आसमान को छेदती, नुकीली ऊँची-ऊँची बर्फीली चोटियों की तलहटी में देवदार,भोज और रिंगाल के हरे-भरे सघन जंगलों के बीच एक गहरे अनछुये उड्यार (गुफा) में कच्ची हल्दी के साथ गुलाबी बुरांस-सी रंगत वाली एक लडकी रहती थी. दूर-पास तक कोई मानुष जात नहीं. निपट अकेली. जंगल के पौन पंछी ,भौंरे, तितली, छोटे-बड़े पशु, पक्षी धरती पर लिपटे नन्हे फूल-पौधे, आसमान से लिपटते ऊँचे-ऊँचे तिकोने पेड़ ही उसके भाई बहिन, अपने-पराये थे. यही अपने उसे प्योंली कह के बुलाते.
सब उसकी बोली चीन्हते और वह सबके मन की जान लेती. रात-दिन झुरता चौमासा जब चारों दिशाओं को सफेदी से ढंक देता, उस घुप्प उदासी में भी सारे जंगल की बसासत हवा की हिलोरों के साथ सीटी बजा-बजा कर प्योंली-प्योंली गा-गा कर उसके साथ होने का अहसास दिलाते रहते.
सर्दियों के बर्फीले दिनों में प्योंली के हिस्से की बर्फ भी खुद ही ओढ़-बिछा लेते. नरम परों वाले पंछी अपने परों को बिछा कर प्योंली का बिस्तर बना देते. सारे जानवर गुफा के दरवाजे को घेर कर अपनी सांसों की गर्मी से प्योंली के लिए गुनगुना मौसम बनाये रखते. अपनी बोली में गीत सुना कर उसका मन बहलाते.
सर्दियां बीतने पर बसंत के आगमन से जंगल में जमी बर्फ जब सफ़ेद फेन उगलती छोटे-छोटे धारों में बंट कर बल खाती हुई नदियों से मिलने को आतुर हो जाती, सारा जंगल धूप के ताप की खुमारी में डूबा रंग-बिरंगे फूल खिला देता. दिन देहरी पर ठिठक जाता. भौंरे गुन-गुन की पुकार से प्योंली को गुफा से बाहर बुलाते. तितलियाँ अपनी सहेली का हाथ पकड के बड़े मान से रंगों की महक से महकती अपनी दुनिया में लातीं.
प्योंली उनके साथ कूदती अपने मन की छलांगें लगाती बन-बन गधेरे-गधेरे डोलती. एक दिन नदी के किनारे फेनिल पानी में पैर डुबोये वह मोनाल (ऊँचे पहाड़ों पर रहने वाला बहुत रंग-बिरंगा पंछी) के साथ कुछ गुनगुना रही थी.
तभी गधेरे के पारदर्शी पानी में कोइ परछाई झिलमिलाई. प्योंली ने पलट कर देखा. उसके पीछे एक युवक खड़ा था. वन्य पुष्पों के बीच खिली बनफसा-सी प्योंली को पनीली आँखों से देखता युवक सकपकाते हुए बोला – “बहुत प्यासा हूँ पानी पी लूं क्या?”
प्योंली पानी से पैर खींचते हुए परे हट गयी. लम्बे, ललाई रंगत वाले सुदर्शन युवक को एकटक देखते हुए उसने सोचा जरूर ये कोइ राजकुमार होगा. कुछ अनमनेपन से बोली – “यहाँ शिकार खेलने आये हो ना…”
युवक चुपचाप दोनों हथेलियों का छमोटा (ओक) बना कर पानी पीता रहा. कोई जवाब न मिलने से प्योंली उदास हो कर बोली – “तुम मानस जात हमेशा हम वनवासियों को ख़त्म करना जानते हो, बचाना नहीं.”
युवक बहुत थका हुआ है यह समझ कर प्योंली ने उसको बैठने की जगह दी.
“हाँ मै यहाँ शिकार के लिए ही आया हूँ पर रास्ता भटक गया. साथी कहीं दूर छूट गए” – चारों तरफ प्रकृति के अनछुए, अप्रतिम और अपार सौन्दर्य का रसपान करता हुआ युवक सम्मोहित हो बोला – “यहाँ कितनी सुखदाई शांति है. ऐसा मैंने पहली बार देखा. तुम लोग कितने सौभाग्यशाली हो. प्रकृति के इस निस्सीम विस्तार के बीच पंछियों के वृन्दगान के सहचर रहते हो. तुम्हारे और इनके बीच कोमल तान का रिश्ता है.”
प्योंली अपने भीतर के अज्ञात लोक से बाहर आई –“पर तुम तो राजमहल में रहते हो! वहां के जैसी सुख सुविधायें यहाँ कहाँ!”
एक आदिम राग में बंधे दोनों के बीच बहुत देर तक आवाजें तैरती रही .
साँझ की धूप पेड़ों की फुनगियों पर सिमटने लगी. युवक ने वह रात गधेरे के किनारे एक चौड़ी पठाल में बिताई. इधर बादलों की बाँहों में बंधा चाँद रात की पनीली आँखों में डबडबाता रहा. उधर गुफा के अन्दर लाखों तारों का आलोक झरता रहा. सन्नाटे थपकियाँ देते रहे. सूरज के घोड़ों की छलांग के साथ युवक ने प्योंली की हथेली में अपनी माया की आंच भर दी. दुनिया का सबसे सुरीला राग गाने के लिए, भरे मन से अपने सगे-सम्बन्धी वन,पौन, पंछियों से बिछुड़ कर प्योंली राजकुमार के साथ चल दी.
नए लोग, नया रहन-सहन, अनभोगी सुख सुविधायें और चाहतों की तितलियों की उड़ान ने प्योंली के मन के ओने-कोने को ऐपण से रंग दिया.
बस थोड़े दिनों के बाद ही पहले उसे अपने मोनाल याद आये फिर हौले-हौले सारे जंगल की क़ायनात ने प्योंली के आस-पास उदासी का घेरा डाल दिया. प्रियतम की लाख कोशिश के बाद भी प्योंली के पूरे बदन से गुलाबी बुरांश का रंग उतर गया ,कच्ची हल्दी के पीलेपन से महक ख़तम हो गयी. वह दिन पर दिन, पल-पल झूरती (कमजोर होती) रही.
प्रिय हर उपाय, हर इलाज कर के हार गया. दिन रात उसके सिरहाने बिताता रहा पर प्योंली की आंच छीरती रही. सुख के झरने सूख गए. और एक दिन असीम अंधेरों की गहराई में तैरते हुए अपने प्रिय का हाथ अपनी बर्फ से सर्द हथेलियों में दबा कर बोली – “ये राजमहल मेरे लिए नहीं थे. मुझे माफ़ कर देना. तुम्हारी माया की कदर नहीं कर पाई. मै जंगली फूल हूँ वहीं पनप सकती थी. मैं तो पेड़-दर-पेड़ बहती हुई आवाज थी. राजमहलों की दीवारों की कैद की घुटन में कैसे पनपती. यहाँ की खाद मिट्टी मेरे लिए नहीं है. मेरे मर जाने के बाद इस मिट्टी को उसी चोटी में दबा देना. आज के बाद किसी पशु-पक्षी का शिकार मत करना. वे सब मेरे संगी-साथी हैं.”
राजकुमार बौरा गया. उसने प्योंली को उसी चोटी में दफनाया जहाँ वह उसे मिली थी. बसंत ऋतु आते ही वहां पर पीले रंग का फूल खिल गया. पूरे जंगल के पेड़-पौधों ने, पौन-पंछियों ने झूम-झूम कर, मोनाल के सुर में सुर मिला कर गीत गाये और उस पीले फूल का नाम प्योंली रख दिया.
तब से पहाड़ी खेतों की मेंड़ों पर जंगल के कोने कोने पीली प्योंली के गुच्छों से लहलहाते बसंत के आने की, और जंगल में प्योंली की चहलकदमी की गवाही देते हैं.
आज भी पहाड़ की जो बेटियां मायके नहीं जा पातीं, मुंडेर पर खिली प्योंली के गले लग अपनी खुद (याद) बिसारती हैं.
-गीता गैरोला
देहरादून में रहनेवाली गीता गैरोला नामचीन्ह लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्री हैं. उनकी पुस्तक ‘मल्यों की डार’ बहुत चर्चित रही है. महिलाओं के अधिकारों और उनसे सम्बंधित अन्य मुद्दों पर उनकी कलम बेबाकी से चलती रही है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगी.
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वाह, प्योली को जाना और समझा आज। गीता गैरोला जी की लेखनी का जवाब नही। इस तरह पिरोई गई है कहानी कि जब तक पूरी न पढ़ लो छोड़ नही सकते
सुन्दरकहानी के कथ्य को आदरणीया गीता गौरेला जी को साधुवाद
राम दत्त तिवारी अजेय
महोबा पिन 210427 उ.प्र.
क्या कहने ... भावुक कर दिया