(पिछली क़िस्त: माफ़ करना हे पिता – 6)
लॉटरी उनसे तब तक नहीं छूटी जब तक सरकार ने इसे बंद न कर दिया. इस धंधे में असफल रहने का कारण उनकी नजर में मैं था. बकौल उनके- गुरू हम तो क्या का क्या कर दें, इस शख्स से जो हमें इतना सा सहयोग मिल जाये. मैंने कब उनके हाथ बाँधे, उन्होंने मेरा कहा कब किया, याद नहीं. जो भी चीज उनके मन मुताबिक न होती, उसका ठीकरा मेरे सर फोड़ा जाता. उन्होंने कुछ ऐसी बातें भी मेरे साथ चस्पा कर रखी थीं कि जिनका मुझ से कोई मतलब नहीं था. उनके कहे मुताबिक वो बीमार पड़ना तब से शुरू हुए जब से उन्होंने भात खाना शुरू किया. वर्ना पहले तो हम उस घर में ही नहीं जाते थे जहाँ चावल पक रहा हो. गुरू हमारी शादी (पहली) में सात गाँवों की पंचायत बैठी,सिर्फ हमारी वजह से भात का प्रोग्राम कैंसिल कर पूड़ियाँ बनीं. तो चावल वो मेरी वजह से अपनी जान पर खेल कर खाये जा रहे थे. जब कि सच यह है कि मुझे चावल कोई इतने पसंद नहीं कि भात खाये बिना खाया हुआ सा न लगे. पिता सुबह को चावल बना कर परोस दें तो मैं क्या कर सकता था, सिवाय इसके कि चुपचाप खा लूँ और देखने वाले की नजर में अपने बाप की सेहत से खिलवाड़ करता हुआ रंगे हाथों पकड़ा जाऊँ. गुनहगार कहलाऊँ. पिता दूसरों की नजर में बुजुर्ग, सीधे और भलेमानुष, मैं कमीना और बूढ़े बाप को सताने वाला. परिस्थितियाँ कभी भी मेरे अनुकूल नहीं रहीं.
मकान मालिक लोगों की जो जमीन यूँ ही पड़ी-पड़ी कूड़ेदान का काम कर रही थी, पिता ने उसमें शाक-सब्जियाँ उगाना शुरू कर दिया. यह काम वह पहले भी करते ही थे. अब होल टाइमर थे. बारहों महीने मौसम के मुताबिक सब्जी खेत में मौजूद. सब्जी तोड़-तोड़कर पास-पड़ोस में बाँट रहे हैं. इस उस को दे रहे हैं. पेड़ों को पब्लिक नल से पानी ढोकर सींच रहे हैं. और मजे की बात कि न आप मिर्च खाते हैं न बैगन. बैगन का नाम आपके मुताबिक दरअसल बेगुन है, इसमें कोई गुण नहीं होता. भगवान इसकी रचना भूलवश कर बैठा. अचार के सीजन में बड़े-बड़े केनों में अचार ठुँसा पड़ा है. लहसुन छील-छील कर उँगलियों के पोर गल गये हैं.
आपके कथनानुसार कोई खाता नहीं, वर्ना हम तो ससुर टर्रे का भी आचार डाल दें. टर्रा मतलब मेंढक. बड़ियों के मौसम में बड़ी-बड़ी मुंगौड़ियों की रेलम पेल. बड़ी पिता के मुताबिक स्वास्थ्य खराब करने वाली चीज है, उसकी तासीर ठंडी होती है. एक बार उन्होंने 17 किलो माश की बड़ियाँ बना डालीं. 17 किलो माश को धोना, साफ करना और सिल में पीसना अपने आप में एक बड़ा काम है- संस्था का काम है. पर उन्होंने पीस डाले रो-धोकर मुझे सुनाते हुए रुआँसी आवाज में कि मेरा कोई होता तो माश पीस देता. ऐसे चूतियापे के कामों में सचमुच मैंने कभी उनका साथ नहीं दिया. सिवाय इसके कि अचार का आम या बड़ियाँ छत में सूखने पड़ी हैं, बूँदाबाँदी होने लगी तो उन्हें उठा कर भीतर रख दूँ. सोचने वाले सोचते कि इस आदमी ने अचार-बड़ियों का कुटीर उद्योग खोल रखा है. अच्छा भला मुनाफा हो रहा है. इसका लड़का अगर थोड़ा हाथ बँटा देता तो क्या बुरा था. आखिर यह बूढ़ा आदमी इतनी मेहनत किसके लिये कर रहा है. सचमुच बेटा इसका नासमझ है और कमीना भी. मुझे कहीं पनाह नहीं थी.
पाव या आधा लीटर दूध को दिन भर में चार-छः बार उबाल कर उसकी मलाई निकाली जा रही है, फिर 10-15दिन में उससे घी बन रहा है. आने वाले को दिखाया जाता है- देखिये, हमारे हाथ का घी, मलाई से बनाते हैं हम. देखने वाला वाह करता, मेरा मन उसे तमाचा जड़ने का होता, क्योंकि वह 100 ग्राम जो घी है मैं जानता हूँ वह जैतून और बादाम के तेल से भी महंगा पड़ गया है. और उस पर तुर्रा ये कि अमूमन घी अचानक गायब हो जाता. पूछने पर पता चलता कि फलाँ को दे दिया. बेकार चीज है, खाँसी करता है.
ताश खेलना उन्हें बेहद पसंद था. उनकी नजर में यह एक महान खेल था जो कि दिमाग के लिये शंखपुष्पी और रोगने बादाम जैसी प्रचलित चीजों से ज्यादा गुणकारी था. उनके मुताबिक अगर बच्चों को अक्षर ज्ञान ताश के पत्तों के जरिये करवाया जाये तो वे जल्दी सीखेंगे और उनका दिमाग भी खुलेगा. जरा ऊँचा सुनते थे, ऐसे मौकों पर मैं चिढ़कर लुकमा देता कि वो बच्चे नौकरी रोजगार से न भी लग पाये तो जुआ खेल कर रोजी कमा ही लेंगे. सामने बैठा आदमी इस पर हँसने लगता. पिता सोचते कि वह उनकी बात पर हँस रहा है. इसलिये जोश में आकर दो-चार ऐसी बातें और कह जाते. मैंने उन्हें घंटों अकेले ताश खेलते देखा है. ताश में एक खेल होता है ‘सीप’. यह खेल उन्हें ज्यादा ही पसंद था. चाहे जितनी तबियत खराब हो, सीप का जानने वाला कोई आ जाये तो खाँसते-कराहते उठ बैठते और खेल जारी रहने तक सब दर्द तकलीफ भूल जाते. अगर दो बाजी हार जाते तो चिढ़ कर खेल बंद कर देते कि – बंद करिये हमारी तबियत ठीक नहीं. पता नहीं साला कैंसर है, न जाने क्या है. जीतने पर उनका जोश बढ़ जाता. फिर सामने वाला खिलाड़ी चाहे गणित में गोल्ड मैडलिस्ट क्यों न हो, उसे सुनना पड़ता कि गुरू आपका हिसाब बड़ा कमजोर है. कौन पत्ता फेंक दिया, कौन सा हाथ में है, इत्ता सा हिसाब नहीं रख सकते.
खिलाने पिलाने के बड़े शौकीन थे. तरह-तरह के प्रयोग खाने में अकसर होते रहते. करेले की रसेदार सब्जी मैंने उन्हीं के हाथ बनी खायी. सब्जी परोसते हुए उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि असल में करेला ऐसे नहीं बनता. इसे बारीक काट कर तवे में सूखा बनाया जाता है. जरा भी कड़वा नहीं होता. एक बार उन्होंने मेरे कुछ दोस्तों को बुलवा भेजा. आइये गुरू देखिये आज हमने आपके लिये क्या बनाया है ! उस दिन बिच्छू घास की सब्जी बनी थी. शराब मैंने पहली बार उन्हीं के साथ चखी. जब कभी पास में पैसे हों, मूड हो तो कहते वाइन लेगा, है मूड ? आज साली ठंड भी है यार. मैं चुपचाप हाथ पसार देता और जाकर पव्वा ले आता. दोनों बाप बेटे हमप्याला हम निवाला होते, कुल्ला करके सो जाते.
आखिरी दो-तीन सालों में उनका दम बेहद फूलने लगा था इसलिये धूम्रपान छोड़ कर सुर्ती फटकने लगे थे. अब उनकी नजर में सुर्ती भी एक महान चीज थी. एक बार उन्होंने मेरे एक दोस्त को सुर्ती पेश की. दोस्त ने कहा मुझे आदत नहीं है, चूने से मुँह फट जायेगा. पिता ने उसे समझाया- गुरू शादी से पहले लड़कियाँ भी इसी तरह डरती हैं…..बाद में सब ठीक हो जाता है. आपको भी आदत पड़ जायेगी. खाया कीजिये, बड़ी महान चीज है, दिमाग तेज करती है.
कई बार वो ऐसी बातें सिर्फ कहने के लिये कह जाते कि जिसकी निरर्थकता का उन्हें खुद भी अहसास होता. मसलन,गुरू कुत्ता बड़ा महान जीव होता है. उसके धार्मिक खयालात बहुत ऊँचे होते हैं. उसे अगर रास्ते में दूसरे कुत्ते काट खाने को न आयें तो वह रातोंरात हरिद्वार जाकर नहा आये. मेरा ऐतराज था कि जो कुत्ते उसका रास्ता रोकने को बैठे रहते हैं वो खुद क्यों नहीं उससे पहले हरिद्वार चले जाते ? पिता बात बदल देते या चिढ़ जाते.
किसी को अंग्रेजी शराब पीता देखते तो कहते- ये साली बड़ी बेकार चीज है, ठर्रा बड़ी महान चीज है. ठर्रे वाले को राय होती कि ये कोई अच्छी चीज थोड़ा है, आँतें गला देती है. कम लो, अच्छी चीज लो, इंगलिश पिया करो. इसी तरह उनका दिन चाय पीने और चाय की बुराइयाँ गिनवाने में बीतता.
उनका दावा था कि अगर कोई उन्हें सात फाउंटेन पैनों में सात रंग की स्याहियाँ भर कर ला दे तो वे असल जैसा दिखने वाला नकली नोट बना सकते हैं. उनका इतना सा काम किसी ने करके नहीं दिया और भारतीय अर्थव्यवस्था चौपट होने से बच गयी. इस नेक काम में मैंने भी सहयोग नहीं किया. अटल बिहारी वाजपेयी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने कहा- देखना गुरू, अब अटलजी मैरिज कर लेंगे. सैटल हो गये हैं न.
पिता जैसे थे मैंने ठीक वैसे ही कलम से पेंट कर दिये. न मैंने उनका मेकअप किया, न उन पर कीचड़ उछाला. उन्हें याद करने के बहाने माँ, जिसकी याद मुझे जरा कम ही आती है, को भी याद कर लिया और खुद अपने अतीत की भी गर्द झड़ गयी. बात से बात निकलती चली गयी, डर है कहीं रौ में कुछ गैरजरूरी न कह गया होऊँ.
मेरे लिये पिता की दो छोटी सी ख्वाहिशें थीं- एक तो मुझे किसी तरह चार छः बोतल ग्लूकोज चढ़ जाये. जिससे मैं थोड़ा मोटा हो जाऊँ. मेरा दुबलापन उनके अनुसार सूखा रोग का लक्षण था. ग्लूकोज चढ़ने से मैं बकौल उनके ‘बम्म’हो जाता. और दूसरी ख्वाहिश थी कि अनाथालय से मेरी शादी हो जाये. जाहिर सी बात है कि मैंने हमेशा की तरह यहाँ भी उन्हें सहयोग नहीं किया और नतीज़तन इतना दुबला हूँ कि मेरी उम्र मेरे वजन को पीछे छोड़ चुकी है.
(समाप्त)
शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’ प्रकाशित हो चुकी है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.
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