Featured

गाँव की बर्फबारी में नंदादेवी बनाना

बर्फीली याद, गाँव की

बड़े दिनों बाद, गाँव गया था. देखना था कि गाँव की मिट्टी की तासीर कुछ बदली है या वैसी ही है, जैसी छोड़ आया था, वर्षों पहले. आसमान की तो आँखें भीग आयीं, मुझे देखकर. और धरती ने सफेद कालीन बिछा दिए, स्वागत में. इतने मोटे कि मोटरों के चक्के जाम हो गए. गोया कह रहे हों – आपके कालीन हैं बहुत सफेद, हम इन पर काले टायर चढ़ायें कैसे. बचपन में बर्फवारी होने पर नंदादेवी बनाया करते थे, बर्फ की. इस खेल में सारी ठंड जाने कहां चली जाती थी. फिर से बनायी इस बार और बगलगीर हो खिंचवायी एक तस्वीर. ये जानने के लिए कि बचपन की मासूमियत की वो झलक क्या अब भी शेष होगी. या बर्फ का विज्ञान, मौसम का भूगोल और पर्यावरण की पलटियां समझने-जानने के गुरूर के बादलों ने उसे ढक दिया होगा.  (Villages and snowfall in Uttarakhand)

बड़े दिनों बाद, एक चिर-परिचित पुराने दृश्य का साक्षात्कार हुआ. बदले हुए किरदारों के साथ. लोग अब बर्फवारी का आनंद नहीं लेते, गाडि़यां न चलने पर झुँझलाते हैं. लोग उन पकवानों को भी भूल गए हैं, जो सिर्फ बर्फवारी के लिए ही आरक्षित थे. गैस के प्रचलन ने सामूहिक रूप से आग तापने और किस्सागोई के हुनर को प्रदर्शित करने के अवसरों को भी सीमित कर दिया है. नेटवर्क न होने की गमी में खुशनुमा मौसम की खुशी देखी ही नहीं जा रही है. और बिजली न रहने का अर्थ तो आज्ञाकारी सेवक के लम्बी छुट्टी चले जाने जैसा हो गया है. सपने जैसा बिनसर सपने जैसी बर्फ

बड़े दिनों बाद, शिक्षकों-बच्चों को इस बात पर खुश होते देखा कि डी.एम. और एस.डी.एम. अपने कर्त्तव्य का सही ढंग से निर्वहन कर रहे हैं, मौसम खराब होते ही छुट्टी की घोषणा कर रहे हैं. ये जानकर अफसोस भी हुआ कि लोग क्या इतने विवेकशून्य हो गए हैं कि अगर सरकारी घोषणा न हो या उन तक न पहुँचे तो वो ऐसे मौसम में भी बच्चों की सुरक्षा के दृष्टिगत छुट्टी नहीं करेंगे.

बड़े दिनों बाद, गाँव को गौर से देखा था. कंक्रीट-दानव के निगलने से पठाल वाली छतें छीजती जा रही हैं. चीड़ वृक्षों ने सघन बाँज-वन में घुसपैट कर दी है. काई और घास से पटे हुए धारे-पंदेरे, गागर-बंठो की बाट जोेह रहे हैं. घर-घर की छत पर विराजमान डिश बता रहे थे कि रामलीलाएँ अब भी होती हैं पर घरों की चाहरदीवारी के अंदर. बाहर खुले में तो अब भी पिछले ग्रामसभा चुनाव के महाभारत का कोई अध्याय लिखा जा रहा है.

बड़े दिनों बाद, समझ आ रहा था, पुराने गाँव की जगह, एक नया गाँव पनप रहा है. वही अब मेरा गाँव होगा और बदली हुई सूरत के साथ स्थायी पता भी.

        लौटते हुए सोच रहा था –

मैं!

हँसते-मुस्कराते फूल

बिखेर आया पीछे

जैसे बिखेर जाती है

कोई बिटिया

अक्षत-अनाज

मायके से

विदा होते वक्त.

मैं! समेट के ले आया

खुशबू के पैरहन

कि जैसे ले जाती है

कोई तितली

हौले-से, मिठास के साथ.

मैं बुरांस-वन में गाती हुई

हिलांस को छोड़ आया

कि जैसे छोड़ जाता है

कोई बटोही

किसी घसेरी की स्वर-लहरियों को.

मैं समेट लाया

उसके गीतों में छुपी पीड़ा

जैसे तसल्ली से

रख लेता है

मरीज़ कोई पेनकिलर.

मैं हिमालय को

चूम कर लौटती हवाओं को

छोड़ आया

कि जैसे छोड़ आता है कोई

प्रिय-मुख पर

अधरों की छाप.

मैं साथ ले के आ गया

पहाड़ों का प्यार

कि जैसे रखता है

साथ, लाम का सिपाही

प्रेम-पाती

1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

View Comments

  • Kaafal Tree sends out very good reading material.
    Information ,photos about Uttarakhand are of excellent quality.
    Descriptions in prose & poetry are appealing to one's mind and heart both.
    I wish Kafal Tree organizers a very happy New-Year.

Recent Posts

स्वयं प्रकाश की कहानी: बलि

घनी हरियाली थी, जहां उसके बचपन का गाँव था. साल, शीशम, आम, कटहल और महुए…

6 hours ago

सुदर्शन शाह बाड़ाहाट यानि उतरकाशी को बनाना चाहते थे राजधानी

-रामचन्द्र नौटियाल अंग्रेजों के रंवाईं परगने को अपने अधीन रखने की साजिश के चलते राजा…

6 hours ago

उत्तराखण्ड : धधकते जंगल, सुलगते सवाल

-अशोक पाण्डे पहाड़ों में आग धधकी हुई है. अकेले कुमाऊँ में पांच सौ से अधिक…

1 day ago

अब्बू खाँ की बकरी : डॉ. जाकिर हुसैन

हिमालय पहाड़ पर अल्मोड़ा नाम की एक बस्ती है. उसमें एक बड़े मियाँ रहते थे.…

1 day ago

नीचे के कपड़े : अमृता प्रीतम

जिसके मन की पीड़ा को लेकर मैंने कहानी लिखी थी ‘नीचे के कपड़े’ उसका नाम…

1 day ago

रबिंद्रनाथ टैगोर की कहानी: तोता

एक था तोता. वह बड़ा मूर्ख था. गाता तो था, पर शास्त्र नहीं पढ़ता था.…

2 days ago