गर्मियों का सीजन शुरू होते ही पहाड़ के गाड़-गधेरों में मछुआरें अक्सर दिखने शुरू हो जाते हैं. यद्यपि वे पेशेवर मछुआरे नहीं होते बल्कि शौकिया तथा शाम की सब्जी के जुगाड़ में मछली पकड़ने की तरह-तरह की जुगत करते हैं. इनमें वे लोग भी शामिल होते हैं, जो बाजार से मछली खरीदकर खाने की सामथ्र्य नहीं रखते अथवा खेतों में इस समय सब्जी न होने से वैकल्पिक रूप में मछली का ’झोव’ बनाकर किसी तरह गुजर बसर कर रहे होते हैं.
(Fishing Angling in Uttarakhand)
जाल फैंककर मछली पकड़ना अथवा बल्सी के सहारे मछली पकड़ना एक परम्परागत तरीका है. बुने हुए जाल में लोहे के रिंग लगे होते है, जिससे जाल आसानी से पानी में डूब जाता है. मछुआरा पहले उस तालाब की तलाश करता है, जहाॅ बड़ी व बहुतायत से मछलियां हों. जाल की बुनावट कुछ इस तरह होती है, कि मछलियां उससे बाहर न निकल सकें और जाल खींचने में बड़ी मछलियां इसमें फंस जाय और छोटी मछलियां जो मतलब की नहीं होती, इससे बाहर निकल सकें. इसका एक फायदा यह है, कि छोटी मछलियां अकाल मौत के ग्रास होने से बच जाती है.
बल्सी से मछली मारने का तरीका भी प्रायः सभी जगह प्रयोग में लाया जाता है. लम्बी और पतली लचकदार बांस की डण्डी के सिरे पर नाइलॉन के तार को बांधा जाता है, जिसे गट्टा कहते हैं. इस नाइलॉन के तार के दूसरे सिरे पर हुक नुमा कांटा लगा होता है, जिस पर गुथे हुए आटे का एक गोला लगा दिया जाता है, मछली ज्यों की आटे को खाने के लिए अपना मुंह खोलती है, उसका मुंह कांटे में बुरी तरह फंस जाता है और मछुआरा एक झटके में बल्सी खींचकर ऊपर को उछालता है, जिससे कांटा उसके गलफड़ों में फंस जाता है,और मछुआरे को आसानी से मछली पकड़ में आ जाती है.
लेकिन पहाड़ों में मछली पकड़नेके लिए इससे इतर भी कई तरीके अपनाये जाते हैं. गांव के कुछ नौजवान युवक घन के साथ पथरीले गधेरों पर जाते हैं. उन्हें जब आभास होता है कि अमुक पत्थर के नीचे मछलियां हो सकती हैं तो वे जोर-जोर से उस पत्थर के ऊपर घन का प्रहार करते हैं और तीन-चार घन के प्रहारों से मछलियां उलटी होकर बाहर निकल आती हैं. लेकिन इसमें कई छोटी-छोटी मछलियां भी मर जाया करती हैं, ऐसी छोटी मछलियों मछुआरे भी उपयोग नहीं कर पाते.
(Fishing Angling in Uttarakhand)
पहाड़ों के गधेरे प्रायः ढलानों पर होते हैं ऐसे में मछुआरे समूह में रहते हुए, पहले उस जगह का जायजा लेते हैं, जहांपर पानी के ठहराव (खाव) में मछलियों की अधिक संख्या में होने का अंदेशा होता है. फिर मछुआरों का समूह उस खाव के पानी का स्रोत बन्द कर पानी को दूसरी ओर डायवर्ट कर देते हैं और पुराने खाव के निकास पर घास-फूस डालकर इस तरह की व्यवस्था कर देते हैं कि पानी तो घास-फूस से सरक जाय लेकिन मछलियां उसी घास में अटक कर बह न सकें. इस प्रकार पानी डायवर्ट कर जब उस खाव में आने वाले पानी का स्रोत पूर्णतया बन्द हो जाय तो खाव की मछलियों को मारने के लिए रामबांस कूटकर उसका रस उस खाव में घोल देते हैं, जिससे कुछ ही देर में मछलियां नशे से सतह पर तैरने लगती हैं और पकड़ ली जाती हैं. कई लोग अखरोट की पट्टियों को कूटकर भी मछली मारने में इसका प्रयोग करते देखे गये हैं. इस प्रकार मारी गयी मछलियों को समूह में शामिल युवकों में बराबर का हिस्सा कर बांट लिया जाता है.
मछली मारने का एक बेहद निकृष्ट तरीका है- कारतूस डालकर मछली मारना. गधेरे में जहां पर पानी के ठहराव से तालाब बन जाता है, जिसे स्थानीय भाषा में खाव कहा जाता है, वहां मछलियां अधिक पायी जाती हैं. मछुआरे उस तालाब में कारतूस का विस्फोट कर मछली मारने का दुस्साहस करते हैं. दुस्साहस इसलिए कि इस प्रकार के मत्स्य आखेट पर प्रतिबन्ध है क्योंकि इससे उस तालाब में मौजूद पूरे मत्स्य वंश का विनाश हो जाता है. फिर भी चोरी-छिपे लोग अपनी इस आदत से बाज नहीं आते. इसी से मिलता जुलता एक तरीका तालाब में बिजली का करंट डालने का भी है, लेकिन इस तरह की आखेटबाजी में कभी-कभी आखेटक स्वयं ही शिकार हो जाया करते हैं.
तरीके जो भी, मत्स्य आखेट शौकिया हो अथवा मांसाहार की तलब में, दूसरे की जान पर खेलकर अपना शौक पूरा करना अथवा भूख शान्त करना कैसी इन्सानियत है? कुदरत ने तो हर चीज अपने हिसाब से व्यवस्थित की है. सोचिये, मछलियां खुद तालाब का प्रदूषण आत्मसात् कर हमें स्वच्छ जल उपलब्ध करा रही हैं, और हम उन्हीं के शिकार पर आमादा है.
(Fishing Angling in Uttarakhand)
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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