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झूठा है झूठी ख़बरों की खबर लेने का फेसबुक का दावा

जबसे कैंब्रिज एनालिटका और फेसबुक का चुनावी घोटाला खुला है, फेसबुक के मार्क जकरबर्ग बार बार कह रहे हैं कि उनकी कंपनी फेक न्यूज और अफवाहों से लड़ने के लिए अपनी तकनीक विकसित कर रही है. जब अमेरिकी कांग्रेस ने यह पूछा कि इस तकनीक को विकसित करने की अंतिम तारीख बताइए तो मार्क जकरबर्ग ने उन्हें जवाब दिया कि इसमें महीनों लगेंगे. मामला खुले अब एक साल होने को आए हैं, लेकिन मार्क जकरबर्ग ने फेसबुक पर सिवाय थर्ड पार्टी चेक लगाने के ऐसा और कोई भी मैकेनिज्म तैयार नहीं किया है, जिससे फेक न्यूज पर रोक लग सके. अपने यहां भारत में तो फेसबुक ने न तो फेक न्यूज पर किसी तरह की कोई रोक लगाई है और न ही फेक न्यूज फैलाने वालों पर ही कोई रोक लगाई है. भारत के चुनाव आयोग से फेसबुक ने ये तो कह दिया है कि वह मतदान के दो दिन पहले अपने प्लेटफॉर्म पर चुनावी चकल्लस रोक देगा, लेकिन फेसबुक ऐसा कैसे करेगा, उसे खुद ही नहीं पता है.

इंडिया 272 प्लस, शंखनाद, पोस्टकार्ड न्यूज, सोशल तमाशा, द इंडिया आई, डार्क ट्वीट्स फ्रॉम लिबरल बेसमेंट जैसे फेक न्यूज के सैकड़ों पेज अभी भी फेसबुक पर धड़ल्ले से फेक न्यूज और अफवाह फैलाने का काम कर रहे हैं, लेकिन फेसबुक इनपर किसी तरह की कोई रोक नहीं लगा रहा है. उल्टे हो यह रहा है कि सही खबरें देने वाली वेबसाइटों को फेसबुक पर से ब्लॉक किया जा रहा है. इन्हीं बातों को लेकर सीएनएन के रिपोर्टर ऑलिवर डैरसी ने फेसबुक के न्यूज फीड हेड जॉन हेगमैन से बड़ा सही सवाल पूछा. उन्होंने पूछा कि अगर फेसबुक सच में अफवाहों और फेक न्यूज से लड़ने के लिए सीरियस है तो इस तरह के फेक न्यूज फैलाने वाले अकाउंट्स अभी तक फेसबुक पर क्या कर रहे हैं? आप चेक करेंगे तो पाएंगे कि इंडिया 272 प्लस, शंखनाद, पोस्टकार्ड न्यूज, सोशल तमाशा, द इंडिया आई, डार्क ट्वीट्स फ्रॉम लिबरल बेसमेंट जैसे फेक न्यूज के सैकड़ों पेजों को फॉलो करने वालों की संख्या हजारों लाखों में है. जवाब में जॉन हेगमैन ने जो कहा, उससे आपकी चिंता और बढ़ने वाली है. उन्होंने कहा कि फेसबुक फेक न्यूज को नहीं हटाता.

लेकिन इसके आगे हेगमैन ने जो कहा, वह तो दुनिया को, सच को और लोकतंत्र को पूरी तरह से गड्ढे में धकेलने वाली बात है. उन्होंने कहा कि फेक न्यूज कम्यूनिटी स्टैंडर्ड को वॉयलेट नहीं करतीं और न ही फेक न्यूज फैलाने वाले ऐसे पेज हमारे समाज का ऐसा कोई नियम तोड़ते हैं, जिसके लिए कि उन्हें ब्लॉक किया जाए. एक बार फेसबुक पर चेक करिए तो आप पाएंगे कि इंडिया 272 प्लस, शंखनाद, पोस्टकार्ड न्यूज, सोशल तमाशा, द इंडिया आई जैसे फेक न्यूज फैलाने वाले फेसबुक पेज रोजाना ढेर सारी फेक न्यूज पोस्ट कर रहे हैं, लेकिन उनपर कोई रोक नहीं लगी है.

यह बात बिलकुल नहा धोकर साफ है कि फेसबुक भारत में किसी तरह की फेक न्यूज पर रोक लगाने नहीं जा रहा है. उसने जो थर्ड पार्टी चेकर लगाया भी है, वह उन्हीं खबरों को छूट देता है जो सब जगह होती हैं. लेकिन ऐसी खबरें, जो एक्सक्लूसिव होती हैं, उन्हें यह थर्ड पार्टी चेकर फेक न्यूज साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता. मसलन जज लोया की मौत की जो खबरें चलीं, हम जानते हैं कि मेन स्ट्रीम मीडिया ने उन्हें हम लोगों को न दिखाने के लिए पूरी कमर कसी और नहीं दिखाईं. आज की तारीख में जज लोया की मौत से जुड़ी न्यूज फाइलें जब फेसबुक पर डाली जाती हैं तो बीजेपी की ट्रॉल आर्मी उन्हें रिपोर्ट करती है. चूंकि वह खबरें मेनस्ट्रीम मीडिया में सभी जगहों पर नहीं मिलतीं, इसलिए उन्हें फेसबुक डाउन कर देता है. इस वजह से देश के इतने बड़े मामले से जुड़ी खबरें अधिकतर लोग न तो देख पाए और न ही जान पाए. इसी तरह से आदिवासियों के साथ जो घटनाएं होती हैं, मेनस्ट्रीम मीडिया उन्हें कवर नहीं करता. लेकिन जो लोग उन्हें कवर करते हैं, फेसबुक उन्हें फेक न्यूज कैटेगरी में डाल देता है.

देश के कई पत्रकारों को भी फेसबुक ने टारगेट कर रखा है. मसलन एनडीटीवी के रवीश कुमार और खुद मैंने भी जब फेसबुक के फ्री बेसिक्स के गोरखधंधे के खिलाफ आवाज उठाई और लोगों को समझाना शुरू किया कि फ्री बेसिक्स के तहत कैसे फेसबुक और अंबानी मिलकर ठगी का नया धंधा लाने जा रहे हैं तो हमारी फेसबुक रीच 80 प्रतिशत तक कम कर दी गई. उस वक्त मैंने इस मामले को लेकर इंग्लैंड में गैरी मैक्किननन से बात की थी. गैर मैक्कनिन स्कॉटिश हैं और हैकिंग के इतिहास में पहले सबसे बड़े हैकर माने जाते हैं जिन्होंने सन 2002 में दुनिया की सबसे बड़ी मिलिट्री हैकिंग की थी और अमेरिकी सेना के कई कंप्यूटर्स हैक किए थे. गैरी ने बताया कि वह खुद फेसबुक पर ब्लॉक हैं और फेसबुक पर उनके हजार से ज्यादा दोस्त नहीं हैं. लेकिन उसके बावजूद कोई भी उन्हें फ्रेंड रीक्वेस्ट नहीं भेज सकता है. अभी वह जेल से बाहर हैं, लेकिन बेहद डरे हुए हैं, इसलिए उन्होंने इस बारे में सीधे-सीधे कुछ भी बात करने से मना कर दिया, अलबत्ता इतना जरूर कहा कि वह कतई नहीं मानते कि यह प्लेटफॉर्म सुरक्षित है. खैर, मैंने फेसबुक की इसी अघोषित बदमाशी के चलते फेसबुक हमेशा के लिए छोड़ दिया और उस वक्त रवीश कुमार को भी यही राय दी थी. अभी का हाल जानने के लिए रवीश कुमार को फोन मिलाया गया, लेकिन उन्होंने फोन नहीं उठाया. शायद अब वह भी फेसबुक के कीड़े हो चुके हैं कि जो जब तक फेसबुक को अच्छे से चाट न ले, उसे चैन नहीं मिलेगा. मेरा मानना है कि जिसे भी सही खबर जानने की ख्वाहिश होगी, वह मेहनत करेगा, सर्च करेगा, चार जगहों पर जाकर चीजों को पढ़ेगा या देखेगा. और जिसे सही खबर जानने की इच्छा नहीं होगी, वह इसी तरह से इंडिया 272 प्लस, शंखनाद, पोस्टकार्ड न्यूज, सोशल तमाशा, द इंडिया आई जैसे फेक न्यूज फैलाने वाले फेसबुक पेजों पर जा जाकर लाइक कमेंट और शेयर करता रहेगा. वह सच जानने के लिए मेहनत बिलकुल नहीं करेगा.

फेक न्यूज का किला बन चुके फेसबुक को छोड़ने के लिए मैं कई बार लोगों को समझा चुका हूं, लेकिन देखता हूं कि भारत में लोगों पर झूठ खाने और पचाने से कोई फर्क नहीं पड़ता. इसकी सीधी वजह यही है कि अभी अपने यहां लोकतंत्र को आए सिर्फ 70 साल हुए हैं और भारत के लोगों की सोच न तो लोकतंत्र को लेकर साफ हो पाई है और न ही सच को लेकर और न ही अपनी खुद की सुरक्षा को लेकर. लेकिन अमेरिका में लोकतंत्र हमसे कहीं ज्यादा पुराना है और गनीमत है कि वहां पर काफी लोगों की सोच लोकतंत्र को लेकर साफ है. इसी महीने, यानी कि सितंबर 2018 में वहां पर प्यू रिसर्च सेंटर वालों ने एक सर्वे कराया है, जिससे वहां पर साफ लोकतांत्रिक सोच बिलकुल साफ दिखाई पड़ती है. आपको बता दें कि प्यू रिसर्च सेंटर वही है, जिसने अपने यहां नोटबंदी के बाद सर्वे कराया था, जिसमें काफी लोगों ने नरेंद्र मोदी की सरकार में आस्था व्यक्त की थी. इसके बाद पिछले साल भी इसके सर्वे में देश के आर्थिक हालात में लोगों की बड़ी आस्था दिखाई गई थी और इसी महीने फिर से इसकी नई रिसर्च सामने आई है, जिसमें बताया गया है कि लोगों का देश के आर्थिक हालात में अब भरोसा नहीं रह गया है.

तो फेसबुक के बारे में प्यू की ताजी रिसर्च कहती है कि अमेरिका की तकरीबन आधी आबादी अब फेसबुक पर बिलकुल भरोसा नहीं करती है. सन 2017 से लेकर अभी तक यानी कि सितंबर 2018 तक वहां के 42 प्रतिशत लोगों ने फेसबुक से किनारा कर लिया है. प्यू के सर्वे में शामिल 26 प्रतिशत लोगों ने बताया कि उन्होंने अपने मोबाइल फोन से फेसबुक डिलीट कर दिया है. 54 प्रतिशत लोगों ने फेसबुक पर अपनी प्राइवेसी सेटिंग बदल डाली है और इन सबमें से 74 प्रतिशत लोग ऐसे रहे, जिन्होंने माना कि उन्होंने इन तीनों एक्शन में से कोई एक एक्शन लिया है. इस सर्वे की जो सबसे खास बात है, वह ये कि युवाओं ने सबसे ज्यादा फेसबुक के खिलाफ मोर्चा खोला है. 18 से 49 साल के लोगों ने सबसे ज्यादा फेसबुक डिलीट किया है या फिर उसकी प्राइवेसी सेटिंग बदली है या फिर फेसबुक का इस्तेमाल कंप्यूटर या मोबाइल या लैपटॉप पर करना बंद कर दिया है. लेकिन बात बुजुर्गों की करें, जिनके कंधे पर हम युवाओं को रास्ता दिखाने की जिम्मेदारी है तो वह फेक न्यूज, अफवाह और प्राइवेसी को लेकर सबसे ज्यादा लापरवाह निकले हैं. 50 से 65 साल के लोगों में महज 33 प्रतिशत लोगों ने ही फेसबुक से किसी भी रूप में किनारा किया है, बाकी के 67 प्रतिशत लोग पहले की ही तरह फेसबुक पर बने हुए हैं और पहले की ही तरह फेक न्यूज और अफवाहों के साथ खड़े हुए हैं.

 

दिल्ली में रहने वाले राहुल पाण्डेय का विट और सहज हास्यबोध से भरा विचारोत्तेजक लेखन सोशल मीडिया पर हलचल पैदा करता रहा है. नवभारत टाइम्स के लिए कार्य करते हैं. राहुल काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.

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