चौमासे की झुर-झुर ख़त्म होने के बाद का, भीगी खुनक लिए पहाड़ों का मौसम अपने परदेसियों को धाद (आवाज) देने लगता है. दोनों फसलें पक के तैयार होने लगती हैं. एक तरफ धान की पिंगलाई दूसरी तरफ कोदा (मंडुवा), झंगोरा (सावा), सतनाजे का सुनहरापन सीढ़ी दर सीढ़ी वाले खेतों को बीज शिशुओं के मुखर मौन से गुंजरित कर देता है. खुली नीलाई से जगमगाते आसमान में बादल का नन्हा छींटा भी पहाड़ी औरतों के दिलों में हौल पैदा कर देता है. ओले पड़ गए तो खड़ी फसल खेतों में ही बिछ जायेगी और कटी फसल में बारिश पड़ गयी तो फफूंद लग जाती है. पहाड़ में कहावत है, रोपाई हो रही हो या खेत में पकी फसल की कटाई चल रही हो लोग मुर्दे को घर में बंद कर पहले काम पूरा करते हैं तब उन्हें घाट जाने की सुध आती है. करे भी क्यों नहीं, यही तो उनकी कमाई होती है. इन दिनों धूप इतनी तीखी होती है कि दादी कहती थी, भादो के घाम (धूप) से तो फटाली (पत्त्थर) भी फूट जाती है. फसल की कटाई, मंडाई करने के बाद ही लोग चैन की साँस लेते हैं. (Folk Tale from Uttarakhand)
इन्हीं दिनों की बात है, एक घर में माँ-बेटी और उस घर की बहू मिल कर भरपूर दुपहरी में नाज की बालों के ऊपर बैलों को घुमा-घुमा के मंडाई कर रही थीं. घर की मालकिन बबूल से बनाये झाड़ू से बिखरता अनाज बटोर-बटोर के बैलों के पैरों के नीचे डालती जाती. भाभी ननद बैलों के साथ गोल-गोल घूमती जाती. भादो के चटकते घाम के तीखेपन से तीनों का मुंह तपने लगा. पसीना था कि टपाटप बहता जाता. बैलों के मुंह भीमल की रस्सी से बटे म्वाले (बैलों के मुंह बांधनेका जालीदार खोल) से बंधे थे जिसके कारण उन्हें हांफने में दिक्कत हो रही थी. दिन भर की मेहनत के बाद जब बालों से नाज निकल आया घर की मालकिन अपनी बेटी से बोली, दिन भर से बैल बहुत प्यासे हैं तू इन्हे धारे से पानी पिला ला. मै तेरे लिए लसपसी पाइस (खीर) बना के रखूंगी. माँ ने थकन से चूर बेटी को लालच दिया. पानी का धारा बहुत दूर था. बैलों के साथ लड़की भी दिन भर तपते घाम में घूम-घूम के बहुत थकी थी. दूर धारे तक जाने में अलसा गयी और आधे रास्ते से ही प्यासे बैलों को लौटा लाई. (Folk Tale from Uttarakhand)
ननद को जल्दी घर लौटती देख भाभी ने पूछा ननद बैलों को इतनी जल्दी पानी पिला लाई, पानी का धारा तो दूर है. बैलों के पैर भी गीले नहीं हैं. उसे शुबहा हुआ पर क्या करती. सीधे-सीधे ननद को टोकना उसे अच्छा नहीं लगा. ननद बिना कुछ बोले बैलों को ओबरे (गोठ ) में बांध आई. माँ ने खूब घी डली पाइस बेटी के सामने रखी पर बेटी वहां कहाँ थी. वो तो बैलों की प्यास बन के उनके सूखते गले में फंसी हुई थी. उसे खीर की कटोरी में पंदेरे की चाल (तालाब) थरथरा रही थी. उसके कानों को बैलों की प्यास गूँज रही थी. उसके बैलों की नदियाँ दम तोड़ रही थी.
वह उठी और सम्मोहित सी गोठ की तरफ चल दी. प्यास से बेहाल ठन्डे पड़े बैलों को बेजान छुअन से सहलाने लगी. खूंटे से बंधी रस्सी खोल कर बैलों को उठाने की कोशिश करने लगी. अधमुंदी आँखों की पुतलियों से दोनों बैलों ने अपनी जिन्दगी से आखिरी वक़्त को कातरता से समेटते हुए लडकी को सरापा – हमने सारी उम्र तुम्हारी सेवा की. तूने हमारी प्यास को नहीं समझा. जा तू भी एसे ही हमारी तरह प्यासी भटकेगी. तड़पेगी. जैसे ही पानी को मुंह लगाएगी, उस में तुझे हमारा खून नजर आयेगा. और बैल मर गए.
लड़की के लिए फिर कोई सुबह नहीं उगी. उसके सपनों से बाहर ठिठके वक़्त ने सारे समुन्दर सुखा दिए.
कहते हैं वह लड़की पंछी बन गयी. बैलों के सराप ने उसकी सरहदें तय कर दी थी. थाटें मारती-चिलचिलाती जेठ की दोपहरों में एक चिड़िया कातरता से पुकारती है – “सरग ददा पाणी दे, सरग ददा पाणी दे.”
जब भी वह जमीन में बहते पानी में चोंच डालने की कोशिश करती है वह खून-खून बन जाता है. बैलों ने लड़की को उसकी तरह प्यासा मरने का शाप नहीं दिया. उन्होंने कहा वे इन्सान जैसे कैसे हो सकते थे. बैलों ने कहा तू अपनी प्यास केवल आसमान से बरसते पानी से बुझा सकेगी. और आज तक शापित चोली (पपीहा) अपनी पीड़ा से मुक्त नहीं हो सकी. पुकारती जा रही है – “सरग ददा पाणी दे! पाणी दे!”
-गीता गैरोला
देहरादून में रहनेवाली गीता गैरोला नामचीन्ह लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्री हैं. उनकी पुस्तक ‘मल्यों की डार’ बहुत चर्चित रही है. महिलाओं के अधिकारों और उनसे सम्बंधित अन्य मुद्दों पर उनकी कलम बेबाकी से चलती रही है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगी.
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