किसी गांव में एक बूढ़ी अपनी बहू के साथ रहा करती थी. बूढ़ी सास का शरीर जर्जर हो चुका था, वह अक्सर बीमार रहती थी. सास को हाथ-पाँव जवाब दे चुकने के बाद घर पर बहू का ही राज था. बुढ़िया की सेवा करना तो दूर कोई उसे खाने-पीने के लिए भी नहीं पूछता था, ठीक लगा दो रोटियाँ दाल दीं. अशक्त बुढ़िया खुद से न नाहा सकती थी न कपड़े धो सकती थी. लम्बे सामय से नहाती नहीं तो उसे बदन में खुजली महसूस हुआ करती. पीठ पर बहुत तेज खुजली होने पर वह अपनी बहू से याचना करती— ब्वारी पीठ में जोर की खुजली हो रही है जरा खुजला दे तो. लेकिन कौन सुने, बहू एक कान से सुनती दूसरे से निकाल देती. (Folklore of Uttarakhand)
बुढ़िया के बहुत चिल्लाने पर वह कहती तुम्हारे तो मुंह में भी बहुत खुजली हो रही है इसका क्या करूं? ‘अरे ब्वारी में इस खुजली से परेशान हो रखी हूं जरा खुजला दे’ सास के बहुत याचना करने के बाद वह उसके पास जाती लेकिन उसे नीचे झुकना अच्छा नहीं लगता, उसे सास की पीठ छूने के विचार से भी घिन आने लगती. तब वह अपने पैर से ही सास की पीठ खुजा देती. बुढ़िया बेचारी क्या करती, लाचारी में यह सब देखती, सहती रहती.
वक़्त के पैर नहीं पंख होते हैं. बहू के बाल-बच्चे हुए, पढ़-लिखकर नौकरी में लगे और उनकी शादी भी हो गयी. समय बीता और तब की बहू कब खुद सयानी होकर सास बन गयी पता ही नहीं चला. उसकी खुद की सास तो न जाने कब इस दुनिया से चल बसी.
इसी बूढ़ी उमर में जब वह भी हाथ-पांवों से लाचार हो गयी तो एक दिन अपनी बहु से बोली— बहू मेरे हाथ तो पहुँचते नहीं जरा मेरी पीठ खुजा दे तो. बहू ऐसे चटकी जैसे खौलते तेल की कड़ाही में किसी ने पानी की बूँदे छींट दी हों. बोली— मेरे से इतना नीचे तो झुका नहीं जाता, अब मेरे हाथ खड़े-खड़े तो पीठ तक पहुंचेंगे नहीं कहो तो मैं पैरों से खड़े-खड़े पीठ खुजला दूँ.
सास के सामने पुराना समय आ खड़ा हुआ, वह भी तो अपनी सास की पीठ पैर से खुजलाया करती थी. जब मैं बहू थी तो मैंने अपनी सास के साथ जो किया वो मैं अब खुद सास बनकर भोग रही हूं. वाकई लकड़ी की आग आगे से जलकर पीछे को ही आती है. (Folklore of Uttarakhand)
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