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भवाली के लोग भूले नहीं हैं डॉ. आन सिंह को

पचास के दशक के अन्त में जब होश संभाली, तो घर में किसी सदस्य के गम्भीर बीमार पड़ने पर डॉ. आन सिंह जी को उपचार हेतु बुलाया जाता. घर की देहली पर उनका कदम रखते  ही मरीज व परिजनों का आधा तनाव जाता रहता. (Dr. Aan Singh Bisht Bhowali)

उनका आत्मीयता पूर्ण पहाड़ी अन्दाज में बोलना- “अरे के नी है रय, अल्लै ठीक व्है जाला’’ (अरे कुछ नहीं हो रहा, अभी ठीक हो जाओगे) मरीज को इतनी तसल्ली देता कि मनोवैज्ञानिक रूप से वह अपनी बीमारी को छोटी मोटी समझकर आधा तो तत्काल ही हल्का महसूस करने लगता, रही सही कसर डॉक्टर साहब की दी गयी दवाएं पूरा कर देती. उस समय ऐसी कोई गम्भीर बीमारियां हुआ भी नहीं करती. खानपान शुद्ध था, ज्यादा से ज्यादा बुखार, टाइफाइड, निमोनिया, पीलिया और ब्लड प्रेशर का नाम तो सबसे पहले मैंने उनकी ही जुबान से सुना था, जब उन्होंने ईजा को ब्लड प्रेशर की बीमारी बताया था. छोटी-मोटी बीमारियां पर तो डॉक्टर बुलाने की जरूरत ही नहीं पड़ती, लोगों में रोग प्रतिरोधक क्षमता इतनी अधिक थी कि वे स्वतः ठीक हो जाती. शायद दवाइयों का कम सेवन इसका कारण रहा होगा.

डॉ. आन सिंह बिष्ट

सन् 1910 में अल्मोड़ा जनपद में चितई के पास पिठौनी गांव में जन्मे डॉक्टर साहब की जो छवि स्मृति पटल पर अंकित है -स्थूल शरीर, चौड़ेमाथे पर पीछे की ओर किये कुछ काले तथा कुछ सफेद  बाल, (अपनी याददाश्त पर जैसा मैंने देखा) आँखों के नीचे लटकी हुई झुर्रिया, बड़ी-बड़ी आंखें, चौड़े नथुने, कोट के नीचे चौड़ी मोहरे की ’क्रीज्ड’ पेन्ट तथा क्रेप सोल के जूते और हाथ में दवाओं से भरा लैदर बैग, जिसमें स्टेथोस्कोप से लेकर बीपी नापने की मशीन रहती. चेहरे से जितने रौबीले लगते, स्वभाव व बोलचाल में उतने ही आत्मीय. पहाड़ी लोगों से कभी उन्हें हिन्दी में बात करते नहीं सुना. जिससे हर ग्रामीण को वे बाहर के कोई आदमी नहीं बल्कि अपने ही साथ के महसूस होते. सहज एवं सरल इतने कि घर आने पर उन्हें जमीन पर दरी अथवा बोरा बिछाकर कहीं बिठा दीजिए, कोई तकल्लुफ नहीं.

डॉ. आन सिंह जी ने भवाली स्टेट डिस्पेंसरी में बतौर मेडिकल आफिसर सालों-साल सेवाऐं दी. हालांकि इसी पद पर वे चांफी तथा भीमताल के अस्पतालों में भी रहे, लेकिन ज्यादा समय स्टेट डिस्पेंसरी भवाली में ही सेवाऐं दी. तब  अस्पताल गांधी कालोनी में चर्च के नीचे हुआ करता. घर के पिछवाड़े में उन्होंने मुर्गियों का एक बाढ़ा भी बनाया था, जिससे ताजे अण्डे रोज मिल जाया करते थे. क्षेत्र में उनकी प्रसिद्धि इतनी थी कि दूर दूर से लोग गम्भीर मरीज को देखने उन्हें घर बुलाते. पदमपुरी, धानाचूली, मुक्तेश्वर, रामगढ़, गेठिया, ज्योलीकोट, भूमियाधार, कैंची, निगलाट से लेकर गरमपानी तथा सुयालबाड़ी तक की जनता उनके उपचार की कायल थी और बीमारी की अवस्था में उन्हें घर पर बुलाने की हर जुगत करती. जहां तक गाड़ी की सुविधा होती, लोग उन्हें बस में ले जाते और जहां बस सुविधा नहीं होती, तो घोड़े में बिठाकर डॉक्टर साहब को गांव के घरों तक ले जाया  जाता. उस जमाने में डॉक्टर की फीस भी मात्र 5-10 रुपये हुआ करती थी. पेशा डॉक्टर का होते हुए भी वे पेशेवर डॉ. की तरह फीस का लालच कभी नहीं करते. उल्टा गरीब मरीजों के पास दवा के अथवा बस के टिकट का पैसा न होने पर उन्हें खर्चा अपने पास से दे देते. उनके पुत्र मोहन बिष्ट बताते हैं कि एक बार एक ग्रामीण महिला उनके पास उपचार हेतु आई, उनके मतलब की दवा डॉक्टर साहब ने उन्हें मुफ्त में दे दी. डॉक्टर साहब के स्टोर में दवा देखकर वह महिला लोभवश घर के दूसरे सदस्यों के लिए दवा मांगने लगी और डॉक्टर साहब ने उसे निराश न करते हुए उसके द्वारा मांगी गयी सारी दवाऐं उसे निःशुल्क दे दी. अगला मुफ्त में दवा लेने पर शर्मिन्दगी महसूस न करे, वे कह दिया करते-जब पैसे होंगे, दे देना.

बीमार के घर पहुंचते ही वे बच्चों को पुचकारते हुए एक कटोरे में पानी गरम करने को कहते, जो सीरिंज को ’स्टर्लाइज’ करने के लिए करवाया जाता. कभी-कभी डिस्टिल्ड वाटर न होने पर पानी उबालकर उसके भाप से डिस्टिल्ड वाटर बनाना भी उनसे ही सीखा था हमने. बाद-बाद में उन्हें हमें यह सब बताने की जरूरत नहीं पड़ती , हम बच्चे घर के अन्दर उनके कदम रखते ही कटोरे में पानी लेकर चूल्हे में गरम करने दौड़ पड़ते. ग्रामीणों को दवा की गोलियों के बजाय इन्जेक्शन में ज्यादा विश्वास होता है, ग्रामीणों की इस नब्ज को भी वे अच्छी तरह जानते. इन्जेक्शन और कुछ खाने की गोलियां देने के बाद ही मरीज की तबियत में सुधार नजर आने लगता. लोग कहते डॉक्टर साहब के हाथ में ’जश’ (यश) है. इसमें सच्चाई भी थी कि उनके उपचार से तुरन्त राहत मिल जाती.

डॉक्टर को ईश्वर का प्रतिरूप माने जाने की धारणा के पीछे मूल कारण यही है कि सब जगह से निराश होने पर इन्सान या तो ईश्वर का आसरा लेता है अथवा बीमारी की दशा में अन्तिम उम्मीद डॉक्टर से ही रहती है. इसे उनके हाथ का ’जस’ कहें या मरीज की उनके प्रति अगाध आस्था कि कई मरीज ऐसे भी उन्होंने ठीक किये जो दिल्ली से तक निराश लौट आये थे. भवाली जैसी छोटी जगह में जहां न जांच के उपकरण और न सारी दवाऐं उपलब्ध हों, ऐसी जगह पर गम्भीर बीमारियों का उपचार कर देना या तो उनकी मरीज के मनोवैज्ञानिक उपचार की कला ही कहा जा सकता अथवा मरीज की चिकित्सक के प्रति अगाध आस्था का प्रतिफल. 

कई वर्षों तक सरकारी अस्पताल में सेवाऐं देने के बाद वर्ष 1970 में रिटायरमेंट के बाद उन्होंने भवाली के पुराने जीजीआईसी भवन के पीछे किराये के आवास पर लगभग 6-7 महीनों तक अपना क्लीनिक चलाया. बाद में रामगढ़ रोड पर उन्होंने लल्ली मन्दिर के सामने जो भूखण्ड खरीदा था, उसी में अपना आवास बनाया और यहीं क्लिनिक भी शिफ्ट हो गया. ताउम्र यहीं से जनता को अपनी क्लीनिक की सेवाऐं देते रहे. उनके घर के क्लिनिक में भी मरीजों का सदैव तांता लगा रहता था, क्या रात क्या दिन. कभी कभी तो आधी रात को भी मरीज आते तो अपनी वृद्धावस्था के बावजूद वे तसल्ली से उसे देखते. क्षेत्रीय जनता के दिल में उन्होंने जो जगह बनायी, आज के बड़े राजनेता भी वो सम्मान हासिल नहीं कर पाते. उनके द्वारा क्रय किये गये भूखण्ड पर ही ’आन सिंह मार्केट’ नाम से वर्ष 2000 से बाजार विकसित हो चुका है.

उनके तीन पुत्र व तीन पुत्रियां थी. जनता का इतना भला करने वाले पर भी कुदरत की मार कब पड़ जाय, यह इन्सान के हाथ में नहीं है. दुर्भाग्यवश उनके दो पुत्र तथा दो पुत्रियों का असमय ही निधन हो गया. वर्ष 1982 में डॉ. आन सिंह जी का निधन उनके भवाली स्थित आवास में हुआ , लेकिन हमारी पीढ़ी के लोगों में आज भी उनकी उदार छवि अंकित है.

वर्तमान में उनके एक पुत्र मोहन सिंह बिष्ट भवाली की आदर्श रामलीला कमेटी के अध्यक्ष होने के साथ सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं.     

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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं

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Sudhir Kumar

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