सभी के होते हैं, मेरे भी एक (ही) पिता थे. शिक्षक दिवस सन् २००१ तक मौजूद रहे. उन्होंने ७१-७२ वर्ष की उम्र तक पिता का रोल किसी घटिया अभिनेता की तरह निभाया मगर पूरे आत्म विश्वास के साथ. लेकिन मैं उन्हें एकदम ही ‘पीता’ नहीं कहने जा रहा. इसलिये नहीं कि मेरे बाप लगते थे बल्कि इसलिये कि चाहे जो हो आदमी कुल मिलाकर कमीने नहीं थे. किसी भी आदमी का यही एक ‘दुर्गुण’ बाकी सारे ‘गुणों’ पर भारी है. बाकी शिकायत,बल्कि शिकायतों का कपड़छान तो यही कि उन्होंने पिता के रोल की ऐसी तैसी करके रख दी. न जाने किस बेवकूफ ने उन्हें बाप बना दिया.
उनका बारहवाँ और वार्षिक श्राद्ध तो मैं हरिद्वार जाकर कर आया था उधार और चंदे के पैसों से, जैसा भी बन पड़ा. आज सोचता हूँ कि कलम से भी उनका तर्पण कर दूँ. ऊपर मैंने शिकायतों का जिक्र किया लेकिन यह तर्पण जाहिर सी बात है श्रद्धावश ही है, शिकायतन नहीं.
पिता का मेरा साथ लगभग ३२ वर्षों तक रहा, लगभग मेरे जन्म से उनकी मृत्यु तक. माँ का साथ काफी कम और वह भी किस्तों में मिला. पिता के साथ यादों का सिलसिला काफी लम्बा है. यादें देहरादून से शुरू होती हैं. मेरी पैदाइश भी वहीं की है. यादें आपस में गुड़-गोबर हुई जा रही हैं, कौन पहले, कौन बाद में. लेकिन शुरू कहीं से तो करना पड़ेगा ही. सबसे पहले दिमाग में जो एक धुँधली सी तस्वीर उभरती है वह यूँ है- गर्मियों के दिन हैं, पिता बेहद हड़बड़ी में दोपहर को घर आते हैं. शायद दफ्तर से इजाजत लिये बिना आये हैं. मैं बीमार हूँ. मुझे कम्बल में लपेट कर दौड़े-दौड़े डॉक्टर के पास ले जाते हैं. डॉक्टर मुझे सुई लगाता है. पिता लौट कर माँ से कहते हैं- “डॉक्टर कह रहा था कि आधा घंटा देर हो जाती तो बच्चा गया था हाथ से.” उस दिन तो बच्चा हाथ आ गया पर फिर कभी उनके हत्थे नहीं चढ़ा.
एक और तस्वीर है यादों के एलबम में … बारिश हो रही है, सड़क में एड़ियों से ऊपर तक पानी भरा है. मुझे उल्टी-दस्त हो रहे हैं और पिता भीगते हुए पब्लिक नल में सरे बाजार मुझे धो रहे हैं. इन दोनों घटनाओं का जिक्र उन्होंने अपने अंतिम समय तक अक्सर किया कि ऐसे पाला तुझे मैंने. ऐसी बातें सुनकर अपने भीतर से अपना ही कोई अनाम/अदृश्य हिस्सा बाहर निकल कर सजदे में गिर जाता है. और हो भी क्या सकता है. ऐसी बातों का कैसा ही जवाब देना न सिर्फ बेवकूफी है, बल्कि बदतमीजी भी. मैं एक आदर्श बेटा नहीं, मगर ‘राग दरबारी’ का छोटे पहलवान भी नहीं हो सकता जो अपने बाप कुसहर प्रसाद से कहता है कि हमने लिख कर तो दिया नहीं कि हमें पैदा करो. तो पिताजी महाराज, ऋणी हूँ तुम्हारा और इस ऋण से उऋण होने की कोई सूरत नहीं. न तुम्हारे जीते जी था, न आज हूँ किसी लायक. जब तक रहे तुम पर आश्रित था आज दोस्तों पर बोझ हूँ. इंसान के अंदर जो एक शर्म नाम की चीज होती है, जिसे गैरत भी कहते हैं, मैंने उसका गला तो नहीं दबाया पर हाँ, उसके होटों पर हथेली जरूर रखे हूँ. शर्म आती है लेकिन जान कर बेशरम बना हूँ. सच कहूँ तुम्हारे जाने के बाद स्थितियाँ ज्यादा खराब हुई हैं. परिस्थितियों के डार्क रूम में किसी नैनहीन सा फँसा पड़ा हूँ. कामचोर तो नहीं पर हाँ, एक हद तक निकम्मा जरूर हूँ.
लेकिन यह उऋण होने का खयाल मेरे मन में आ ही क्यों रहा है ? मैं तो इस खयाल से सहमत ही नहीं कि माँ-बाप के ऋण से कोई उऋण भी हो सकता है. क्या यह किसी लाले बनिये का हिसाब है, जिसे चुका दिया जाये ? हाँ,लाला बोले, कितना हिसाब बनता है तुम्हारा ? हाँ, यार ठीक है ‘वैट’ भी जोड़ो, डंडी मार लो, छीजन काट लो,औरों से दो पैसा ज्यादा लगा लो और कुछ ? हाँ, अब बोलो दो दिन देर क्या हुई यार कि तुमने तो चौराहे पर इज्जत उतार ली. लो पकड़ो अपना हिसाब और चलते-फिरते नजर आओ. आज से तुम्हारा हमारा कोई रिश्ता नहीं. अब ऋण तो कुछ इसी तर्ज में चुकता किया जाता है. क्या माँ-बाप से इस जबान में बात करनी चाहिये ? मैं तो नहीं कर सकता. क्यों न हमेशा उनका कर्जदार रहा जाये और एक देनदार की हैसियत से खुद को छोटा महसूस करते रहें. माँ की प्रसव पीड़ा और पिता का दस जिल्लतें झेल कर परिवार के लिये दाना-पानी जुटाने का मोल तुम चुका सकते हो नाशुक्रो कि उऋण होने की बात करते हो ?
शहर वही देहरादून, मोहल्ला चक्कूवाला या बकरावाला जैसा कुछ. पास में एक सूखा सा नाला या नदी है, जहाँ खास कर सुबह के वक्त सुअर डोलते हैं. कतार में मिट्टी गारे से बनी खपरैल की छत वाली चार-छः कोठरियाँ हैं. हर कोठरी में अलग किरायेदार रहता है. कोठरी के भीतर एक दरवाजा है, जो इस कोठरी को उस से जोड़ता है. यह दरवाजा अपनी-अपनी ओर सब बन्द रखते हैं. बाहर-भीतर जाने का दरवाजा अलग है. एक दिन माँ इस दरवाजे की झिर्री में हाथ डाल कर दरवाजे के उस ओर रखे कनस्तरों तक पहुँचने की कोशिश कर रही है. झिर्री काफी छोटी है, न उसका हाथ पहुँच पाता न मेरा. इस ओर कनस्तर खाली हैं. मुझे भूख लगी है, शायद माँ भी भूखी है. पिता कहाँ हैं, कनस्तर क्यों खाली हैं, पता नहीं. याद नहीं. इस चित्र के चित्रकार भी तुम्हीं हो पिता मेरे. इस तस्वीर को मैं नोंच कर फेंक नहीं सकता एलबम से. लेकिन यह सब कह कर आज तुमसे शिकायत नहीं कर रहा. ऐसा करके क्या फायदा. वैसे भी तुम कभी घरेलू मामलों में जवाबदेह रहे नहीं. सूचना का अधिकार तुम पर लागू नहीं होता था. शिकायत या कहो कि झुँझलाहट मुझे खुद पर है कि मैं इस चित्र का कोई रचनात्मक उपयोग नहीं कर पाया. तब से आज तक यह अनुभव दिमाग की हंडिया में बस खदबदा रहा है. मैं इसे दूसरों के आगे परोसने लायक नहीं बना पाया कि औरों की तृप्ति से मेरा असंतोष कम हो. ऐसी बातों को यूँ सपाटबयानी में कहने से दूसरों के दिलों में सिर्फ दया ही उपजती है जो कि अपने काम की नहीं. अब ऐसा भी नहीं कि हर चीज हमेशा काम की न होती हो,दया-ममता लड़कियों के भी तो नाम होते हैं.
(जारी)
शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’ प्रकाशित हो चुकी है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.
अगली क़िस्त : माफ़ करना हे पिता – 2
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