्वानी आये. यहीं पर इनके पिता अल्लाबख्श का जन्म हुआ. चार भाईयों में सबसे छोटे कय्यूम साहब अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि अंग्रेजों का जमाना था और उनके बुजुर्ग बैलगाड़ी में नैनीताल, अल्मोड़ा व्यापार करते थे. इस भाबर के सबसे बड़े गल्ला व्यापारी के रूप में इन्हें माना जाता था. हल्द्वानी से कहीं बड़ा कालाढूंगी था. वहीं से राशन लाकर अन्य जगहों को व्यापार हुआ करता था. तब भोटिया व्यापारी पहाड़ों से ऊन, आलू इत्यादि सामान लाते थे और साबुन, गुड़ आदि भेड़-बकरियों में लादकर ले जाते. वह बताते हैं कि यह व्यापारी छोटे लेकिन बलिष्ट शरीर के होते थे. इनका चेहरा गोरा तथा भारी-भरकम होता था. जाड़ों के दिनों में उनका कैम्प लगता था. वह यह भी कहते हैं कि सुर्ती-तम्बाकू का पहले चलन भोटिया व्यापारियों में था. अब तो हर कोई इसका इस्तेमाल करने लगा है.
अब्दुल कय्यूम साहब बताते हैं कि भारत-पाक विभाजन में हल्द्वानी से कोई भी वहां जाने को राजी नहीं हुआ. मात्र एक आदमी जिसका नाम हसन था, वह पाकिस्तान गया. हसन का लाइन 6 व 7 में मकान था, जिसका क्लेम उसे पाकिस्तान में मिल गया. उस दौर में करीब 25-30 पंजाबी परिवारों को हल्द्वानी में शरण की जरूरत पड़ी. रिफ्यूजियों की सहायता के लिए उनका परिवार आगे आया. बरेली रोड स्थित मकान पर ये लोग किरायेदार के रूप में रहे. वह बताते हैं कि उनके पिता व भाई डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मेम्बर थे, तब मंगल पड़ाव के निकट बाहर से आये पंजाबियों को कामकाज के लिए दुकानें आवंटित की गई. मंगल पड़ाव पूरा मैदान था. उन पुराने परिवारों में मुलकराज जी, आटा मिल वाले, क्राकरी वाले, बख्शी जी आदि आज भी तरक्की में है.
वे बताते हैं कि बाजार की जामा मस्जिद पुरानी है. शायद 1870 में बनी थी. तब यह छोटी सी मस्जिद थी, इसके इर्द-गिर्द गली थी. वर्तमान में तो इसके आसपास अतिक्रमण हो चुका है. रामपुर रोड में आज जहां हिन्दू धर्मशाला है, तब यहां बकरे का झटके का मीट बिका करता था और इसके बाद खेत और जंगल ही जंगल था, जहां लोग खुले में शौच के लिए जाते थे. बाद में बोर्ड द्वारा इस जगह धर्मशाला के लिए दिया गया. पुरानी यादों में जाते हुए कय्यूम साहब बताते हैं कि अंग्रेजों के जमान में कय्यूम खां नामक सम्पन्न व्यक्ति भी हुए, जो बोर्ड के चैयरमैन भी रहे. ईदगाह के ऊपर बाटा की दुकान तक और कालाढूंगी रोड से मुखानी नहर के करीब उनका बगीचा था. फतेहपुर, नानकमत्ता में भी उनके बगीचे थे. समय की बात है, सब कुछ बिकता चला गया और कुछ घिर चुका है.
तीस साल तक पालिका बोर्ड के सदस्य रहे अब्दुल कय्यूम साहब ने सांसद का चुनाव केसी पन्त के खिलाफ लड़ने की तैयारी की थी. वह बताते हैं कि सन 1958 में करीब जब बहेड़ी, बरेली के मीरगंज तक नैनीताल की सांसद सीट हुआ करती थी, वह चुनाव मैदान में उतरे. तब कई कांग्रेसियों ने उनके पास आकर पं. गोविन्द बल्लभ पन्त का वास्ता देकर केसी पन्त जी के समर्थन में चुनाव मैदान से नाम वापस लेने का अनुरोध किया.तब वह पन्त जी के साथ हो लिये. तब रंगीन डिब्बों में बैलेट पर्चे डालकर वोट दिया करत थे. वर्तमान की नेतागर्दी व कालाबाजारी से दुखी अब्दुल कय्यूम साहब कहते हैं डीके पाण्डे साहब ने हल्द्वानी की बहुत तरक्की की. उस जमाने में पालिका बोर्ड में दो पैसे की हेराफेरी नहीं होती थी. अब तो नेताओं को चोर कह दिया जाता है, सारी हरकत देखते हुए वह भी घर बैठ गये हैं. लेकिन नाजायज के खिलाफ वह बोलते रहेंगे.
अपने अतीत के सुनहरे दिनों की तुलना वर्तमान के खराब हालातों से करते हुए अब्दुल कय्यूम साहब चाहते हैं कि अमन की बहार चारों ओर रहे. परिवार में उनके पुत्र अब्दुल हई, मकसूद आलम, महबूत आलम हैं. अब्दुल्ला साहब के इस खानदान से शहर को काफी उम्मीदें हैं. अब्दुल्ला साहब के पुत्र इरसाद हुसैन उच्च न्यायालय नैनीताल में न्यायाधीश रह चुके हैं और सेवानिवृत्ति के बाद पांच साल तक उत्तराखण्ड उपभोक्ता फोरम के चेयरमैंन का पद भी उन्होंने सम्भाला.
सौहार्द के इस नगर का सम्पर्क पहाड़ और मैदान दोनों से रहा जिस कारण मुसलमानों की बंजारा बिरादरी का दबदबा भी यहां रहा है. अपनी कर्मठता और वचनबद्धता के कारण उन्हें आज भी याद किया जाता है. बंजारों की जुबान पर पहाड़ी लोगों को आज भी पूरा भरोसा है. व्यापार की जड़ बिजनौर, बरेली, पीलीभीत, रामपुर, मुरादाबाद से शुरू होकर हल्द्वानी और फिर पहाड़ तक रही है. व्यापारियों की इन पीढ़ियों में से एक 52 वर्षीय एडवोकेट मोहम्मद यूसुफ साहब बताते हैं कि उनके पिता मो. इस्हाक और दादा मो. अब्दुल्ला और परदादा जुल्फी साहब थे जबकि नाना हाजी महताब हुसैन और परनाना हाजी अल्लाबख्श रहे हैं. बंजारों का यह परिवार 1857 में ताजपुर रियासत बिजनौर से हल्द्वानी आकर बसा. अपने बुजुर्गों से सुनी बातों और अध्ययन के आधार पर वकील साहब बताते हैं कि बिजनौर से तो हल्द्वानी का व्यापार और भी पुराना रहा होगा लेकिन उनके परदादा लेाग यहां आकर बस गये. तब बिजनौर के व्यापारियों का पड़ाव महिला अस्पताल के सामने हुआ करता था. तब बाजार की खाली जगह पर नमाज पढ़ी जाती थी. अंग्रेजों इन इन व्यापारियों को शहर के एक ओर बसा दिया लेकिन नमाज वाली जगह पर छप्पर डालकर मान्यता बनी रही. वक्फ बोर्ड के रिकार्ड नं. 1,2,3,6 व 7 में यह मस्जिद दर्ज है. बिजनौर जिले के ताजपुर के मंगलखेड़ा के रहने वाले बंजारे हाफिज अब्दुल रहीफ इसके पहले इमाम रहे.तब व्यापारी पहाड़ों को गल्ला-गुड़ ले जाते और वापसी में चूने का पत्थर भी लाते थे. चूनाभट्टी में चूनापत्थर को पकाकर लोगों ने स्वयं इस मस्जिद का निर्माण किया था.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने- 55
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