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दोगांव की टिक्की न खाई तो क्या खाया

हल्द्वानी-नैनीताल राजमार्ग पर हल्द्वानी से 14 किलोमीटर दूर स्थित दोगांव बहुत लम्बे समय से पहाड़ की तरफ आने-जाने वाली गाड़ियों का एक जरूरी पड़ाव रहा है. और दोगांव का नाम आने पर ऐसा हो ही नहीं सकता कि यहाँ मिलने वाली मशहूर आलू की टिक्की का ज़िक्र न आये. लम्बे समय से इस रास्ते पर चलने वाले यात्रियों को याद होगा पहले यहाँ केवल दो दुकानें हुआ करती थीं- एक ऐन हल्द्वानी जाने वाले मोड़ पर सड़क के ऊपर जबकि दूसरी उसके थोड़ा आगे दूसरी तरफ थी. यह दूसरी दुकान दीवान सिंह चम्याल जी की है जिसमें लगभग चार दशकों से वे आलू की टिक्की बेच रहे हैं. यकीन मानिए एक बार खाने पर उनकी बनाई टिक्की का दिव्य स्वाद आपकी जीभ से किसी लत की तरह चिपक जाता है. और टिक्की के साथ परोसे जाने वाले काले चनों की बात ही कुछ और होती है जिन्हें रात भर भट्टी में लकड़ियों की आग में गलाया जाता है. (Dogaon Aloo Tikki Diwan Singh)

वर्षों की साधना से दीवान सिंह जी टिक्की-चनों में डाले जाने वाले मसालों के अद्भुत संयोजन को अब इस कदर साध चुके हैं कि उनकी अद्वितीयता की नक़ल दूसरा कोई कर ही नहीं सकता. पिछले दिनों हमने उनसे मुलाक़ात की और उनके दिलचस्प जीवन के बारे में कुछ मालूमात हासिल कीं. (Dogaon Aloo Tikki Diwan Singh)

दीवान सिंह के दादा-दादी पहाड़ में कहीं से यहाँ निकट के डोलमार गाँव में आ बसे थे. पहाड़ में किस गाँव से आये थे यह उन्हें याद नहीं है. उनके पिता जी ने वहीं काश्तकारी वगैरह की और मौक़ा मिलने पर कुछ दूसरे काम भी किये. इनमें एक काम होता था अंग्रेजों के दौरों के समय पुलों और कलमटों की चौकीदारी का जिसकी बाबत बाद में बताया जाएगा.

तो इस काश्तकार परिवार में 1943 में जन्मे दीवानसिंह को डोलमार के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने भेजा गया जहां उन्होंने कक्षा एक तक पढ़ाई की. उसके बाद पारिवारिक परिस्थितियों के चलते पढ़ाई नहीं हो सकी. बहुत छोटी आयु से उन्होंने घर की खेतीबाड़ी में हाथ बंटाना तो शुरू कर ही दिया था, जंगल में गाय-बछिया चराने का कम भी करना ही होता था. परिवार में कुल छः भाई-बहन थे.

गर्मियों के सीजन में दीवान सिंह गाँव के अन्य बच्चों के साथ जंगल जाते थे और काफल, तिमिल, हिसालू, किल्मौड़ा जैसी जंगली बेरियाँ इकठ्ठी कर उन्हें बेचने नीचे दोगांव आ जाते थे. उन दिनों भी दोगांव में बहुत से पर्यटकों का आना-जाना लगा रहता था. इन पर्यटकों को लाने-ले जाने का काम रोडवेज और केमू की बसें किया करती थीं. उन्हें याद है उनके बचपन में रोडवेज में फुलमैन कंपनी की बसें और ठेले चला करते थे. उन्हें यह भी याद आता है कि बचपन में उन्हें इन बसों को देख कर डर लगता था – वे किसी जंगली जानवर की जैसी दिखाई देती थीं. इसके अलावा केमू की बसें भी चलती थीं. इन बसों में में अपर और लोअर क्लास की देतें होती थीं जिनमें एक आना देकर दोगांव से बीरभट्टी और आठ आने में हल्द्वानी जाया जा सकता था.

नैनीताल जाने वाली पहली बस हल्द्वानी के किन्हीं बख्शी जी की थी जबकि दूसरी बस नैनीताल के एक साह जी ने खरीदी. साह जी वाली बस का नम्बर उन्हें अब तक याद है – चौंतीस अठारह (3418). हल्द्वानी-नैनीताल के बीच दो बसें चला करती थीं – एक सुबह और एक दिन में.

18-19 की आयु होते-होते उनका विवाह डोलमार में ही रहने वाले खाती परिवार की एक कन्या से करा दिया गया. उसके बाद 1968 में उनके पिता ने दोगांव वाली जमीन खरीदी और उनका परिवार यहीं आ गया.

उस समय तक दोगांव में एक दुकान पहले से ही थी- दुकान क्या थी फूंस से बना एक छप्पर था जिन्हें नीचे भुजियाघाट के रहने वाले एक किरौला परिवार द्वारा संचालित किया जाता था – इस जगह पर्यटकों-यात्रियों को चाय-नाश्ता मिला करता था. सन1971-72 में दीवान सिंह चम्याल जी ने भी यहाँ ऐसी ही खुली छत वाली दुकान खोल ली जिसे 1974-75 में छप्पर का रूप दिया गया.

इस छप्परनुमा दुकान में शुरुआती प्रयोगों के बाद उन्होंने केवल तीन चीजें बनाना तय किया – आलू की टिक्की, ब्रेड पकौड़ा और काले चने. और हाँ इलायची वाली चाय भी. इससे पहले पहाड़ों के हर ढाबे की तर्ज पर वे आलू वगैरह भी बनाते थे पर ये चीजें जल्दी खराब हो जाया करती थीं.   

जब उनसे पूछा जाता है कि उन्होंने ऐसी स्वादिष्ट टिक्की बनाना कहाँ सीखा तो वे सादगी से मुस्करा कर कहते हैं – “खुद ही सीखा. मन हो तो सब कुछ सीखा जा सकता है!”   

अपने समय को याद करते हुए दीवान सिंह जी बताते हैं कि उस समय चीजें बहुत सस्ती हुआ करती थीं – तेल का कनस्तर 45 रुपये का मिलता था जबकि आलू की बोरी 15 रुपये में आ जाती थी. और चाय उन दिनों केवल लिप्टन और ब्रूक बांड की चला करती थी. आज कल की तरह नहीं कि पचासों ब्रांड बाजार में आ गए हैं.

अपनी अब खासी बड़ी बन गयी दुकान में टंगी रंगबिरंगी प्लास्टिक की मालाओं की तरफ तकरीबन हिकारत से देखते हुए वे कहते हैं – “ये टॉफी वगैरह अंटसंट कभी नहीं बेचा मैंने. अब मेरा लड़का दुकान चलाने वाला हुआ तो वही यह सब करता है. ये जितनी चीजें यहाँ लटकी हुई हैं ना मुझे तो इनका नाम भी नहीं आता!”

वे जब बहुत छोटे थे तो उन्होंने अपने पिता से अंग्रेजों की कहानियां सुन रखी थीं. पिताजी बताया करते थे अंग्रेजों के बारे में जो काठगोदाम तक रेल से आते थे और फिर गाड़ियों-घोड़ों में बैठकर ऊपर पहाड़ों की और जाते थे. अंग्रेज अफसरों के दौरे होते थे तो स्थानीय पटवारी या अन्य सरकारी कर्मचारी उन्हें पुलों वगैरह पर पहरेदारी के लिए तैनात कर दिया करते थे.

अंग्रेजों के भारत से चले जाने की भी दीवान सिंह जी को याद है. यह अलग बात है की उनमें से थोड़े बहुत अंग्रेज नजदीक के ज्योलीकोट में 1947 के बाद भी काफी सालों तक रहे थे. ज्योलीकोट में अंग्रेज लोग एक मिशन स्कूल बना गए थे जिसके द्वारा आसपास के लोगों को मुफ्त में गेहूं, चावल और दूध पाउडर जैसी चीजें मिलती थीं. इसके लिए लोगों को दो आने में बनने वाला कार्ड अपने साथ लेकर जाना होता था.  

काम जम जाने के बाद उन्होंने दोगांव में अपना घर बनाया – “जिस साल इंदिरा गांधी मरीं उस साल बनाया घर! मतलब 1984-85 में. 1991 में इजा की मृत्यु हुई और 1992 में बाबू की! अब तो बच्चे भी लग गए हिसाब से. लड़का इस दुकान को चलाता है और उसकी भी शादी-बच्चे वगैरह सब हो गया. आठ-दस नाती-नातिनें हैं मेरी अब!”

मैं उनके अन्य भाइयों के बारे में जानना चाहता हूँ.

“सबसे बड़े दाज्यू हुए – तो वो दिल्ली में काम करते थे किसी ट्यूबवैल कंपनी में. बाद में यहीं आ गए. दूसरे नंबर पर मैं हुआ. दो भाई और थे जिनकी अब मृत्यु हो चुकी है – इनमें से एक मिलिट्री में था जबकि एक ने घर पर ही रहकर ठेकेदारी वगैरह की.”

“यह काम मैंने ही किया – खुद अपने से!” – किंचित गर्व के साथ वे बताते हैं और कढ़ाई में टिक्की तल रहे कारीगर को जरूरी हिदायत देने लगते हैं.

हल्द्वानी-काठगोदाम से नैनीताल-ज्योलीकोट-बीरभट्टी की तरफ जा रहे हों तो दीवान सिंह चम्याल जी की टिक्की खाना न भूलें. पिज्जा-बर्गर के जमाने में यह एक बचा हुआ पुरातन स्वाद है जिसकी एक प्लेट खा कर आपका मन नहीं भरेगा! गारंटी!

यह भी पढ़ें – दोगांव के भुट्टे वाले भट्ट जी के बहाने समूचे पहाड़ की संघर्षगाथा

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Kafal Tree

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  • Ab mai 62 sal ka hu retired director med deptt.meri age 27 sal ki ti ,tb mai govt medical officer k pad pr distt nainital me posted ta .mai yha 1984 se 1988 tk haldwani,garampani aur okhalkanda phc pr tainat rha.mai Kanpur ka rhne wala hu. Mere liye pahar ka jivan bilkul Naya ta.iske pahle distt tehri me 1983-84 me rha.maine sarkari Naukri k sath ,enjoy khub kiya.bht achhe log,acha climate,na machar,na makhi.mai newly married ta, aur Baad me 2 Bache yhi hue.dogaon k chamyal ji ki tikki aur bread pakora bht khaya hai.sidhe sade log mere jahan me Abi bi base hain.yh post par kr purane dino ki yaden taza ho gi,1988 me plains me transfer ho gya.pr Uske Baad bi Kai Baar nainital family k sath gya hu.bacho ko btaya hi ki tum logo ka birth yhi hua ta.une b acha lgta hai.2000 me Naya state bn gya.pr Aj bi purane dino ki yaden taza hai.thnx pande ki.mb 6386622120

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