एक लेखक के बतौर मंटो की कहानियों को अपने नैरेटिव का हिस्सा बनाती इस फ़िल्म का क्राफ्ट इसकी सबसे बड़ी ख़ूबी के रूप में उभरता है, मेरी नज़र में. फ़िल्म के धारदार संवाद हों, नवाजुद्दीन, रसिका दुग्गल, राजश्री देशपांडे, तिलोत्तमा शोम, ताहिर भसीन और दिव्या दत्ता जैसे तमाम बेहतरीन एक्टर्स की अदाकारी हो, या कि एक पीरियड फ़िल्म के लिहाज़ से सेट और मेकअप तक के तमाम आयाम हों, फ़िल्म बेहद ख़ूबसूरती से ख़ुद को एक्सप्लोर करती है.
-विभावरी
‘मंटो’, कहानी सिर्फ मंटो की नहीं बल्कि देश के विभाजन की भी है. देश को बांटने वाली उस ज़ेहनियत की भी है, जो जनता को बाँट कर तमाशा देखने में भरोसा करती है… यह फ़िल्म जितने अधिकार से देश की आज़ादी और विभाजन के दौर की बात करती है, नेपथ्य से आज के समय का सच उससे थोड़ा भी कम ध्वनित नहीं करती.
मसलन पाकिस्तान में पूछे जा रहे सवाल “गांधी को किसने मारा?” का जवाब “किसी हिन्दू ने मारा!” या कि मंटो के अभिनेता दोस्त श्याम चड्ढा और मंटो का देश छोड़ते वक़्त क्रमशः ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद!’ और ‘हिन्दुस्तान ज़िंदाबाद!’ के नारे लगाना… आज भी दोनों देशों के नागरिकों को देशद्रोही घोषित करा देने के लिए काफ़ी है.
एक लेखक के बतौर मंटो की कहानियों को अपने नैरेटिव का हिस्सा बनाती इस फ़िल्म का क्राफ्ट इसकी सबसे बड़ी ख़ूबी के रूप में उभरता है, मेरी नज़र में. फ़िल्म के धारदार संवाद हों, नवाजुद्दीन, रसिका दुग्गल, राजश्री देशपांडे, तिलोत्तमा शोम, ताहिर भसीन और दिव्या दत्ता जैसे तमाम बेहतरीन एक्टर्स की अदाकारी हो, या कि एक पीरियड फ़िल्म के लिहाज़ से सेट और मेकअप तक के तमाम आयाम हों, फ़िल्म बेहद ख़ूबसूरती से ख़ुद को एक्सप्लोर करती है.
फ़ैज़ की नज़्मों का सुन्दर इस्तेमाल, फ़िल्म के लिए चुनी गयी मंटो की कहानियां और फ़िल्म नैरेटिव में गूंथा गया उनका क्रम, फ़िल्म की प्रभावोत्पादकता में इज़ाफ़ा करते हैं.
बेशक़ फ़िल्म और अच्छी हो सकती थी. पर मुझे लगता है कि इस फ़िल्म को समझने के लिए मंटो का ईमानदार पाठक होना भी एक ज़रूरी शर्त जैसा ही है. अपनी सम्पूर्णता में यह फ़िल्म मंटो की कहानियों के तमाम किरदारों के साथ मिलकर जिस मंटो को रचती है वह हमारे साहित्यिक परिवेश में बसे मंटो का अक्स भले न हो, पूरक ज़रूर है.
मुझे लगता है विभाजन के जिस दर्द को मंटो की कहानियां बयां करती हैं वह दर्द मंटो की जिस सख़्सियत से उपजा है यह फिल्म हमें ठीक उसी मंटो से रु-ब-रु कराने की चाह रखती हुई फिल्म है.
…और मंटो खीझ कर कह उठता है, “जब मज़हब दिलों से निकलकर सिर पर सवार होने लगे तो दो टोपियां रखनी पड़ती हैं, एक हिन्दू वाली और दूसरी मुसलमान वाली.” अपने आप में यह संवाद उस साम्प्रदायिक सोच पर कितना गहरा व्यंग्य है जिससे ये दोनों ही मुल्क आज़ाद न हो पाए आज तक! मंटो जिसकी ‘रूह’ देश के विभाजन के बाद भी यहीं रह गयी… इसी हिन्दुस्तान के बम्बई शहर में! बम्बई शहर, जिसका कर्ज़दार रहना चाहता था वह तमाम उम्र। …जिससे उखड़ कर वह फिर बस न पाया!
उसकी पहचान उसका मज़हब न था कतई. क्योंकि शराब ने उसे मुसलमां भी कहाँ रहने दिया था!! लेकिन ख़ुद की नज़र में “वह इतना मुसलमां तो था कि विभाजन के बाद उसे मारा जा सके इस देश में!” लेकिन मार दिया जाना भी उसका डर न था बेशक़!
डर था गर तो इस बात का कि जिस वतन की मिट्टी में न सिर्फ उसकी अम्मी, अब्बू और बड़े बेटे की यादें दफ़न थीं बल्कि उसकी ख़ुद की पहचान भी इसी मिट्टी से जन्मी थी, उस वतन के मज़हबी चेहरे को वह बर्दाश्त न कर पाता शायद! बावजूद इसके कि उसके अफसानों ने दोनों ही देशों के उसी मज़हबी चेहरे के तमाम रंगों और दर्द को बयां किया और क्या ख़ूब किया!
नंदिता दास को बधाई कि उन्होंने आज के घोर साम्प्रदायिक समय में एक गैर साम्प्रदायिक मैसेज से भरी फिल्म न सिर्फ बनाई बल्कि उसे रिलीज़ करा पाने का साहस रखा.
फ़िल्म के आख़ीर में ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’ सुनते हुए मैं इतनी खो गयी कि हॉल खाली होने तक बैठी ही रह गयी सीट पर. हलांकि पूरे ऑडी में मुझे मिलाकर कुल बारह लोग थे. लेकिन मेरे लिए यह संख्या भी कम नहीं ‘मंटो’ जैसी साहित्यिक अभिरुचि की फिल्म के लिहाज़ से.
विभावरी, ‘गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय’ में सिनेमा स्टडीज़ पढ़ाती हैं.
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