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ऐसा भी कहीं होता है?

पिछली पोस्ट में मैंने भारत के कालजयी लेखक प्रेमचंद के परिवार के साथ रहने के कारण खुद को सौभाग्यशाली व्यक्तियों में माना था. शायद यह मेरा सौभाग्य ही रहा होगा, हालाँकि मुझे नहीं मालूम कि सौभाग्य क्या होता है? ज्ञानी लोग कहते हैं कि जीवन के अगले क्षणों के बारे में हमारा अज्ञान कभी-कभी हमें उस जगह ला पटकता है, जिसके बारे में हमने सोचा भी नहीं होता. ये क्षण चूंकि हमारे द्वारा चुने गए नहीं होते, इसलिए हमारे पास विकल्प नहीं होता कि हम उन्हें स्वीकार करें या नहीं! उन अनजाने पलों को अपनाकर हमें ख़ुशी होती है तो हम उसे अपना सौभाग्य समझते हैं, कष्ट होता है तो दुर्भाग्य. जैसे मेरे जीवन की यह घटना. (DSB Nainital Memoir Batrohi)

14 अक्तूबर, 1971 की वह शारदीय दोपहर थी जब मैं हिंदी विभाग के अपने अध्यक्ष के कमरे में बैठा था. तभी विभाग के चपरासी ने बताया कि बाहर कोई व्यक्ति मुझसे मिलने आया है. बाहर पहुँचा तो धोती-कुरता और वास्कट पहने देहाती-रूपाकार का एक आदमी खड़ा था. मैंने अपरिचय भरी आँखों से उनकी ओर देखा, तो मुस्कराते हुए बेहद आत्मीयता के साथ वह बोले, “बटरोही जी, मैं डॉ. राम सिंह हूँ.”, फिर कॉरिडोर के कोने में लेजाकर अजीब-सी हिचक के साथ बोले, “समझ में नहीं आ रहा कि कैसे अपनी बात कहूँ. मेरी नियुक्ति लोक सेवा आयोग ने आपके स्थान पर की है और मुझे आज ही आपको रिलीव करके ज्वाइन करना है. आपकी मैं बहुत इज्जत करता हूँ, मेरे लिए इससे बड़ा धर्म संकट क्या हो सकता है कि आपकी कुर्सी छीनकर मुझे अपनी नौकरी की शुरुआत करनी है.” उन्होंने बताया कि वो लखनऊ सचिवालय से सीधे नैनीताल आ रहे हैं; उन्होंने बहुत कोशिश की कि उन्हें कहीं और भेज दें, मगर शासन नहीं माना. वो थोड़ा भावुक हो गए थे, “मैं इस नियुक्ति को अस्वीकार कर देता, मगर इस बात का क्या भरोसा कि आपकी जगह पर कमीशन का दूसरा आदमी नहीं आएगा. जगह को तो भरना ही है.” (DSB Nainital Memoir Batrohi)

डॉ. रामसिंह के लेखन से मैं अच्छी तरह परिचित था, वो लखनऊ यूनिवर्सिटी के स्वर्ण-पदक प्राप्त बेहद मेधावी छात्र थे. कुमाऊँ के इतिहास और संस्कृति को लेकर उनकी स्थापनाएं लोगों के बीच लोकप्रिय हो रही थीं और शोध-अध्ययन की नई दिशाओं की ओर संकेत कर रही थीं.

मेरी हालत अजीब थी. दो साल से प्राध्यापकी करते हुए मैं अपनी दिशा लगभग तय कर चुका था.  इस नए संकट को सामने पाकर मुझे धक्का जरूर लगा, मगर मैं कर ही क्या सकता था. उन्हें मैं अपने अध्यक्ष डॉ. छैलविहारी लाल गुप्त जी के पास ले गया. अपने साथ वह प्रभार प्रमाण-पत्र की प्रति लाये थे, तत्काल मैंने वह फॉर्म भरा और हस्ताक्षर करके उन्हें अपनी कुर्सी सौंप दी.

इस घटना के साथ ही मुझे करीब दो साल पहले का वह दिन याद आया जब मैं अपने प्रिय प्रधानाचार्य डॉ. डी. डी. पन्त जी के घर पर उनके बुलावे पर गया था. बिना किसी भूमिका के उन्होंने कहा, “तुम जैसे युवाओं को अध्यापन के क्षेत्र में आना चाहिए. क्रिएटिव लोग युवा पीढ़ी के साथ जुड़ेंगे, तभी हमारा अच्छा समाज बनेगा. अच्छे शिक्षक मिलना आजकल कितना मुश्किल हो गया है!” मैंने उन्हें अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए बताया कि टीचिंग के लिए जिस तरह के अकादमिक करियर की जरूरत होती है, मेरे पास नहीं है. बाद में कदम-कदम पर दिक्कतें होंगी, और मुझे लगता है, पेशेवर लोगों के बीच जाकर मैं सारे समय अपनी नौकरी की सुरक्षा को लेकर परेशान रहूँगा, इससे मेरा लेखन सफ़र करेगा. बड़ी देर तक वो मुझे समझाते रहे और फिर करीब-करीब आदेश के स्वर में बोले, “कुछ बड़ा करने के लिए थोडा परेशानी तो झेलनी पड़ती ही है… नैनीताल के जीआईसी में पढ़ा रहे केशवदत्त रुवाली को हम डिग्री कॉलेज में ले रहे हैं, उस जगह पर तुम ज्वाइन कर लो. बाद में जब मौका होगा, तुम्हें भी डिग्री में बुला लेंगे.”

उन दिनों नैनीताल का सरकारी इंटर कॉलेज डिग्री कॉलेज का ही हिस्सा होता था, और उसके प्राचार्य के पास इंटर के स्टाफ को नियुक्त करने का अधिकार था. संकोच के कारण उस वक़्त मैं बहुत जिद नहीं कर पाया, उनके सामने बोलने की मुझमें हिम्मत भी नहीं थी. अगले ही दिन रुवाली जी डिग्री कॉलेज में आए मैं उनकी जगह जीआईसी में पढ़ाने लगा. आठ महीने के बाद फ़रवरी, 1970 में डिग्री कॉलेज के हिंदी विभाग में एक नया पद आया और विभागाध्यक्ष डॉ. राकेश गुप्त की संस्तुति पर प्राचार्य डॉ. डीडी पन्तजी ने मुझे उस पद पर नियुक्त कर लिया.

अंततः वही हुआ, 23 सितम्बर, 1971 को लोक सेवा आयोग ने मेरी जगह स्थाई आदमी भेजकर मुझे सड़क पर कर दिया. इस बार मैंने अपना मन कड़ा किया और यह संकल्प लेकर कि अब तो प्राध्यापकी करनी ही नहीं है, इलाहाबाद मटियानी जी के पास चला गया. सोचा, वहीँ से किसी अख़बार-पत्रिका के लिए कोशिश करूंगा.

आवेश में चला तो आया, मगर कपड़े, बिस्तर, किताबें आदि सब नैनीताल में ही थे. नवम्बर में सर्दी कुछ-कुछ शुरू होने लगी थी, कपड़े तत्काल चाहिए थे. ममफोर्ड गंज में एक कमरा किराये पर तय किया और मटियानीजी जी से यह कहकर कि कपड़े-बिस्तर लेकर लौटता हूँ, 11 नवंबर को लखनऊ होते हुए नैनीताल के लिए चल पड़ा.

इसी बीच नैनीताल के हमारे प्राचार्य डॉ. डीडी पन्त की पदोन्नति उत्तर प्रदेश के शिक्षा निदेशक के रूप में हो गयी थी, वो अपने लखनऊ के कैंप-कार्यालय में बैठने लगे थे. मटियानी जी ने कहा कि उनकी कुछ किताबें पंतजी को देते हुए मैं नैनीताल जाऊं.

दूसरे दिन 12 नवंबर को पंतजी से मिलने उनके कार्यालय पहुँचा तो चपरासी ने बताया कि वो किसी जरूरी बैठक में हैं. मैंने अपने नाम की चिट और किताबों का बंडल उसे थमाया और वापस लौट आया. गेट पर पहुँचा ही था कि चपरासी दौड़ता हुआ मेरे पास आया और ‘आपको डायरेक्टर साहब बुला रहे हैं’ कहते हुए मुझे पन्त जी के पास ले गया.

प्रो. डी. डी. पन्त

“तुम यहाँ क्या कर रहे हो?”, मेरे कमरे में घुसते ही हैरानी के साथ पंतजी बोले, “तुमने नैनीताल ज्वाइन नहीं किया?”

उसी दिन मुझे मालूम हुआ कि पिथौरागढ़ में ज्वाइन करने के बाद डॉ. राम सिंह लखनऊ चले आये थे. सचिवालय में उनकी अच्छी जान-पहचान थी; उन्होंने सचिवालय और निदेशालय के लगातार चक्कर लगाकर अपनी बदली फिर से पिथौरागढ़ करवाई और मुझे नैनीताल की अपनी पुरानी जगह पर नियुक्त करवा दिया. रामसिंह जी के द्वारा किये जा रहे प्रयत्नों की मुझे कोई जानकारी नहीं थी, लखनऊ में पंत जी ने ही बताया कि मुझे 13 नवंबर तक हर हालत में ज्वाइन करना है, वरना सर्विस-ब्रेक हो जाएगा. मेरी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था, प्राध्यापकी से बुरी तरह मोह भंग हो चुका था, मैं किसी भी हालत में नैनीताल नहीं लौटना चाहता था. इस बीच अपने सहयोगी प्राध्यापकों के व्यंग्य-बाण मुझे लगातार कोंचते रहते थे, जिसमें वो मेरी ओर इशारा कर, अपनी अकादमिक योग्यताओं का बढ़-चढ़ कर बखान करते थे. वहां मेरी हालत गिद्धों के बीच फँस गए कव्वे की जैसी हो गयी थी. मैं उनके साथ खुद को घुलाना-मिलाना चाहता था, मगर कोई भी इसके लिए तैयार नहीं था. वो मुझे स्वीकार करने के लिए तैयार तो थे, मगर भिक्षा पात्र में फेंके गए सिक्के की तरह. कभी-कभी कुछ लोग मेरे सामने किसी क्लर्क या चपरासी से उसकी योग्यता के बारे में पूछते और अगर उनमें कोई बीए, एमए होता तो कमरे को गुंजाते हुए उनका अंक-प्रतिशत पूछते. उनको यह परामर्श देने वालों की भी कमी नहीं होती, अपने विषय के विभाग में प्रवक्ता के लिए अर्जी क्यों नहीं डाल देते भाई!…

यह भी किसी चमत्कार से कम नहीं था कि 1973-74 में जब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष डॉ. डीएस कोठारी ने देश के सभी विश्वविद्यालयों में स्नातक कक्षाओं के पहले और दूसरे वर्ष में हिंदी और अंग्रेजी में गाँधी पर परिचयात्मक पाठ्यक्रम लागू करने की संस्तुति की. पाठ्यक्रम को सबसे पहले कुमाऊँ विश्वविद्यालय ने लागू किया गया, कुलपति डॉ. डीडी पंत के संपादन में. दोनों ही भाषाओँ के संपादन सहायक के रूप में डॉ. पंत ने मुझे नियुक्त किया. मेरे विरुद्ध एक और शगूफा विद्वान प्राध्यापकों को अपनी विद्वत्ता प्रकट के लिए मिल गया. विश्वविद्यालय के विद्वान प्राध्यापकों के द्वारा कुलपति कार्यालय में अंग्रेजी की अशुद्धियों के पुलिंदे पहुँचने लगे. इसके साथ ही मेरी नियुक्ति को लेकर शासन को लगातार प्रतिवेदन भेजे गए, एक विधायक ने तो विधान सभा में भी प्रश्न उठाया. मगर तब तक देश के प्रमुख शिक्षा-शास्त्रियों ने इस योजना का दिल से स्वागत कर लिया था और कुछ दूसरे संस्थानों में भी इसे लागू करने की चर्चा उठने लगी थी. लगभग एक दशक तक कुमाऊँ विश्वविद्यालय में यह पाठ्यक्रम नए युवाओं को शान से शिक्षित करता रहा, मगर जैसा कि भारत में होता रहा है, संस्थाध्यक्षों के बदलने के साथ ही सब कुछ बदल जाता है, यह पाठ्यक्रम भी अतीत की चीज बनता चला गया.  

अधिकांश लोग इसे भाग्य का खेल कहकर निबटाने की कोशिश करते हैं, मगर भाग्य को किसी ने देखा तो नहीं है. अलबत्ता ऐसा कहकर आदमी के कर्म और प्रयत्नों को हाशिए में डालकर उसे निरीह और नियति का पुतला घोषित कर दिया जाता है. ऐसे में वो सारी कोशिशें, कदम-कदम पर संकटों से जूझते आदमी की अनवरत यात्रा के बीच झेले गए दंशों का क्या!

(क्रमशः)    

डाना गैराड़ के कलबिष्ट देवता की जागर सुनिए

फ़ोटो: मृगेश पाण्डे

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री में नियमित कॉलम.

                      

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  • डाँ. बटरोही जी की लेखनी का करिश्मा है कि व्यस्तता के वक्त भी यदि उनके आलेख को सरसरी निगाह से देखने का प्रयास किया जाय तो सारी व्यस्तताऐं दरकिनार होकर आद्योपांत पढ़ने को विवश कर देती हैं । घटनाक्रम को सरल शब्दों में जीवन्तता से प्रस्तुत करने की गज़ब सी शैली ।

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