हल्द्वानी में जिस तेजी से हर समाज ने पनाह ली है उसी तेजी से उनके आहार व्यवहार रीति-रिवाज का प्रभाव भी यहां फैलता गया. बात करें सिंधी समाज की तो पता चलता है की खानपान की नई परंपरा से इस समाज ने शहर को जोड़ा. कड़ी मेहनत कर सिंधी समाज ने हल्द्वानी में अपनी जगह बनाई है और वर्तमान में सिंधी समाज उत्थान में कई परिवार अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं. सिंधी परिवारों के वरिष्ठ सदस्य वह सामाजिक कार्यकर्ता लख्मीचंद वासवानी कहते हैं, सिंधु घाटी सभ्यता दुनिया के सबसे पुरानी सभ्यताओं में से है और आजादी के दौर व उसके आसपास पाकिस्तान के सिंध प्रांत के तमाम जिलों से कई परिवार हिंदुस्तान आए थे. उन्हीं में से उनके बुजुर्ग भी थे. वह बताते हैं कि खली लोहाना क्षत्रिय होते हैं, उनके स्वभाव के कारण उन्हें भगत कहा जाता था. उनके परदादा के नाम पर उनके परिजन आसवानी लिखने लगे. इसी प्रकार तेजवानी परिवार होते हैं. लख्मीचंद के दादा कल्लूमल उनके भाई वादूमल और कृष्णामल सिंध प्रांत के ग्राम टडो आदम, शाहदादपुर से भारत आए. इसी प्रकार कई परिवार भारत में आकर फैल गए. कई जगह घूमने के बाद वासवानी परिवार किच्छा से आगे अवधपुरी में बस गया. गोविंद बल्लभ पंत के तराई बसाओ आह्वान के बाद 24 सिंधी परिवार अवधपुरी में बस गए जिन्हें 15-15 एकड़ जमीन मिली. इसके बाद यह परिवार हल्द्वानी में आ गया.
सिंधी परिवारों का ज्यादा फैलाव मुंबई, बड़ौदा, हैदराबाद, जयपुर इत्यादि स्थानों पर है. खान-पान के मामले में बेकरी का अच्छा अनुभव कई लोगों को है. नई पीढ़ी के युवा अन्य कारोबारों में भी लग गए हैं. बरेली में ईंट भट्टा के अधिकांश कार्य सिंधी परिवारों के हैं. सिंधी परिवार जब हल्द्वानी आया तो खाने के कई ऐसे व्यंजन उनके द्वारा प्रचार में आए जो पूर्व में यहां प्रचलित नहीं थे. चेलाराम, देवनदास, नैडूमल तीन भाई थे, जिनकी कुल्फी काफी मशहूर हुई. घंटी बजाकर कुल्फी के स्वाद का जो प्रचार परिवार ने किया वह सिंधी कुल्फी के नाम से जाना गया. देवनदास ने ठेले में कुल्फी को कारोबार बनाया. चेलाराम का परिवार, बिशन दास आदि सब्जी के कारोबार में हैं. लख्मीचंद की माता गोपा देवी के मामा वेरसीमल ने 1964 में धानाचुली बैंड में बेकरी शुरू की थी. सिंधी परिवार की ही अल्मोड़ा में चेतना बेकरी है. गरुड़ में ईश्वर दास व अन्य परिवार है. सिंध से आए परिवारों में जस्सूमल का परिवार भगवानपुर में आकर बसा. हल्द्वानी मंडी की बात करें तो वर्तमान में फल के कारोबार में इन परिवारों का दबदबा है.
ठाकुरदास तेजवानी की मिठाई की दुकान लंबे अरसे से सिंधी स्वीट हाउस नाम से चर्चित है वर्तमान में सिंधी परिवार ने अपनी एकता प्रदर्शित करने के लिए भी काफी गतिविधियां शुरू कर दी हैं. झूलेलाल जयंती के अलावा नेत्र शिविर का सफल आयोजन इनके द्वारा किया जाता है. 1982 में सिंधी पंचायत बनाई गई थी जिसमें बर्तन बिस्तर व अन्य सामान जोड़ा गया. पंचायत द्वारा निर्णय लिया गया है कि अपने समाज के हर सुख-दुख में वह लोग एकजुट होंगे और सामाजिक कार्यों की भागीदारी में हमेशा अग्रणी रहेंगे.
जो जमीन यहां के काश्तकारों के पास है उसे रेगिस्तान में बदलने की मनोवृत्ति कम उत्तरदाई नहीं है. वर्तमान में यहां का काश्तकार एक नया ही गणित लगा कर चल रहा है. वह देखता है कि उसकी जमीन भारी मेहनत के बाद भी साल भर में कितना रुपया दे पा रही है इसे दलालों के हवाले कर देने पर जो धन उसे मिलेगा उसका ब्याज ही बिना किसी मेहनत के उससे अधिक मिल जाएगा. तो वह उसे बेच डालने में अधिक फायदा समझ रहा है. लेकिन जमीन हाथ से जाने के बाद स्थिति एकदम बदल जाती है. वह अपनी जमीन बेचकर शहर के निकट एक छोटा सा प्लॉट महंगे दामों पर खरीदा है, फिर कोठी खड़ी करता है, मोटरसाइकिल या कार खरीदता है, रंगीन टेलीविजन फ्रिज आदि तमाम सुख सुविधाओं को जोड़ता है, मांस मदिरा की राहों में भी रुपया खर्च करता है. उसके बच्चों की जरूरतें भी आसमान छूने लगती हैं. इस सब में उसका सारा धन खत्म हो जाता है और उसका गणित एकदम फेल होकर रह जाता है. फिर वह अपने अपने बच्चों के लिए नौकरी की तलाश में इधर उधर भटकता है. जमीनों के दलाल गांव-गांव घूम रहे हैं. कृषि भूमि कम होती जा रही है
यहां के काश्तकार जमीनों को बेचने के बजाय यदि उस जमीन का पोषण कर रहे होते तो स्थितियां कुछ और ही होती. यहां के काश्तकारों के सामने हल्द्वानी के निकटवर्ती गांव चकालुआ में 50 एकड़ भूमि पर फैला चड्ढा फार्म एक उदाहरण है. यह फ़ार्म कृषि विविधता, आधुनिक और पारंपरिक खेती का सम्मिश्रण, व्यावसायिक सोच, ऑर्गेनिक फार्मिंग, हानिकारक दवाओं के प्रयोग रहित उन्नत खेती का उत्कृष्ट नमूना है. इस फार्म के स्वामी हरिकृष्ण चड्ढा व इसी व्यवसाय में रह गए उनके पुत्र सुधीर चड्ढा कहते हैं, उत्तराखंडी देश का एक ऐसा राज्य है जहां बागवानी, फलोत्पादन जड़ी-बूटी उत्पादन, फूल उत्पादन, सब्जी उत्पादन की अपार और विविध संभावनाएं हैं. वे बताते हैं कि यहां की जलवायु भूमि और परिस्थितियां भौगोलिक रूप में इतनी भिन्नता लिए हुए हैं कि यहां कई प्रकार के कृषि उत्पादों से भरपूर लाभ लिया जा सकता है. लेकिन इसके लिए व्यापक सोच लगन और मेहनत की जरूरत है
अपने प्रयोगों से उगाये गए पपीता और गाय के शुद्ध मट्ठे से प्रत्येक आगंतुक का स्वागत करते हुए वे बताते हैं कि हालांकि उन्होंने प्रारंभ में अपने खेतों में रासायनिक खादों व कीटनाशक दवाओं का सबसे पहले प्रयोग किया, अब इनकी हानियों से परिचित हो चुके हैं और इनका प्रयोग वर्जित कर दिया है. उन्नत कृषि के लिए अन्य खादों का प्रयोग करते हैं और कीटनाशक दवाओं के स्थान पर गोमूत्र, तुलसी, आडू, नीम के सम्मिश्रण को प्रमुखता देते हैं. वे बताते हैं कि एक एकड़ भूमि को उपजाऊ रखने के लिए एक गाय का गोबर कंपोस्ट खाद बनाने के लिए पर्याप्त है. ऑर्गेनिक खाद के बारे में वे कहते हैं, इसे तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है पहली है प्राकृतिक रूप से बनने वाली खाद, इसमें स्वतः पौधे से गिरे पत्तों के नीचे माइक्रो बैक्टीरिया खाद का निर्माण करते हैं. यह देखा जाना जरूरी है कि कंपोस्ट में सारे तत्व होने चाहिए. कम से कम 12 से 13 टन खाद एक एकड़ के लिए जरूरी है. खाद को अच्छा बनाने के लिए केंचुओं कि मदद ली जा सकती है. तीसरा, ऑर्गेनिक खाद के शोर के चलते बाजार में जो बायोफर्टिलाइजर आया है उस पर वह कहते हैं कि अभी अनुसंधान की जरूरत है. कट्टो में उपलब्ध यह खाद गमलों के लिए उपयुक्त हो सकती है लेकिन किसान के लिए लाभकारी नहीं है. किसानों को तो स्वयं ही खाद बनानी होगी.
चड्ढा 1952 में रावलपिंडी से यहां आए थे, तब यहां घनघोर जंगल था और वह किसानी भी नहीं जानते थे. लेकिन उन्होंने अथक प्रयास किया. कृषि को व्यवसायिक रूप देने का उन्होंने विचार किया, जिसमें पढ़ाई के बाद उनके पुत्र ने भी भरपूर सहयोग दिया. सबसे पहले उन्होंने 900 पेड़ पपीते के लगाए जिनमें से 700 पेड़ नष्ट हो गए लेकिन हौसला नहीं छोड़ा और वे नए प्रयोग करते रहे. पहले वर्ष 3000 का पपीता बिका दूसरे वर्ष 28000 का और तीसरे वर्ष 38000 का, इसके बाद यह सिलसिला चलता रहा. कई प्रजातियां बाहर से भी मंगाई और उनके गुण-धर्म, देशी नस्ल से मिलाकर नई वैरायटी बनाई. वर्तमान में वे 5 से 6 टन पपीता उत्पादन करते हैं और विदेशों की मांग के अनुरूप पपीते का पाउडर बनाने की मशीन लगाने पर विचार कर रहे हैं. पपीते के बीज पेठा, टमाटर, अदरक, मटर, सब्जियां तथा बहुमूल्य फूलों की भरपूर फसल भी यहां देखी जा सकती है.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने : 41
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