समाज

नैनीताल के डुट्याल व उनसे जुड़े रोचक किस्से

डुट्याव या डुट्याल शब्द जेहन में आते ही एक बेवकूफ, बेशऊर, बदनुमा से इन्सान का चित्र उभरता है- पसीने से तर-बतर, बोझ तले दबे अंगुलियों के पोरों से माथे के पसीने को झाड़ता, चूड़ीदार पैजामा, लम्बे से कुर्त्ते के ऊपर मैला-कुचैला काला कोट, पैरों में टायरशूल के चप्पल,  सिर पर मैल से चमकती नेपाली टोपी अथवा बेतरतीब बिखरे बाल और कन्धे पर बोझा ढोने के लिए करीने से बंधी रस्सी और तन से मैल व पसीने की मिली जुली गन्ध। बड़ी हीनता का भाव होता जब कोई कहे कि तू डोट्याल का डोट्याल ही रहा.
(Dutiyal Article by Bhuvan Chandra Pant)

ठीक वैसे ही जैसे किसी से कहा जाय- तू गधा का गधा ही रहा.’’ यानि डोट्याल और गधा इन्सान व जानवरों में सबसे निकृष्टता का पर्याय बना दिया गया. जाहिर है दोनों का उपयोग ज्यादातर बोझा ढोने के रूप में किया जाता है. ये बात अलग है कि अपना काम निकालने के लिए या उसे खुश करने के लिए हम उन्हें राजा, बहादुर या मेट जैसे उपनामों से संबोधित कर दें लेकिन इन नामों में भी अन्दर से फीलिंग डुट्याल की ही आती है.

शारीरिक श्रम के प्रति हमारी विकृत मानसिकता का इससे अच्छा उदाहरण कोई हो नहीं सकता. ईज्जत, दौलत और शोहरत की दुनियां से कोसों दूर, किसी से कोई शिकवा-गिला नहीं, डुट्याल, दो रोटी पेटपाल से ज्यादा कुछ अपेक्षा भी नहीं करता और पसीने की कमाई पर ही विश्वास करता है. बावजूद इसके गलत तरीके से कमाई करने वाले हमारे समाज में प्रतिष्ठा पाते हैं और नेकी, ईमानदारी और पसीना बहाकर अपना पेट पालने वाला डुट्याल उपहास का पात्र बना दिया जाता है. हर एक को ’हुजूर’ से संबोधित कर जैसे वह अपनी हीनता को स्वयं स्वीकार कर लेता है.

द्वाराहाट के निवासियों को जिस प्रकार दोर्याव,  सोर घाटी के वाशिन्दों को सोर्याव कहा जाता है, ठीक उसी प्रकार नेपाल के डोटी जिले के लोगों को डुट्याव कहा जाता है. च्यूंकि नेपाल का सीमावर्ती जिला डोटी जिला उत्तराखण्ड के करीब पड़ता है, इसलिए ज्यादातर नेपाली मेहनत मजदूरी के लिए इसी जिले से हिन्दुस्तान विशेष रूप से उत्तराखण्ड व उत्तर प्रदेश की ओर आते हैं, इन्हें डोटी से आने के कारण डुट्याव कहा गया, लेकिन अब तो हर नेपाली को हम डुट्याव या डुट्याल कह देते हैं.

मैदानी क्षेत्रों से ज्यों ही आप सरोवर नगरी नैनीताल में प्रवेश करते हैं, तो तल्लीताल बस स्टैण्ड से पहले ज्यों ही बस चढाई चढ़ते समय अपनी गति धीमी करती हैं तो कुछ अजीब सी वेशभूषा वाले आपकी बस की खिड़कियों पर लपकेंगे और बस रूकते ही खिड़की से अपना टोकन आपको थमाने लगेंगे. यदि आपने टोकन लेने में ना-नुकुर भी की तो जबरन खिड़की से आपकी गोद में टोकन फैंक देंगे. उनके दूसरे साथी जो खिड़की पर लपकने में उतने फुर्तीले नहीं हैं, वे बस की छत पर चढ़कर आपका सामान बिना कहे उतारने में देरी नहीं करेंगे. बस, उन्हें इन्तजार रहेगा बस से उतरने वाले यात्री का जो सामान को अपना बता सके. यदि आपके पास टोकन पहले ही पहुंच चुका है तो उतारे गये सामान पर कब्जा टोकनधारी का और उसकी सामान उतारने की मेहनत बेकार गयी अन्यथा बस से उतारे गये सामान पर कब्जा उसका. चौंकियेगा नही! ये कोई चोर उचक्के नहीं जो आपका सामान झपट लेगें, इन्हें तो बस आपके सामान की ढुलाई का मेहनताना लेना है. स्थानीय भाषा में इन्हीं कुलियों को डुट्याव या डुट्याल कहा जाता है.

इनके पास अन्य कार्यों की ’स्किल’(दक्षता) तो नहीं होती, लेकिन बोझा ढोने में इनका कोई सानी नहीं. इसीलिए पर्वतारोहण जैसे जोखिमपूर्ण अभियान में पोर्टर के रूप में इन्हीं की सहायता ली जाती है. पर्वतारोहण अभियान में शेरपा के नाम से संबोधित किये जाने वाले ये अभियान दल के प्रमुख सहयोगी हुआ करते हैं. इनका बोझा ढोने का भी अपना मनोविज्ञान है. जब बोझ भारी होता है तो उस पर एक और पत्थर रखकर, उसे और भारी कर देते हैं और कुछ दूर भारी बोझ को ढोकर फिर पत्थर गिराकर बोझ को हल्का महसूस करने की इनकी अपनी सोच है.
(Dutiyal Article by Bhuvan Chandra Pant)

खैर! इस विषय पर ज्यादा गम्भीर न होते हुए डुट्यालों के कुछ रोचक किस्से साझा करना चाहॅूगा. बात नैनीताल की ही है. मेरे एक मित्र अपनी रिश्तेदारी में मिलने नैनीताल पहुंचे. तल्लीताल बस स्टैण्ड पर उतरे तो डुट्याल से टोकन लेकर अपना सामान उन्हें थमा दिया. स्नोव्यू जाने की मजदूरी तय हुई और एक पर्चे पर स्नोव्यू पहुंचने का पता उसे देकर चल दिये अपने गन्तव्य को. यूं भी अगर टोकन न भी लिया तो डुट्यालों पर पूरा भरोसा तो किया जा सकता है कि आपका सामान कहीं नहीं जाने का. सामान के साथ वह डुट्याल भी धीरे-धीरे उनके पीछे चल दिया. बोझ के कारण उसका पिछड़ना स्वाभाविक था. वह मित्र मेहमानदारी में उनके घर पहुंच  गया. चाय-पानी हुआ, दिन का खाना हुआ लेकिन वह डुट्याल अभी तक नहीं पहुंचा. जब शाम ढलने को आयी तो उसे लगा कि शायद डुट्याल रास्ता भटक गया. पूरे इलाके को छानता हुआ मल्लीताल नगरपालिका दफ्तर पहुंचा, जहॉ से कुलियों को टोकन जारी किये जाते हैं. छानबीन पर टोकन नंबर से उसका नाम पता चला शेर बहादुर. च्यूंकि शक्ल सूरत तो याद थी नहीं तो नगरपालिका के दस्तावेज से कुली का फोटो अपने मोबाइल पर ले लिया. मालरोड तलाशते तल्लीताल डांट तक पहुंच गया. हर डुट्याल के मिलने पर अपनी जेब से मोबाइल निकालता और शक्ल मिलाने लगता. ज्यों ही तल्लीताल बस स्टैण्ड पर पहुंचा सामने की दीवार पर सामान का गट्ठर दिखा. पहचानने में देर न लगी कि यह सामान उसका अपना है. तब तक दूर बैठा वह डुट्याल मुस्कराते हुए लपककर उसकी तरफ आ गया. सामान न पहुंचने से उसका गुस्सा सातवें आसमान पर था लेकिन डुट्याल की मुस्काराहट ने उसके गुस्से को एक क्षण में शान्त कर दिया. उस डुट्याल के चेहरे पर सामान के मालिक के मिलने की जो चमक थी, वह शब्दों में बयां नहीं की सकती. दिन भर बोझ के साथ घर-घर तलाशते उसकी कितनी फजीहत हुई होगी और एक बोझ के पीछे पूरे दिन की दिहाड़ी जाने का कोई गम उसके चेहरे पर नहीं झलक रहा था बल्कि उसका चेहरा बता रहा था जैसे उसे खोया खजाना मिल गया हो. दरअसल हुआ यह कि जिस कागज पर पता लिखा गया था, वह उससे कहीं गिर गया था, फिर भी वह दिनभर पूरा स्नोव्यू क्षेत्र छानने के बाद वापस बस स्टैण्ड पर आ गया था.

नैनीताल की हाड़ कंपाने वाली सर्दी को भी खुले में झेलने का गुर कोई इनसे सीखे. अधिकांश डोट्यालों के पास सर्दी, बरसात अथवा गर्मी में रात को सिर छुपाने का कोई आसरा नहीं होता. बिस्तरे के नाम पर ओढ़ने व बिछाने को एक-दो सिमई ( सेमल की रूई से बनने वाला पंखीनुमा उत्तरीय) ही इनका रात काटने का सहारा हुआ करता है. रात में जब बाजार की दुकानें बन्द हो जाती हैं, तो उन्हीं दुकानों के बरामदों में ये जाड़ों की रातें काट जाते हैं. इसका भी इनका अपना तजुर्बा है. दोनों ओर दीवारों की आड़ में जगह की क्षमता के अनुसार आठ-दस डोट्याल इस तरह सटकर सोते हैं ताकि एक दूसरे के शरीर की गर्मी मिलती रहे. एक किनारे का डुट्याल यदि करवट लेने के लिए ’फरकन्या हो’ (करवट बदलो) की आवाज देता है, तभी हर डुट्याल को करवट लेना लाजमी हो जाता है.

परदेश में रहने पर अपने इलाके के लोगों में एकता होना एक स्वाभाविक गुण है. इसका इजहार वे जहॉ सामुहिक रूप से नेपाली गीत गाकर मनोरंजन करते हैं, वहीं हर सुख-दुख में साथ खड़े मिलते हैं. बदलते दौर में दिन की जी-तोड़ मेहतन के बाद शाम को सुरापान का शौक इनमें भी कभी कभी देखने को मिलता है, जब वे हुजूर नहीं राजा के अन्दाज में नजर आते हैं. अगर ये समूह में हो और आप इनसे कोई बोझा ढोने के लिए मजदूरी तय करने की हिमाकत करें तो तय है कि जेब ज्यादा ही ढीली करनी पड़ सकती है. इसलिए इनसे मजदूरी तय करते समय अकेले मिलने वाले डुट्याल से ही बात करें.

एक सच्चा वाकया आपसे शेयर करना चाहॅूगा. सन् अस्सी के दशक की बात होगी. तब नैनीताल में राशन कार्ड पर टाल से कोयला मिला करता था. कोयला लेने वालों की तड़के से टाल पर लम्बी-लम्बी लाइनें लग जाया करती थी. एक गुरू जी को भी दो तीन घण्टे के इन्तजार के बाद जब 50 किलो कोयला मिला तो उन्होंने अपने घर सात नंबर ले जाने के लिए डोट्याल की तलाश की. गुरूजी तो गुरू जी ठहरे. गुरू जी लोग अर्थशास्त्र विषय भले न पढ़े हों लेकिन अर्थ की गूढ़ समझ रखते हैं. हालांकि जिन गुरू जी के साथ यह घटना घटित हुई वे अर्थ के प्रति इतने लोलुप तो नहीं थे फिर भी जमात का असर होना स्वाभाविक है.
(Dutiyal Article by Bhuvan Chandra Pant)

एक डोट्याल वीर बहादुर से बात हुई तो वह 5 रूपये से कम में किसी हालत पर राजी नहीं हुआ. वे अगले डुट्याल के पास पहुंचे तो वीर बहादुर डुट्याल उनके पीछे-पीछे आकर अगले डुट्याल को भी बहका दे. जितने डुट्यालों के पास गुरू जी जाते वीर बहादुर उनके पीछे आकर सबको भड़का देता और 5 रू0 से कम में कोई तैयार नहीं होता. सुबह से फजीहत में तो थे ही साथ में वीर बहादुर का दूसरे डुट्यालों को भड़काने पर वे अपने गुस्से को काबू में नहीं कर पाये और आव देखा न ताव दो झापड़ जड़ दिये उस वीर बहादुर के मुंह पर. सामने बैठा डुट्याल जो अब तक 5 रूपये से कम पर न जाने को अड़ा था हड़बड़ा कर बोल पड़ा – ’’ हुजूर मु जाऊॅगा’’ ( हुजूर मैं जाऊॅगा).

सच्चाई यह है कि डुट्याल जमाने से हमारी जरूरत का एक हिस्सा व सहयोगी रहे हैं. बोझा ढोने से अपनी सफर की शुरूआत कर जब ये परिवार के साथ रहने लगे तो काश्तकारी में भी इनका सहयोग लिया जाने लगा. धीरे-धीरे पहाड़ों से मैदानों की तरफ पलायन के कारण ये ही डुट्याल पलायन करने वालों की जमीन पर बतौर साझी काबिज होते गये और पलायन की यही रफ्तार जारी रही तो वह दिन दूर नहीं जब उत्तराखण्ड के गांवों में ये ही डुट्याल नजर आयेंगे.
(Dutiyal Article by Bhuvan Chandra Pant)

– भुवन चन्द्र पन्त

भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.

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