ठाकुर देव सिंह दान सिंह राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नैनीताल यानी डीएसबी की यादें ऐसे खजाने से भरी हैं जिन्हें टटोलते मेरा मन उसकी फेंटेसी में बार-बार डुबकी लगाता है. चीड़ के पेड़ों में किये घाव नीचे लटके तिकोन में लीसे की बूंद टपकाते जाते हैं. कई सूरतें उभरने लगतीं हैं. कई आवाजें पुकारने लगती हैं. कितने दृश्यबंध आपस में उलझते फिर एक नया फिक्शन रचने लगते हैं. माना कि जहाँ ड्रामा होता है वहां किसी लॉजिक व कंसिस्टेंसी की गुंजाईश नहीं रहती.
(DSB Memoir by Prof. Mrigesh Pande)
सब कुछ बहुत कुछ उलझा आपस में गड्डमड्ड सा रहता है और ट्रांजिटिव होता बीते दौर के बिम्ब सहलाने लगता हैं. संक्रमण का सिलसिला एक कड़ी को आगे जोड़ता है. जिसमें बचपन से युवा होते यहाँ के माहौल में गुजरे पल घर और परिवार के साथ बहुत सारे चेहरों की याद में गुम हो गया हूं.इनसे जुड़ते रहा अलग-अलग धागों के साथ. बंधा पाया उनसे खुद को. इनमें से कितने चेहरे कितनी सूरतें मुझे फिर मिलीं. कई गुम हो गईं न दिखीं. उनकी छाप कहीं न कहीं आड़े-तिरछे, किरच सी किसी कोने में धुंधलाई सी मौजूद रही.
डीएसबी में गुजरा हुआ लम्बा सा वह दौर. ऐसा सूत्र रहा ऐसा धागा जिसमें अनगिनत बिखरे हुए फूल गुंथ गए बंध गए. सहेज गए वह पल जिनके सहारे सूरतें फिर -फिर उभरती जातीं. अनगिनत यादें रह -रह घटाओं की तरह घिरती रहतीं. महसूस हुई फुहार, झुमझुमी पड़ी अनायास. भिगो दिया भारी कर दिया.लगा सारी आपाधापी और कोलाहल शांत हो गया है. रिमझिम होती रहती है तो लगता है कि मन जो भी मालूम है ज्ञात है,उससे मुक्त हो रहा है. सौंधी सी खुश्बू महसूस होती है. एक चुप्पी सी ठहर जाती है. लगता है जो भी मालूम है याद है, स्मृतियों से भरा है उनसे गुजर कर मैं मुक्त हो जाना चाहता हूं. डीएसबी का कोई जिक्र करे जो नहीं मालूम है तो सब कुछ बिखरा सा फिर जमा होने लगता है. फिर झुमझुमी और खुशनुमा फुहार का स्पर्श. फिर उभरी तरंग. उस मौन को तोड़ देती है जो सोच और समझ के बीच कहीं अटक रहतीं हैं कई बार बहुत बार.
बहुत सारे चेहरे याद आते हैं. अपना वह घर याद आता है जिसकी जगह अब डीएसबी परिसर में संस्कृत विभाग के भवन ने ले ली है. याद है मुझे वहां से एक तरफ ऊपर को जाती पत्थर की सीढ़ियां थीं जिनमें किनारों पर अक्सर काई जमी रहती थी. उन सीढ़ियों से ऊपर चढ़ते आगे वह रास्ता था जो एक ओर राजभवन की ओर जाता था तो दूसरे सिरे ए एन सिंह हॉल से ऊपर गुजरता मल्ली ताल की ओर.आगे गेट था जिसके नीचे नैनीताल की झील का दो तिहाई हिस्सा दिखता था. एक कोने पर अयारपाटा के जंगल से ऊपर उठती घूमती नजर में चाइना पीक की चोटी तो उसके तल में खेल का मैदान. दायीं ओर को बोट हाउस क्लब से ऊपर जा रही सड़क तल्लीताल को जाती हुई दिखती थी. डीएसबी के इस गेट के भीतर की वह दुनिया, उसके अनुभव, सूरतें, भवन, प्रयोगशाला, कारपेंटर शेड, इलेक्ट्रीशियन कक्ष के बगल टीन की छत से ढके गलियारे के किनारे से गुजरते चलते जाओ तो उतार में यह रास्ता कैंटीन के ऊपर से होता इंटर कॉलेज की दुमंजिला बिल्डिंग पर ले आता था. यहाँ से नीचे सीढ़ी पार कर घुमाव वाला रास्ता दूसरे गेट की ओर जाता और उस सड़क पर ले आता जो नीचे तल्ली ताल की ओर जाती. ऊपर की ओर आगे यही सड़क बाईं ओर मोड़ पर बने क्वार्टरों को छूते आगे बढ़ती. फिर वही जादूनगरी. डीएसबी की जादू नगरी जिसने मुझे जोड़ा, मन में उथल पुथल मचाई, अकेला न रहने दिया, बांधे रखा. उसका सौंदर्य याद है बस. कोई तकनीक कोई तरकीब नहीं जो पूरी तरह उसे प्रकट कर दे. उसका विस्तार तो मन में रहा.
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ऑंखें खुली हैं और तमाम तरह के दृश्यों से घिरा हूँ. बचपन से अब तक यहाँ के रास्तों से गुजरते गिरते-सम्भलते आगे आते-आते नया सा सिलसिला फिर शुरू हो जाता है. जब भी नैनीताल याद आता है. जब भी कहीं घूमने निकल पड़ता हूँ. जब भी कोई मिल जाता है पुरानी परत हटाता है तो यह डीएसबी. अचानक ही उभर जाता है.
बचपन से युवा होने का वह दौर. जब महसूस होने लगा था कि औपनिवेशिक शासन में बसी इस नगरी में नियोजित विकास के परिवर्तन इसकी संस्कृति और सामाजिक परिवेश को तेजी से बदल रहे थे. सामाजिक और लोक से जुड़ी द्वैधता पनप रही थी. गाँव से शहर और महानगर तक जाने की परिक्रमा जोरों पर थी.गांव से निकले मैदानों में रहगुजर की तलाश में रहते. बच्चे, औरतें, बड़े-बूढ़े खेती-पाती के साथ जीवन निर्वाह के अन्य क्रिया कलाप करते.कठिनाइयाँ थीं, असुविधा थी. रास्ते कम थे बिजली के तार कम खिंचे थे. समझ में आने लगा था यह अलग सा दौर. कई लेखक इन्हीं पहाड़ों से निकले भनमजुओं पर दर्द भरी कहानियां लिख चुके थे. प्रदेश और देश के कार्यालयों में काबिज बाबू अपना नाम कमा रहे थे. नामचीन खिलाडी भी सुर्खियों में थे और फौज और पुलिस के साथ अन्य सुरक्षा बलों में जिम्मेदारी संभाले ओहदेदार भी. प्रवास और पहाड़ से पलायन प्रचलित हो गए थे सम विच्छेद बिंदु की तरह.
अर्थशास्त्र पढ़ते समझ आया कि जीवन निर्वाह स्तर को बनाये रखने के सिलसिले में मनी आर्डर इकॉनमी के सटीक उदाहरण हैं पहाड़ में. रही बात अपने शहर नैनीताल की तो कहने को यह पर्यटन पर टिका शहर था पर इसकी धाक तो उन शैक्षणिक संस्थाओं ने जमाई थी जो अपने नाम की गुणवत्ता दुनिया भर में फैला इसे मशहूर कर गईं थीं. परम्परा के अनुयायी बुजुर्ग, नये जमाने से तालमेल करते व्यक्तित्व, समाज, संस्कृति और साहित्य की गहरी पैठ वाले लोग यहाँ मेरे आस-पास ही थे जिनका स्पर्श जाने अनजाने महसूस होना ही था. उपनिवेश काल के सभी स्तम्भ सामने थे तो नव अभिजात्य रहन-सहन की बानगी भी. गांव से गुजारे और कुछ कमा धमाकर अपने जीवन स्तर को बेहतर बनाने वाले मेहनतकश जिनके हाथों में हुनर होता. परंपरागत शिल्प होता. गाँव के स्कूल से निकल पढ़ लिख कर गुणवत्ता हासिल करने की हौस लिए किशोर जो यहां युवा बनते दिखते. विज्ञान और प्रोद्योगिकी में नाम कमा गए.
दिग्गज जो डीएसबी के हॉस्टल में रहे. कई हॉस्टल जो मुख्य परिसर के साथ शहर के अलग-अलग हिस्सों में थे लंघम ब्रुक हिल. मेरे कई दोस्त आपस में मिल कमरा ले भी रहते थे. गाँव से राशन ले आते, घी लाते और स्टोव पर खाना पकाते. कोई छुट्टी पड़े या फसल का टाइम हो तो गाँव फरकते.इन सब के साथ अपने अपने हुनर में माहिर श्रम की अनवरत परतें तो थीं ही जो सदियों से इस शहर नैनीताल को बहुरंगी आयाम देती रही थी. इसे साझी संस्कृति का नायाब नमूना बना गईं थीं. विस्तृत फैली झील के कोने मध्य पाषाण देवी के ऊपर की पहाड़ी पर चुंबकीय शक्ति की ऊर्जा से भरा डीएसबी यहीं अपने सम्मोहन से आकर्षण का केंद्र रहा.
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आजादी से पहले ब्रिटिश शासकों के बच्चों के पढ़ने का एक स्कूल था वेलेजली गर्ल्स स्कूल. मालदार दान सिंह बिष्ट पहाड़ में उच्च शिक्षा का संस्थान स्थापित करना चाहते थे. 24 अक्टूबर 1949 से वह अपनी माता के नाम से ‘श्रीमती सरस्वती बिष्ट छात्रवृति ट्रस्ट’ पिथौरागढ़ में बना चुके थे. सोर घाटी की सौन पट्टी के बीच कमलेश्वर में आठ सौ नाली भूमि का दान कर उन्होंने अपने दादा राय सिंह बिष्ट के नाम का हाईस्कूल भी बनवाया. अपने पिता देव सिंह के घी व ठेकेदारी का काम देखते दान सिंह बारह वर्ष की आयु में ही लकड़ी का व्यापार करने वाले ब्रिटिश व्यापारी के साथ म्यांमार (बर्मा) चले गए थे. व्यापार में उनकी सूझबूझ से बाद में वह ‘टिम्बर किंग ऑफ़ इंडिया’ कहलाए. चौकोड़ी और बेरीनाग में उन्होंने जेम्स जॉर्ज स्टीवैन्स की चाय कंपनी खरीदी और उसका कुशल प्रबंध कर पहाड़ की चाय को विश्वप्रसिद्ध कर दिया. देखते ही देखते उनकी कंपनी ‘डी. एस. बिष्ट एंड संस’ देश में व्यापार का बेहतरीन प्रतिष्ठान बन गया जिसने लोक कल्याण के लिए चिकित्सालय, खेल के मैदान और विद्यालयों में भी भारी विनियोग किया.
किशोरावस्था से ही अपने पैतृक व्यवसाय में लग जाने से वह अधिक न पढ़ पाए इसलिए उनकी सोच रही कि ‘अगर मैं पढ़ न पाया तो मेरी तरह अन्य बच्चे शिक्षा से वंचित क्यों रहें’.
देश की आजादी के बाद संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) में मुख्य मंत्री गोविन्द बल्लभ पंत बने. मालदार दान सिंह बिष्ट के नैनीताल में एक आदर्श महाविद्यालय बनाने का सपना पूरा हुआ. वेलेजली स्कूल को खरीद, बारह एकड़ से अधिक लगभग पंद्रह लाख की जमीन व पांच लाख रूपये की नकद धनराशि प्रदान कर उन्होंने अपने पिताजी के नाम पर ‘देव सिंह बिष्ट महाविद्यालय की स्थापना की. उच्च शिक्षा के इस केंद्र में देश के अन्य विश्वविद्यालयों की तुलना में प्राध्यापकों को अधिक वेतन दिया जाने लगा. अपनी स्थापना के साथ ही उच्च शिक्षा के बेहतरीन प्रतिमान डीएसबी में स्थापित हुए. पढ़ लिख गुणात्मक विकास में योगदान देने की यह सबल संस्था बनी. पहाड़ के गाँव से ले समूचे देश से यहां आ अपना भविष्य संवारने वाली जनशक्ति का ऐसा आधार केंद्र बना जिसने नैनीताल की फिजा ही बदल दी.उच्च शिक्षा के मात्रात्मक और गुणात्मक मापक स्थापित करने के सपनों को व्यवहार में सिद्ध करने के लिए ठाकुर दान सिंह बिष्ट को प्रोफेसर ए एन सिंह जैसा प्राचार्य मिला जो प्रसिद्ध गणितज्ञ तो थे ही इससे बढ़ सरल सहज मूल्यों पर सुगमता से चलने वाले व्यक्ति थे.
मेरे बप्पाजी कहते थे कि नैनीताल ने अनेक अंग्रेज प्रशासक देखे. बड़े से बड़े अधिकारी यहां रहे. यहां लाट साहिब भी आये और राय बहादुर भी. लोगों ने सबको इज्जत बक्शी, उनके आगे झुके, उनके पद की गरिमा का सम्मान किया. इसमें कहीं शासन के प्रति भय भी था तो झिझक भी. पर प्रोफेसर ए एन सिंह इन सबसे परे थे. उनके प्राचार्य बनते ही डीएसबी के इस चुम्बक से सारे शहर में बदलाव आ गया. बप्पा जी अक्सर डायरी लिखते थे. बरसों बाद सिल्वर फिश से कुतरे उसके पृष्ठों को पलटते बप्पाजी की सुन्दर लेखनी में लिखी इबारत याद आती है. उन्होंने लिखा, “सिंह साब भव्य ऋषितुल्य स्वरूप के साथ अपार स्नेह और प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व थे. उनमें अद्भुत सम्मोहन था. कहते हैं कि परिवर्तन तो होते हैं बहुत तेज बहुत स्वाभाविक बस सही अवसर चाहिये. जो सोचा है उसे कर दिखाने का अवसर. यह चमत्कार नहीं है पर चमत्कार तो घट जाता है. हमने तो एक अंतराल बनाना है और उनका सिलसिला सम्भव हो जाता है. एक बीज में अंकुर फूटेगा. एक कली फूल बनेगी. फिर फूल ही फूल खिलेंगे. एक बच्चा मुस्काएगा एक विद्यार्थी कुछ जान समझ संतुष्टि से भर जायेगा. बस संवेदन शील रहना होगा अपने प्रति, अपने परिवार के प्रति, संस्था के प्रति.कई बार ऐसा होता है कि हमारे बाहर की स्थितियाँ नियंत्रण से बाहर होती हैं तब आतंरिक स्थितियों को हम अपने नियंत्रण में रख सकते हैं बस प्रेम,करुणा और विवेक से जुड़ी भावना उपज जाए तो”.
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प्रोफेसर ए एन सिंह की कही बातों को अपनी सुंदर लेखनी में बप्पाजी ने लिखा था, “जो शिक्षा हम देते हैं उससे संतुष्टि पाने की आशा करते है. संतोष इस बात पर निर्भर नहीं रहता कि हमारे पास क्या है और क्या नहीं. यह कोई वस्तु, सेवा या कमोडिटी का बंडल थोड़े ही है जिसे खरीद लिया जाए. ये तो अपने ही भीतर है. इसका बोध तो तभी होता है जब आप उससे गहरे जुड़े हों जिसे कर गुजरते आपका यह स्त्रोत स्वतः ही मन को प्रेरणा देता है, भावना को तरंग देता है,इन्द्रियों को सबल बनाता है. जो भी कुछ हमें परेशान करता है वह माया है.”
जब मैं पिथौरागढ़ महाविद्यालय में था तो शिप्रा सदन में रहता था. यह आवास प्रोफेसर जगमोहन चंद्र जोशी जी का था जो तब डीएसबी परिसर में गणित के विभागाध्यक्ष हो यहाँ से नैनीताल चले गए थे. एक सुबह अपने कागज पत्तर बिखेरे उन्हें धूप दिखा रहा था कि जोशी जी आ गए. आ कर सबसे पहले वह अपनी ईजा का बंद कमरा खोल उसमें धूप बत्ती करते थे. तब उनके लिए चाय बना ले गया तो पाया उनके हाथ में बप्पाजी की डायरी थी जिसे वह बड़े मनोयोग से पढ़ रहे थे. उनकी ऑंखें अश्रुपूरित थीं. मैंने बताया कि इन्हें धूप दिखा रहा हूँ. अब यह पन्ने गलने लगे हैं. नैनीताल में सीलन से लगी सिल्वरफिश इन्हें खा भी गई है.बप्पाजी के खजाने की सारी किताब कागज पत्तर ले आया हूं. आपके इस घर में शीशे वाली अलमारी भी खूब हैं.
“सही किया तुमने. अब सुनो कितनी गहरी बात लिख दी है प्रोफेसर सिंह के बारे में बरसर साब ने कि उन्होंने अपनी माता जी की बहुत सेवा की. यह उनकी पूजा थी. माता के आशीर्वाद से ही वह सबके लिए प्रेरणा का केंद्र रहे. वह बहुत ज्ञानी थे, विद्वान थे पर पहली ही मुलाक़ात में हर किसी को अपना बना उसके प्रिय बन जाते थे अपनी सरल बात और सहजता भरे व्यवहार से.
कॉपी के पन्नों से नजर उठा मेरी ओर देखते जगमोहन जी ने मेरी ओर देखा और उनकी निःस्वास भरी आवाज मुझे सुनाई दी, “माँ ही सब कुछ हुई.अब जब से ईजा गई मुझे भी लगता है क्या जो छूट गया. इसी घर से विदा ली थी उसने.यहाँ पिथौरागढ़ में मकान बनाने की जिद भी उसी ने की थी, घर तो रानीखेत हुआ. मुझसे कहती थी देख रे यहाँ से तो उल्का देवी भी दिखता है थल केदार भी”
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जब डॉ जोशी जी पिथौरागढ़ में गणित के विभागाध्यक्ष थे तो शिप्रा सदन में मेरा खूब आना जाना था. कोई पर्व त्यौहार हो, संक्रांति पड़े या एकादशी वहां जाना जरुरी होता. बड़े स्नेह से प्रसाद देती उनकी ईजा और हाल-चाल पूछती. कभी गीता का गुटका खोले उसके पन्नों में नजर गढ़ाए दिखती कभी अपने नाती को लाड़ करते. अक्सर मेरे साथ मेरा कैमरा होता ही तो उनकी बहुत फोटो खिंचती. मुझे कैमरा लटकाए आता देख बकायदा पोज बना के बैठ भी जातीं. जगमोहन जी के यहाँ अक्सर डॉ. सी डी बिष्ट जी जो केमिस्ट्री के हेड थे, प्रोफेसर कोहली जी वनस्पति विज्ञान व जीव विज्ञान के प्रोफेसर दीक्षित जी मिलते. सब डीएसबी से किसी न किसी दौर में जुड़े थे सो इस महाविद्यालय में डीएसबी की गहरी छाप थी.
पिथौरागढ़ महाविद्यालय में डॉ खन्ना के प्राचार्य बनने के बाद तो कायाकल्प ही हो गया. इससे पहले डॉ साहिब शरण खन्ना डीएसबी में जंतु विज्ञान के विभागाध्यक्ष थे. वह टेम्परटन में हमारे निकट पडोसी रहे ठीक दुमंजिले में. पिथौरागढ़ महाविद्यालय वहां हुए गोली कांड और उसके बाद हुई प्रशासनिक लापरवाही से बहुत अव्यवस्थित व अशांति से भरा रहा. डॉ खन्ना ने प्राचार्य रहते इस महाविद्यालय का स्वरूप ही बदल डाला. अकादमिक गतिविधियों के साथ खेल खिलाडी नव जीवन पा गए.
बप्पाजी की जब अचानक ही मृत्यु हुई तब में अल्मोड़ा राजकीय महाविद्यालय में था. छोटी बहिन डीएसबी नैनीताल में जंतु विज्ञान की प्रवक्ता थी. कुमाऊं विश्वविद्यालय में हम दोनों का चयन नहीं हुआ. तब डॉ खन्ना ने हम दोनों का स्थानांतरण पिथौरागढ़ करा दिया कि दोनों एक जगह रह अपने बड़े परिवार को उस स्तर पर रखने काबिल बना सकते हो जैसा बरसर साहिब छोड़ गए.
मेरे लिए तो पिथौरागढ़ महाविद्यालय ऐसा आश्रय बना जहां काम के अनगिनत मौके थे तो साथ थे अपने सीनियर अब वहाँ जमे धुरंधर प्रोफेसर. जिनकी छाँव में डीएसबी की संकल्पनायें और उसके वरीयता वाले अधिमान थे. प्रोफेसर बालचंद्र श्रीवास्तव से लेकर प्रोफेसर कृष्णानंद जोशी जैसे प्राचार्य तो आधे से ज्यादा स्टॉफ जिन्होंने या तो डीएसबी में पढ़ाया या वहां से पढ़ा. स्पोर्ट्स में वहीं रहा लल्लन सिंह भी.
“देखो मृगेश, प्रोफेसर सिंह की यह बात जो तुम्हारे पिता के हाथ से इन पन्नों में लिखी है. मैं तुमसे पूछे बगैर पढ़ गया. बरसर साहिब की हैंड राइटिंग देख उनका लिखा पढ़ने से खुद को रोक न पाया. उनकी ड्राफ्टिंग तो होती ही अचूक थी. पढ़ते भी खूब थे. ये डायरी तो बहुत संभाल के रखना. इसे छपाने की सोची कभी “
“जी”. मैं पता नहीं इस बीच कितनी बातों में उलझ गया था.
जे एम सी जोशी चाय का लम्बा घूंट भर उस पन्ने पर लिखा पढ़ने लगे थे जो बप्पा जी ने प्रोफेसर ए एन सिंह से सुना था कभी. उस दौर की बात जब मैं पैदा हुआ हुंगा डीएसबी परिसर के स्टाफ क्वार्टर में.
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“जीवन में लगातार ही ऐसा कुछ घटता रहता है जो हमें तनाव में डालता है परेशान करता है. तब क्रोध भी आता है. अक्सर हम पूर्णता प्राप्त करने के लिए ऐसे जंजाल में फँसते हैं. पूर्णता पर बहुत अधिक फोकस कर बैठते हैं. यही माया है.अब बाहर सब कुछ अधूरा लगे पर अंदर सब पूर्ण है.जो अधूरापन है वह तो दिखाई देता है पर पूर्णता तो छिपी है. इस दुनिया में चीजें कभी पूरी नहीं हो सकतीं इसलिए जो भी चुनौती है जो भी समस्या है उसका सामना करते हुए ही खुशी हासिल करनी है. लोगों की मदद करने के लिए आगे बढ़ना है बस खुशी भी साथ चलेगी. कल की उम्मीद में खुशी को टालना नहीं है. ऐसा खास कल तो कभी आएगा ही नहीं. अब इस जगह में महाविद्यालय बन गया है तो कितना कुछ करना है. कोई भी अड़चन आये उसे सुलझाना है. अभी लोग कम हैं तो क्या हुआ सब चाहते तो यही हैं ना. सबके केंद्र में इसकी उन्नति का भाव है. सब इसके लिए कुछ करते हुए खुश है. देखो दीनामणि क्यारी बनाते कितना खुश है. हरलाल सब कूड़ा करकट समेट इसे साफ रख खुश है. वो तिवारी प्रोफेसर छात्रों को पढ़ाते कैसा चहक रहा और हरीश बाबू तुम भी तो भूल जाते हो कि भई पांच बज गए अब घर जाना है”.
रुंधे गले से डॉ जगमोहन चंद्र जोशी पढ़ते हुए चुप हो गए. वह मौन बड़ा गहरा था. आगे जिस प्राचार्य से बप्पाजी बड़े प्रभावित जान पड़ते हैं वह रहे प्रोफेसर के एन श्रीवास्तव. उन्हें देखे की मुझे याद है. गहरे श्याम वर्ण के भारी बदन. उनका नाम ही काला भूत पड़ गया था. महाविद्यालय प्रांगण में अक्सर ही आते जाते दिखते.बप्पाजी लिखते हैं कि जब के एन साहिब पहले पहल आए तो अजीब दहशत सी छा गई. सबको लगा कि अब हिटलर जैसा दौर शुरू होगा. कुर्सी पर जमते ही उन्होंने मुझे बुलाया और बोले चलो हरीश बाबू अब इस खेत खलिहान के हर ओने कोने मुझे ले चलो. वो कहाँ है दफ़्तरी? माली भी रहेगा साथ.जमादार कहाँ है? और बढ़ई, मिस्त्री सबको बुलाओ. सब चलेंगे साथ भाई. सब सकपकाए सहमे कक्ष के बाहर जमा. मोहन बाबू, प्रेमबल्लभ जी, डंगवाल बाबू, मेहरा बाबू गंगा सिंह, हरकिशन गुरू, दीनामणी, हरलाल, किशोरी कारपेंटर, चार्ली बाबू, नारायण सिंह. उन्हें सबके नाम याद रहते.आगे आगे साहिब पीछे सब. जहां उनका मूड हो. ऑफिस देखा गया सब करीने से था. लेक्चर थियेटर की मेज पर उंगली चली वह साफ थी. खेल का मैदान चूना पड़ा दिखा. पोस्ट ऑफिस के पास खुश्बू बिखेरता सफेद कमल सा चौड़ी पत्ती वाला घना पेड़. क्यारियां सुवासित पुष्पों से भरी हुई. पूछा माली कौन है भई. दीनामणि ठिगना सा था बड़े साब के सम्मान में कमर से भी झुक गया. उसका कंधा थप-थपा दिए साब तो कांप गया. मुझसे बोले हरीश बाबू देखो कितने फूल खिला दिए यहाँ इस दिनामणि ने. अब हमने जो उगाना है इस मिट्टी में वह ऐसी ध्यान की पौंध है जिसमें कितनों के जीवन का संघर्ष छुपा होगा. उसकी पीड़ा भी होगी. उसे इतना मजबूत बनना है कि सब सहे. हर मौसम में सदाबहार रहे.कुछ कर गुजरे और इस मिट्टी को इस फुलवारी को याद रक्खे. हमारा काम है व्यवस्था बनाए रखना. पर,सोचो अगर हम सिरफ व्यवस्था ही बनाने में लगे रहे तब ये व्यवस्था अपने चारों ओर एक चारदिवारी ही खड़ी करेगी जिसमें सब कुछ सिमट कर रह जायेगा इसलिए सोचता हूँ कि हर शुरुवात उस दूसरे छोर से, किसी दूसरे किनारे से करनी पड़ती है. हमेशा यह नहीं सोचना चाहिये कि अभी यहाँ हूँ वहां तक जाना है वही लक्ष्य है. जो है उसे देखना है और उससे पार चले जाना है.बस इस सिलसिले में खुशी मिलनी चाहिये. क्यों हरीश बाबू?
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बप्पाजी की बेतरतीब सी डायरी के कई पन्नों को कई कई बार पढ़ चुका हूँ. जो बात उन्हें कहीं छू जाती थी वह उनकी सुन्दर हैंडराइटिंग के साथ पीले धूसर पड़े कागजों में बिखर जाती. बहुत संभाल कर जतन से रखने की कोशिश भी रही. डॉ. डी डी पंत के जमाने में बप्पाजी डीएसबी के बरसर बनाए गए. उस दौर में लिखे कागज ज्यादा साफ और उजले हैं पर उनकी इबारत के पीछे तनाव-दबाव और कसाव का एक लम्बा घटना चक्र भी है जो उनकी आकस्मिक मृत्यु की पहली रात ही थमा. ऐसे घेरे और वह ध्रुवीकरण जिनके पीछे अपनी संस्था में घट रहे अवमूल्यन के लम्बे सिलसिलों की सड़ाध है. कुमाऊं विश्वविद्यालय के सहायक कुल सचिव पद से स्वैच्छिक त्यागपत्र देने के ड्राफ्ट भी उनके कागज खोल धूप दिखाते अजीब हमक छोड़ते हैं. “दिवाकर नाथ अग्रवाल के साथ मैने जो सबसे बड़ा गलत निर्णय लिया वह कुमाऊं विश्वविद्यालय में डेपुटेशन पर आ जाने का था. अब शीर्ष पर बैठे कान के कच्चे और नजर से कमजोर होते जा रहे. जो डीएसबी में अब तक न हुआ वह अब यूनिवर्सिटी में खुले आम हो रहा. पहाड़ी-देसी का खेल. चाटुकार सीढियाँ चढ़ रहे. दिवाकर को दिल की बीमारी पकड़ गई. मोहन को अलग परेशान कर रखा है”.
मोहन यानी हमारे मोहन कक्का, मोहन चंद्र जोशी उनके परम मित्र थे. हर झंझावत में साथ. डीएसबी बनने से उनके सहयोगी ही नहीं सुख दुख के साथी. साथ में ख्याली राम बिष्ट जी जो दुर्लभ किताबों से भरी, कैटलॉग सिस्टम से चलने वाली लाइब्रेरी के सरगना थे. महेश दा उन्हें चलता फिरता विश्वकोष कहते. भूगोल के प्रोफेसर एम सी बुधलाकोटी जिनके घर से रामनगर से आये बिंदुली चावल और कोटाबाग की उड़द के कट्टे हमारे घर भी इफरात से आते.बप्पाजी उनकी तारीफ के पुल बांधते तो ईजा कहती इससे बढ़िया धान तो हमारे गरम पानी के सेरे में होता है.’तिलक और रासमती कतु स्वाद हुनी, खसबू लै ऊँ’.
गरम पानी अपने मामा का गांव जो मैंने खूब देखा. हर साल दो तीन बार तो जाता ही था. बप्पा जी भी घुमाते. खूब पैदल चलाते. खुद भी घूमने फिरने के शौकीन. कॉलेज के काम से बप्पाजी के दौरे भी खूब लगते थे. ट्रंक भर जाता. होलडोल कसा जाता.उनके साथ जाते रसायन विज्ञान के प्रोफेसर एच डी पाठक की मुझे खूब याद है और साथ में लम्बे-तगड़े सिंह साहब जो लखनऊ -इलाहाबाद के दौरों में अक्सर उनके साथ होते. चंद्र भानु गुप्ता की सरकार का जिक्र भी उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है जिससे पता चलता है कि उस समय कॉलेज के लिए ग्रांट निकलना बड़ा मुश्किल हो गया था. नये पद भी लटके हुए थे. यहीं पहाड़ से जीत कर गया था ये.
(DSB Memoir by Prof. Mrigesh Pande)
डीएसबी के लिए कोष जुटाने पहले सचिवालय का दौरा होता जहाँ हमारे कई बिरादर थे. वहीं उच्च शिक्षा निदेशालय के सभी दिग्गज निदेशक उनसे गहरे जुड़े थे तो उनके सिपाहियों में श्री राम और मुश्ताक भी जिनकी कलम का इशारा बोझिल फाइल को भी वैतरणी पार लगा देता. इन सब के पीछे बप्पाजी की अचूक ड्राफ्टिंग के साथ गहरे बुने रिश्तों व संबंधों की सहजता थी. लिखत पढ़त वाली उनकी मित्रता के दायरे में एक से बढ़ के एक खलीफा थे. उनमें सिपाही धारा वाले गौर्दा हुए उनके खास तो प्राध्यापक तो बहुत सारे,परती साब, बसलस साब, जुलौजी के भटनागर साब, बालचंद्र श्रीवास्तव, उपाध्याय जी हिंदी वाले, एन सी सी वाले प्रोफेसर सिंह, कॉमर्स के चौधरी जगदीश नारायण सक्सेना और वो कामरुप बंगाली भी जो पता नहीं क्या क्या खगोल पत्री से बांचता.हर काम के महूरत निकालता. सुना वह मालदार साब का भी खास था. कितने एकड़ के विशाल परिसर में फैली डीएसबी में कहाँ मार्ग वेध लगें यानी कांटे के तार और कौन से इलाके हमेशा खुले हों जैसे टुटके बताता. महेश दा से खगोल पर बहस भी करता. महेश दा कहते कि ये सब ज्योतिष ये फलित टुटके बाजी है. अब खुद महेश दा फिजिक्स वाले हुए. बाद में वह देवी लौज में बनी ऑब्जरवेटरी में एस्ट्रोनोमर हो गए थे.
बप्पाजी बताते थे कि यहाँ ऑब्जरवेट्री बनाने की पहल तो डॉ ए एन सिंह ही कर चुके थे फिर कोडाई कनाल से डॉ बापू आए. ऑब्जर्वेटरी जब मनोरा पीक में नई बनी तो वहाँ पर कई जंतर-मंतर कामरूप बंगाली ने किये बल. हनुमान गढ़ से आगे के रास्ते पर तो पहले बच्चे खड़ियाते थे इसलिए सब उधर से आने जाने में झसकते थे. कामरूप से तो मुझे डर ही लगती रही. पर बप्पाजी का मित्र हुआ. उनसे कहता कि अरे हरीश बाबू काली के भगत हुए तुम, बिना कष्ट दिए चुप्पे से विलीन होगे. ये जग जंजाल तो चलते ही रहता है.
डायरी जहाँ खतम होती है उसमें पिलानी में स्थापित अपने अग्रज ब्रिगेडियर भुवन चंद्र पांडे को लिखी चिट्ठी का ड्राफ्ट भी चस्पा है जहां लिखा है कि वह इस दिसम्बर को कुमाऊं विश्वविद्यालय से मुक्ति ले लेंगे और पहली जनवरी से बिरला पिलानी आ जायेंगे. उसी संस्था के नामचीन उनके शुक देव पांडे ददा भी यही चाहते रहे. पर दिसंबर बीत गये की रात ही वह चुपके से विदा हो गए.
(DSB Memoir by Prof. Mrigesh Pande)
डायरी फड़फड़ाती रही है. पीले पड़े कमजोर कागज में वाले शुरुवाती पन्नों में उनके लिखे में बड़ी उमंग तरंग है. के एन साब ने आज कहा कि जो भी एजुकेशन हम देते हैं वह प्रसन्नता और संतोष प्राप्त करने की बात करती हैं. हर किसी को इसी की तलाश है. अब ये खुशी इस बात की भी परवाह नहीं करती कि हमारे पास क्या है और क्या नहीं. खुशी को हम खरीद थोड़ी सकते हैं. यह कोई चीज थोड़ी है? खुशी तो हमारे भीतर ही है हरीश बाबू. इसे बाहर कहीं ढूंढने की आदत छोड़नी होगी. बस अपने काम में डूब जाएं तो खुशी ही खुशी.
पहले के दौर में डीएसबी के इंटर सेक्शन का प्राचार्य महाविद्यालय का वरिष्ठ प्रोफेसर बनाया जाता था. उनमें इतिहास के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर इंद्र किशन गंजू से बप्पा जी की गहरी मित्रता थी. जब हमारा संयुक्त परिवार कैंट रोड में टेम्पर्टन में रहने लगा तो ठीक बगल के पडोसी गंजू साहिब रहे. चाहे अपने घर की बैठक हो या बाहर खुला बरामदा उनके आगे हमेशा मोटी मोटी किताबों, पत्रिकाओं , अखबार का ढेर होता. मोटा चश्मा लगाए वह पढ़ते रहते. कितनी बार तो मोटी सी किताब हाथ में पकड़ टहलते हुए जोर जोर से पढ़ने लगते. फिर सामने रखी कॉपियों में कुछ नोट करते. फिर अचानक ही उठ खड़े हो टहलने लगते. इस क्रम में भीतर से उनकी श्रीमती जी यानी हमारी ताई बड़ी सी ट्रे में चाय का पॉट ला सामने की खाली मेज में रखती और चाय के दो प्याले बनाती. पहले टी कोजी से ढकी कितली का बाहरी आवरण उतरता, कप में चाय के पानी की भाप उड़ती दिखाई देती, फिर चम्मच से चीनी डलती और आखिर में दूध. दोनों चाय पीते बातें करते. उनके बरामदे को जाते रास्ते के ऊपर खूब बड़ा मैदान था.वहां हमारी धमा चौकड़ी मची रहती. गंजू साब जब घर से बाहर होते तभी हम उनकी छत पर खेलने की हिम्मत जुटा पाते वरना उनकी कड़क डांठ सुनाई देती. और पूरेन्दर आ हमको भगाता. पुरेन्दर उनका लड़का था और हमसे काफी बड़ा हमारा बॉस था. गंजू साब अक्सर मोहल्ले के हम बच्चों की पेशी भी लगा देते, कुछ भी उजाड़ हो या गंदगी उन्हें सहन न होती. यहां तक कि कैंट का सफाई कर्मी भी नीचे सड़क पर झाड़ू लगाने में सुबह कभी लेट हो तो उसकी भी पेशी होती. वह भी कभी मेहतारी की तबियत, कभी अपनी चोट पटक का हवाला देता तो गंजू साब शांत हो जाते फिर उसे कुछ बक्शीश देते ताकि वो इलाज कराए. पुरेन्दर हमको बताता कि ये साला इस पैसे से ठर्रा पी जाएगा और मेहरारू की हड्डी बजाएगा.
गंजू साब संगीत के बड़े शौकीन थे वह भी शास्त्रीय जो हमारे पल्ले न पड़ता पर उनकी महफ़िल में अर्गल साब, परती साब, बसलस साब, पुत्तू लाल शुक्ला जी, सिंह साब, संकटा प्रसाद जी के साथ बप्पा जी मोहन बाबू डंगवाल साब मौजूद होते. बड़े बैठक में बिछे कालीन, दीवार की टेक को तकिये, लोबान की खुशबू. हमारी ईजा, चाची, माया दी के साथ पड़ोसी उनकी बहुत ही साफ रसोई में करीने से काम करती दिखतीं. हमारे ऊपर भोज मास्साब रहते. उनकी श्रीमती जी यानी हमारी स्नेहिल काकी जिन्हें सारा मोहल्ला भोजयाणी कहता, ऐसे सिंगल पुए तलतीं, लोहे की कढ़ाई में आलू के गुटके बनाती कि वाह-वाही मच जाती. खन्ना साब की श्रीमती जी को खन्या णी कहा जाता उनके हाथ के बने लड्डू, कचौरी और तरह तरह की नमकीन बेमिसाल थी. मोहल्ले में कहीं न कहीं कुछ न कुछ होता रहता और मिलजुल कर कितना कुछ बनता. अक्सर अंगीठी सुलगाने, सामान इधर उधर रखने में किशोर हो रहे अपना योगदान देते. कितने लोगों से कितनी चीजें सीखने को मिलतीं. लड़के सब खुराफाती और लड़कियां सीप वाली. गंजू आंटी ने तो सारे मोहल्ले की औरतों को सिलाई बुनाई क्रोशिया रफूगीरी में एक्सपर्ट बना दिया था.
आमा कहती कि बड़ी भागवान है ये. देखो दोनों मियां बीबी हमेशा खुश दिखाई देते. मैं भी देखता गंजू साब बाहर बरामदे में मोटी सी किताब टेबल में धरे उसके पन्ने पलटते कुछ लिखते मुस्काते भी. कभी ठट्ठा मार हँसते भी. चाय का कप हाथ में पड़े दोनों दंपत्ति कभी देर तक पड़ती मूसलाधार बारिश को तकते रहते. खुद भी भीग रहे इसकी परवाह नहीं. और बरफबारी के दिनों में तो गंजू साब गम्बूट पहन खुली सड़क से हो ऊपर मैदान में जाते सब मोहल्ले के बच्चों को धाल लगाते. वहाँ बरफ के पुतले बनते. बच्चों की पल्टन का सेना नायक होता पूरेन्दर. उसकी विजय से गाढ़ी दोस्ती थी. विजय यानी टेम्परटन की सबसे ऊँची मंजिल में रहने वाला हम सब का उस्ताद. उसके पिता डॉ शर्मा डॉक्टर थे. दवा देने में कंजूस. एक गोली दो चार भाग में काट देते और कहते अब ये दो दिन की दवा है, सुबह शाम खाना. चल भाग, ठीक हो जायेगा. लापरवाही करते हो बीमार पड़ते हो. रोज पसीना बहाओ. उनकी पत्नी फ्रांसीसी थीं, बड़ी वाली नर्स यानी मिस्ट्रेस. दोनों में खूब बहस होती. कप प्लेट भी टूटते. भूचाल आता फिर दोनों घूमने के लिए जाते दिखते.ऑन्टी खूब सज संवर निकलती. रूज, क्रीम लिपस्टिक जिसे हमारे घर की औरतें बड़ी हौस से देखतीं. हमारे घर इन सब का चलन कहां था. फ्रांसीसी ऑन्टी अपने बॉब कट सुनहरे बालों के बीच की लाइन में इंगूर की टिक्की भी लगाती. डॉक्टर शर्मा तो अलमस्त टहलते. वही मुड़ा-तुड़ा कोट, नीचे को बगती जैसी पैंट, ढीली टाई और सर पर हैट. जाड़े शुरू हुए नहीं उनका ओवरकोट सबसे पहले निकलता. फिर गंजू साब के एक से बढ़ कर एक गरम कपड़े खुलते.
(DSB Memoir by Prof. Mrigesh Pande)
पूरेन्दर ने ही बताया था कि अब हिन्दुओं को कश्मीर से भगा दिया जा रहा. एक से बढ़ एक ओहदों पर थे उसके परिवार वाले. आजादी क्या मिली अब खराब हालतों में सब कुछ छोड़ बाहर निकल नौकरी करने को अच्छा समझते हैं. मजबूर भी हैं. सीमा पर उनका परिवार भी यहाँ वहां भटकता रहा. यह सब बातें बताते वह गुस्से से लाल पड़ जाता. उन साले हरामियों को काटने चीरने की बात करता. अपने पास आठ नौ इंच लम्बा चक्कू भी दिखाता. वो पढ़ाई लिखाई में बड़ा होशियार था और डॉ शर्मा का बड़ा बेटा विजय भी जो डॉक्टरी की तैयारी में दिन रात एक किये रखता. विजय से छोटी शीला दी थी जो अब डीएसबी में पढ़ने लगीं थीं और फिर गीता और राकेश जो सेंट मेरी और सेंट जोसफ में पढ़ते. उनकी संगत में तेज-तेज अंग्रेजी में बोलने का सऊर सबकी जुबान चढ़ गया था. यहाँ तक कि कपूर साब की कोठी को जाने वाली सड़क के बगल में खेल के मैदान के परली तरफ गाय भैंस पाल सारे मोहल्ले में दूध की सप्लाई करने वाली मोतिमाँ का नाती धंतू भी अंग्रेजी बोलने में धार चढ़ा चुका था.ऊपर टेम्परटन कॉटेज में रहने वाले अंग्रेजी के प्रोफेसर डी के लाल उसकी खूब पीठ थपथपाते. उनके लड़के हमारे खुराफाती दल के थिंक टैंक थे. इन सब से ऊपर जुबली विला में वन विभाग के मुखिया जोशी जी रहते जो कंसर्वेटर साब के नाम से जाने जाते. इससे ऊपर अयारपाटा का विस्तृत जंगल था जिसके कैलाखान से ऊपर की सरहद लड़ियाकांटा की पर्वत श्रृंखलाओं तक थी. डीएसबी परिसर के अपने आवास के साथ चीना रेंज में स्थित फारेस्ट के घर में भी हमारा परिवार रहा जहाँ मेरे छोटे कक्का रेंज ऑफिसर थे. इस घर से लड़िया कांटा की ऊँची चोटी देख उस पर चढ़ने की मुझमें सनक सवार थी. पर सब टाल जाते.
जारी…
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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