सरदार जगत सिंह के बड़े भाई दिलबर सिंह उनसे 10 साल बड़े थे. पिताजी के व्यवसाय में हाथ बताने के अलावा वह शेरो-शायरी व गीत-गजल के शौकीन भी थे. इनकी खूबियों से हल्द्वानी ही नहीं दूर-दूर के लोग परिचित थे. इस परिवार के बारे में कहा जाता था कि यह पहाड़ी सरदार हैं. 1947 से पहले जब हल्द्वानी में 4-5 ही सिख परिवार रहा करते थे तभी यह परिवार यहां बस गया था. पंजाबी से ज्यादा कुमाऊनी भाषा बोलने में इस परिवार के सदस्य माहिर थे. इनके पुत्र स्वर्गीय धर्मवीर ने इनकी विरासत को संभालते हुए कपड़े की दुकान खोल ली जो आज भी सदर बाजार में सुपर स्टोर के नाम से चर्चित है. अपने शहर को सजाने व महफिलें, जलसे करवाने के शौकीन इस परिवार ने व्यवसाय में जितनी दूर-दूर तक ख्याति पाई उससे ज्यादा इनका परिचय कलाकार के रूप में था.
दिलबाग राय ‘दिलबर’ हल्द्वानी रामलीला में राजा जनक के किरदार के रूप में प्रसिद्ध थे. भाबर की इस प्रसिद्ध रामलीला मेले को देखने के लिए उस समय बैलगाड़ियों, घोड़ों मैं बैठकर व पैदल सैंकड़ों लोग दूर-दूर से आया करते थे. अपनी बुलंद आवाज के कारण वह महफ़िल जमाने में माहिर थे. इस मस्त कलाकार के किस्से ही किससे रहे हैं. दुकानदारी करते करते ही वह शेरो-शायरी करने लगते. अंग्रेजों का जमाना था और आयकर, वाणिज्यकर के सख्त अधिकारियों की देखरेख में तारीखें लगा करती थी. सख्त जमाने में भी कलाकार दिलबर का मन मौजी था. वह दुकान के बही खाते में भी शेरो-शायरी लिख दिया करते थे. अफसरों के पहुंचने पर उनसे भी कहते हुजूर एक शेर या गजल हो जाए. उस दौर के तमाम कार्यक्रमों व महफिल में युवक दिलबर को घेर लेते और कहते ‘चचा एक और हो जाए.’
उस समय कविता पाठ, शेरो-शायरी, गजल-गीत की महफिलों में हिंदी के विद्वान प्रोफेसर राजेंद्र अवस्थी, मुसद्दीलाल, भीष्मदेव वशिष्ठ, मथुरा प्रसाद कोठारी, जयदत्त कांडपाल, कुदरत उल्ला भी मंच की शान थे. बाद में भवानी दत्त पंत ‘दीपाधार’, टी.सी. पपने, खन्ना ख्याल कानपुरी, देवकी मेहरा, बंशीधर चतुर्वेदी, सुनील हरबोला आदि कवि गोष्ठी में आने लगे. एमबी महाविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर हरिहरनाथ दीक्षित यद्यपि कविता नहीं लिख लिखा करते थे लेकिन उनकी उपस्थिति उत्साहित करने वाली होती थी. साहित्य संगम नामक एक संस्था का भी गठन किया गया. विशंभर कोठारी अपने पिता मथुरा प्रसाद कोठारी की याद में कवि गोष्ठीयों का आयोजन किया करते थे और स्वयं भी अच्छी कविताएं किया करते थे.
‘दिलबर’ अपनी शायरी का आगाज ‘बस जरा सी बात पर बरसों का याराना गया’ से करते और घंटों तक श्रोताओं को घेर कर रख लेते. एक दिन बड़े रोमांचकारी अंदाज में उन्होंने बताया कि वह पहले हिंदू थे बाद में सिख बन गए. उनके पुत्र ने उनकी हस्तलिखित पुस्तकों को संजोकर रखा था. उर्दू में ‘गजीने मार्फत’ और पंजाबी में ‘भरतरी विलास’ उनके प्रमुख ग्रंथ थे. इन काव्य गोष्ठी ओं में बुजुर्ग होने के बावजूद शेर सिंह बिष्ट ‘शेरदा अनपढ़’ की उपस्थिति विशेष रहा करती थी. वह 13 अक्टूबर 1933 में माल गांव अल्मोड़ा में पैदा हुए थे. शेर सिंह बिष्ट का 20 मई 2012 को निधन हो जाने के बाद उनकी यादें ही इन काव्य गोष्ठियों में शेष रह गई हैं. कुमाऊनी में चटपटी कविता लिखने वाले शेरदा ‘सॉन्ग एंड ड्रामा डिविजन’ नैनीताल से अवकाश प्राप्त कर यहां श्याम विहार में निवास कर रहे थे. उनके मेरी लटिपटि सहित कई हास्य से ओतप्रोत और अंतरंग को छू जाने वाले कविता संग्रह प्रकाशित हुए थे वर्तमान में नई पीढ़ी ने काव्य गोष्ठी ओं की इस परंपरा को जीवित रखा है.
व्याकरणाचार्य जय दत्त कांडपाल क्षेत्र के उच्च कोटि के संस्कृत विद्वानों में माने जाते थे. उन्होंने अधिक कविताएं नहीं लिखी थी लेकिन जो भी लिखी थी बहुत अच्छी थी. अल्मोड़ा के कंडारकुआं गांव में जन्मे कांडपाल ने मथुरा काशी इलाहाबाद में संस्कृत की शिक्षा ग्रहण की. हल्द्वानी में उन्होंने ललित आर्य महिला विद्यालय, लक्ष्मी शिशु मंदिर व सनातन धर्म संस्कृत विद्यालय में संस्कृत अध्यापक के रूप में भी कार्य किया. आपातकाल के दौरान 1975 में 1 वर्ष तक जेल में भी रहे. कुसुमखेड़ा में, आज जिसे गैस गोदाम रोड कहा जाता है, उसी कच्ची सड़क के मध्य उनका अकेला आवास था और दूर से ही उसे पहचाना जा सकता था. आज वहां पक्की सड़क बन गई है और उसके चारों ओर इतने आवास बन गए हैं जो उनका घर ढूंढा भी नहीं जा सकता. 2008 में उनका निधन हो गया.
हल्द्वानी के काव्य लोक में 1981 के बाद बतौर खाद्य निगम के अधिकारी डॉक्टर भवानी दत्त पन्त ‘दीपाधार’ का प्रवेश हुआ भ्रष्टाचार में सने विभाग में भौतिकता और सांसारिकता से विरत विनम्र व्यक्ति का इस नगर में प्रवेश कुछ दिन तक काव्य की रसधार को नया ही आयाम दे गया, किंतु उनकी विरक्ति कुछ नया कर नहीं पाई. वह कवि ‘नीरज’ के सानिध्य में भी रहे. नीरज ने उनके बारे में कहा कि ‘भारती’ (तब पन्त क़ुतुब भारती के नाम से लिखा करते थे) उन मौन साधकों में से हैं जो साधना में तो लगे रहते हैं, उसकी चर्चा करने में कतराते हैं. उन्होंने ‘उत्तराखंड की लोक कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन’ विषय पर पीएचडी भी की थी. उन्होंने देखा कि उनके चारों और तो भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार है और भ्रष्टाचार में रहकर काम नहीं कर सकते इसलिए उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया. उनकी उनकी निर्लिप्तता कभी-कभी असहजता भी पैदा कर जाती थी. वह अपने पास पैसा नहीं रखते थे. कई दिन तक अन्य जल ग्रहण नहीं करते थे. खुले फर्श पर ही सो जाया करते थे. एक बार हल्द्वानी से करीब 5 किलोमीटर दूर कहीं भागवत कथा में जाने के लिए वह एक पुरानी सी साइकिल पर सवार होकर चल दिए. मार्ग में साइकिल का ट्यूब फट गया. वह साइकिल मैकेनिक के पास छोड़कर पैदल घर लौटे और अपने पुत्र से पैसा लेकर वहां तक चलने को कहा. साइकिल वाला भी उन्हें समझाता रहा कि पैसे फिर आ जाएंगे चिंता की कोई बात नहीं है लेकिन वे नहीं माने.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने : 33
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