कला को अपने मनोरंजन या आजीविका के साथ जोड़कर चलने वाले कलाकार तो कई मिल जाएंगे लेकिन हर स्थिति में कलाकार बनकर रहने वाले कुछ विरले ही होते हैं. ऐसे ही एक कलाकार हैं चंद्रशेखर कपिल. इस कलाकार ने जीवन की कठिन परिस्थितियों मैं भी थिरकन में कमी नहीं आने दी. कपिल परिवार के इतिहास में जाएं तो पता चलता है कि हल्द्वानी शहर के पुराने सज्जन और संपन्न परिवारों में इनकी गिनती होती है. मूल रूप से स्मेल नैनीताल के इसस परिवार के पद्मावत हल्द्वानी में आ चुके थे. चंद्रशेखर जी के दादा पद्मावत कपिल ने हल्द्वानी बिठौरिया नंबर-1 में भूमि खरीदी. इस दौर में इसे धार बिठौरिया के नाम से जाना जाता था. इसी परिवार में चंद्रशेखर कपिल का जन्म 13 अक्टूबर 1935 को नैनीताल में हुआ. पठन-पाठन के साथ ही बालक चंद्रशेखर का कुदरती कलाकार जाग उठा था. 8 साल की उम्र में 1944 में मल्लीताल रामलीला स्टेज में शत्रुघ्न का पात्र बनने के बाद से चंद्रशेखर ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. रंगमंच की प्रस्तुतियों में आगे रहने वाले इस कलाकार की भर्ती केंद्र गीत एवं नाट्य प्रभाग में होने से देश भर में घूमने का सौभाग्य इन्हें मिला. उस दौर का गीत एवं नाटक प्रभाग अपने स्वर्णिम युग को भोग रहा था यद्यपि इसका वर्तमान खस्ता हाल है.
वर्तमान में कला संस्कृति के संरक्षण के नाम पर जिस प्रकार की धमाचौकड़ी मचने लगी है उससे मीलों दूर चंद्रशेखर कपिल जैसे कलाकारों ने अपने सर में बाजा-तबला ढोकर संगीत की धूनी रमाई. मजेदार बात तो यह है की विशेषज्ञ और जानकारों की सूची में ऐसे व्यक्ति और संस्थाओं के चेहरे उन कलाकारों को मुंह चिढ़ाते दिखाई देते हैं जो अपनी रोजी-रोटी के लिए भी तरस रहे हैं. सरकार चाहे कोई भी हो उसकी नियत कला-संस्कृति के खोटे सिक्के चलाते रहने में ज्यादा रही है. ऐसे में अनुभवी व साधना में तपे कलाकार स्वयं के बूते कुछ कर गए तो ठीक अन्यथा मौन साध लेते हैं. कपिल भी ऐसे ही मौन साधक हैं. अपने श्रम और अनुभव के साथ वह बहुत कुछ कर सकते थे लेकिन कला-संस्कृति के नाम पर बढ़ती जा रही मनमानियों को देख उन्होंने किनारा कर लिया उनके मौन को समझना सबके बस की बात नहीं थी.
गायन वादन एवं नृत्य की जानकारियों के साथ ही मंच की अभिनय कला के जादूगर कपिल छाया नृत्यों, नृत्य नाटिकाओं. बैले, ध्वनि एवं प्रकाश के मंच कार्यक्रमों में खूब नाम कमा चुके हैं. एंटोन चेखव के नाटक आम का बगीचा में 100 साल के वृद्ध का अभिनय करने पर पंजाब हरियाणा सरकार की ओर से उन्हें 1978 में विशेष अवार्ड दिया गया था. पंडित गोविंद बल्लभ पंत के नाटक कटघर, घेरा डालो, कोहिनूर का लुटेरा, धर्मशाला, दुश्मन में किरदार निभाने के साथ ही प्रेमचंद की कहानी सद्गति, सवा सेर गेहूं, ठाकुर का कुआं, और मंदिर सहित कई दर्जन नाटकों में अपनी भूमिका निभा चुके कपिल को कभी भी किसी बात का मलाल नहीं रहा. क्योंकि हजारों की दर्शक संख्या में तालियों की गूंज मिलने का सौभाग्य उन्हें मिला था. देश के वीर जवानों का हौसला बढ़ाने के लिए सीमा पर भी कई कार्यक्रमों में उनकी विशेष भूमिका रही अपने स्वास्थ्य को अपने हाथों से संवारने का जो कठिन कार्य इस कलाकार ने किया उसे वह अब तक निभा रहे हैं. किसी भी महफिल में कपिल के बैठते ही उसकी रौनक कई गुना बढ़ जाती थी. अपने मूड का पक्का यह कलाकार 1996 में सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हुआ. लेकिन उसने साबित कर दिया कि कलाकार की भूख सरकार की गुलाम तो हो ही नहीं सकती. कपिल परिवार की पृष्ठभूमि में जाने पर पता चलता है कि पंडित दुर्गादत्त कपिल पीलीभीत के राजा के यहां राजवैद्य थे नैनीताल के प्रसिद्ध समाजसेवी चेतराम शाह उन्हें अपने साथ नैनीताल ले आए और नैनीताल के बड़ा बाजार में धर्मार्थ दवाखाना खुलवाया कपिल परिवार नैनीताल रहता और जाड़ों में हल्द्वानी आ जाया करता
उस समय हल्द्वानी की रामलीला दूर-दूर तक मशहूर हुआ करती थी. खटीमा, गदरपुर, रुद्रपुर, बाजपुर, नैनीताल, कालाढूंगी आदि के लोग घोड़ों, तांगों, बैलगाड़ियों व अन्य साधनों से यहां रामलीला देखने आते थे. जिन्हें रहने का आश्रय नहीं मिल पाता था वह पेड़ों के नीचे ही रह लेते थे. दिन में 3-4 बजे से 8 बजे तक और रात्रि में 10 बजे से 2-3 बजे तक रामलीला चलती रहती. हल्द्वानी के व्यापारियों ने धनराशि एकत्र कर यहां भवन निर्माण कराया. पहाड़ एवं तराई के बीच का यह क्षेत्र अपनी भाबरी रामलीला के लिए काफी लोकप्रिय हुआ. लोग दूर-दूर से आकर खरीदारी करते तथा रामलीला का आनंद लेते थे. 1835 में हल्द्वानी नगर में कुछ प्रबुद्ध नागरिकों ने भारत वर्ष के सांस्कृतिक अस्मिता की स्थायित्त्वता हेतु धार्मिक प्रदर्शनों, नाटकों एवं रामलीला व श्री कृष्णलीला मंचन हेतु तत्कालीन ब्रिटिश अधिकारी रॉबर्ट साहब से एक शिष्टमंडल के रूप में, कन्हैया लाल सारस्वत के नेतृत्व में अनुरोध किया. राबर्ट ने तहसीलदार हल्द्वानी देवेंद्र जोशी को नगर में रामलीला मैदान एवं उसकी चहारदीवारी बनाने के निर्देश दिए.
शहर में पर्वतीय तथा मैदानी क्षेत्र के लोगों ने मिलकर रामलीला का जो स्वरूप बनाया वह कुमाऊं की रामलीला में निराला ही है. रात्रि की रामलीला में तो कुमाऊं की परंपरागत शैली ही होती थी. किंतु दिन की रामलीला संवाद और पुतलों के कारण मेले के रूप में चर्चित थी. मैदान में एक और राम दरबार दूसरे और रावण दरबार सजाया जाता था. आवश्यकतानुसार अन्य स्थल भी बनाए जाते थे और कथा वाचक की कथा के साथ पूरे मैदान में अभिनय होता था. शहर की आबादी भी बहुत कम थी और दिन की रामलीला में अक्सर बुजुर्ग आया करते थे. रामलीला तो एक बहाना होता था. एक ओर रामलीला का मंचन मैदान में चलता रहता था और दर्शक चारों ओर बैठे उसका आनंद लेते थे. लेकिन रात की लीला के मुख्य मंच के पास दिन में बुजुर्गों के वआपसी मिलन का केंद्र सा बन जाता था. 11 दिन तक रामलीला के बहाने आपसी भेंट मुलाकात का भी अच्छा मौका था. लेकिन धीरे-धीरे भेंट मुलाकात का सिलसिला खत्म सा हो गया. इधर 2007 से रात्रिकालीन रामलीला आपसी लड़ाइयों की भेंट चढ़ गई है. भविष्य में क्या होगा पता नहीं. नगर के पुराने कलाकारों को इस बात का बहुत बड़ा दुख है किंतु हर क्षेत्र में घुस आये ताकतवर, दबंग लोगों ने जिस बंदरबांट संस्कृति को जन्म दे डाला है उसने प्रबुद्धजनों को मन मसोसकर ही रह जाना पड़ता है. दरअसल साल में एक बार इस मैदान में कुछ वर्षों से नुमाइश लगने लगी और उस नुमाइश के लिए इस मैदान को कुछ धन लेकर दिया जाने लगा. उस धन का अधिकांश भाग रामलीला कमेटी में जमा ना होकर कमेटी में घुस आए दबंगों की जेब में जाने लगा. इसी बंदरबांट ने 150 साल पुरानी रामलीला को समाप्त कर दिया. कमेटी भंग हो गई और प्रशासक बैठ गया. बहरहाल वर्ष 2009 में प्रशासन की ओर से दिन की रामलीला की व्यवस्था करवा दी गई और 2 साल बाद रात्रि की रामलीला भी शुरू तो कर दी गई लेकिन पुरानी परंपरा लुप्त होती जा रही है.
हल्द्वानी में पहले चैत्र मास में रामलीला का प्रचलन था. इसमें बाहर से कलाकारों की मंडलिया बुलाई जाती थी. बरेली रंग मंडलियों का केंद्र रहा है वहां से यहां कलाकार आते थे. उनकी शैली संवाद की थी. कुछ पात्र गायन भी करते थे. उस दौर में रामलीला नाटक की पुस्तक प्रकाशित हुई. रामलीला नाटक की इस पुस्तक को लाला राम चंद्र महोबिया ने बरेली से प्रकाशित करवाया इस नाटक के कुछ संवाद व पदों का प्रयोग यहां होता रहा है.
नगर से महानगर हो चुके हल्द्वानी ने अपने आसपास के गांवों को भी अपने में सम्मिलित कर लिया है. मुखानी क्षेत्र में पर्वतीय रामलीला कुछ दिनों तक आकर्षण का केंद्र हुआ करती थी जो अब बंद हो चुकी है. शहर के मोहल्लों व गांवों में अब यह परंपरा विस्तार पा चुकी है. हल्द्वानी नगर में रामलीला, रासलीला, नौटंकी या कठपुतलियों के खेल, होली, दिवाली, जन्माष्टमी, गुरुपुरब, ईद मिलन के अलावा विभिन्न लोगों के सामूहिक रूप से आयोजन की समृद्ध परंपरा तो थी ही. वहीं मनोरंजन के साधनों में नाहिद वह दिलरुबा टॉकीज में परिवार के साथ फिल्म देखना भी शामिल था. जनसंख्या में वृद्धि के साथ आपराधिक गतिविधियों में बढ़ोतरी हो जाने तथा टेलीविजन के जीवन में प्रवेश के कारण सिनेमा हालों की स्थिति कमजोर हो गई है. आजादी से पहले रेलवे बाजार में नाहिद सिनेमा हाल था. बताया जाता है कि सन 1935 में भवाली के पास 5-6 लोगों ने कोरोनेशन सिनेमा हॉल की स्थापना की थी. जिसे बाद में नाहिद सिनेमा कहा जाने लगा. सिनेमा हॉल वाली बिल्डिंग अल्ताफ हुसैन की थी. पीलीभीत के अल्ताफ हुसैन की बिल्डिंग में सिनेमा हॉल को रामपुर के नवाब मुकसुफल जफर अली खान चलाया करते थे. आपसी विवाद के चलते न्यायालय ने इस भवन को तीन हिस्सों में नीलामी का आदेश दिया. नीलामी में गोकुल चंद अग्रवाल और राजकुमार सेठ ने इसे खरीद लिया, लेकिन इस बिल्डिंग पर नवाब साहब कब्ज़ा रहा. खेमचंद अग्रवाल ने इसे लाला जी से खरीदा और नवाब से कब्जा भी छुड़ाया.
इसी के समकक्ष कच्चा सिनेमा हॉल रामपुर रोड में दिलरुबा टॉकीज के नाम से चला करता था. लाला बालमुकुंद की बिल्डिंग में शेख साहब इस टॉकीज को किराए पर चलाया करते थे. सन 1952 में खेमचंद ने सिनेमा हॉल को लक्ष्मी नाम से चलाना शुरु किया. सन 1959 में जब इस कच्चे सिनेमाघर को तोड़कर पक्का सिनेमा हॉल बनाने का कार्य चला तो उस समय 7 माह तक सिनेमा विष्णुपुरी मोहल्ले में टेंट लगाकर चलाया गया. सन 1960 में पक्का सिनेमा हॉल बनने के बाद लक्ष्मी का नाम ‘न्यू लक्ष्मी सिनेमा’ रख दिया गया. तब इसमें पहली फिल्म कश्मीर की कली दिखाई गई थी. खेमचंद अग्रवाल मूल रूप से बुलंदशहर में कुटरावली के रहने वाले थे. इनके बहनोई उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री बाबू बनारसी दास थे. खेमचंद को घूमने का काफी शौक था जिसके चलते वह एक जगह रुक नहीं पाते थे. सबसे पहले आगरा में चित्रा और ताज सिनेमा हॉल का उन्होंने संचालन किया. आगरा के पास सादाबाद, बरेली जिले की आंवला तहसील में, दिल्ली शाहदरा में राधू पैलेस, पीलीभीत, बिलासपुर, फर्रुखाबाद, पिलखुवा, उझानी, गदरपुर में भी इन्होंने सिनेमा हॉलों का संचालन किया. नैनीताल में रॉक्सी सिनेमा हॉल का नाम बदलकर लक्ष्मी सिनेमा नाम से उन्होंने संचालित किया. वर्तमान में यहां नटराज होटल है. सिनेमा हॉल संचालन का लंबा अनुभव रखने वाले खेमचंद ने हल्द्वानी नगरी को अपनी कर्मभूमि बनाया और वर्तमान में शहर के चारों सिनेमा हॉल इनके हैं. 2 जनवरी 1963 को लक्ष्मी सिनेमा हॉल में रात्रि शो के दौरान राज नारायण अग्रवाल गोली लगने से घायल हो गए. 3 फरवरी 1990 को आतंकी घटना में लक्ष्मी सिनेमा हॉल में बम विस्फोट में 6 लोगों की मृत्यु हो गई. हॉल में फिल्म दाना पानी चल रही थी. नाहीद व लक्ष्मी सिनेमा हॉलों के बाद प्रेम सिनेमा हॉल का शुभारंभ 23 फरवरी 1972 को हुआ. जिसमें पहली फिल्म हाथी मेरे साथी लगी थी. यह जमीन 1968 में देवी दत्त छिम्वाल से खरीदी गई थी. 10 मई 1990 को रामपुर रोड में सरगम सिनेमा हॉल का शुभारंभ हुआ. मुनगली परिवार के सहयोग से शुरू किए गए इस सिनेमा हॉल में पहली फिल्म इज्जतदार दिखाई गयी. शुरुआती दौर में अठन्नी में पीछे की सीट व चवन्नी में आगे की सीटों के लिए टिकट हुआ करता था.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने : 34
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