मुंबई के प्रसिद्ध बांद्रा-वर्ली सी लिंक से गुजरते हुए जो पहला खयाल दिमाग में आया था वो ये कि जब अरब सागर पर ऐसा पुल बन सकता है तो टिहरी झील के आर-पार ऐसा ही पुल बनाने में क्या कठिनाई हो सकती है. लगभग साढ़े पाँच किलोमीटर लम्बा यह सीलिंक मुम्बई के बांद्रा इलाके को वर्ली से जोड़ता है. इस सीलिंक के बन जाने से ट्रैफिक का लगभग 20 मिनट का समय बचता है. सीलिंक के दोनों छोरों की ओर कंक्रीट पिलर्स का भी इस्तेमाल हुआ है पर बीच का 600 मीटर हिस्सा पूरी तरह केबल-स्टेड है अर्थात झूला पुल की तरह है. (Dobra-Chanti Bridge Connecting)
29 अक्टूबर 2005 को टिहरी बांध की अंतिम टनल बंद हो जाने के बाद 2006 में टिहरी शहर पूरी तरह जलमग्न हो गया था. साथ ही झील पार के प्रतापनगर ब्लॉक को टिहरी से जोड़ने वाले सभी झूला और मोटर पुलों के भी डूब जाने से प्रतापनगर का पूरा क्षेत्र कालापानी-सा हो गया था. टिहरी के डूबने से पहले पल्ली पार के जिस मदननेगी क्षेत्र की गिनती जिला मुख्यालय के अंतर्गत ही होती थी वही बांध बनने के बाद जिला मुख्यालय से 60 किमी दूर हो गया था. कालापानी बन चुका प्रतापनगर क्षेत्र शेष टिहरी जनपद से मात्र दो ही पुलों के जरिए जुड़ा हुआ था. पहला घनसाली मार्ग पर पीपलडाली और दूसरा छाम मार्ग पर भल्डियाना. प्रतापनगर के मुख्यालय लम्बगांव से दोनों मार्गों से दूरी क्रमशः 90 व 75 किमी है. बड़े ट्रकों के लिए तो ये दोनों पुल भी काम नहीं आते हैं. उन्हें घनसाली या उत्तरकाशी होकर प्रतापनगर पहुँचना पड़ता था.
प्रतापनगर की जिला मुख्यालय नई टिहरी से लगभग 100 किमी अतिरिक्त दूरी को कम करने के लिए डोबरा-चांठी नामक जगह पर मोटर पुल बनाये जाने का प्रस्ताव हुआ तो लगा कि प्रतापनगर अब अधिक समय तक कालापानी नहीं रहेगा. पर ऐसा आसानी से हो न सका और प्रतापनगर को कालापानी के रूप में पूरे चौदह वर्ष इंतज़ार करना पड़ा. अक्टूबर 2020 में बन कर तैयार हुआ डोबरा-चांठी पुल लोड टेस्टिंग में पास हो गया है. 440 मीटर लम्बा ये सिंगल लेन मोटरेबल सस्पेंशन ब्रिज लोड टेस्टिंग में पास होते ही ऐतिहासिक बन गया है. अब ये भारत का सबसे लम्बा सिंगल लेन मोटरेबल सस्पेंशन ब्रिज बन गया है. इससे पहले अरुणाचल प्रदेश के डिफो सस्पेंशन ब्रिज के नाम ये रिकॉर्ड था. डोबरा-चांठी ब्रिज को अपनी निर्माण अवधि में अनेक बाधाओं का भी सामना करना पड़ा. हालांकि इसका शुरुआती डिजाइन आई.आई.टी. रुड़की और खडगपुर जैसी भारत की श्रेष्ठ तकनीकी संस्थाओं द्वारा तैयार किया गया था पर कई खामियों के चलते एक समय लगता था कि ये प्रोजेक्ट अंजाम तक पहुँचे बगैर ही बंद कर दिया जाएगा. खासकर जब साल 2007 में कार्यदायी संस्था लोक निर्माण विभाग के एक अधिशासी अभियंता का ट्राली से गिर कर दुःखद निधन हो गया था.
डोबरा-चांठी ब्रिज की लागत शुरुआत में 89 करोड़ आंकी गयी थी जो इसके पूर्ण होने पर 150 करोड़ तक पहुँच गयी है. निश्चित रूप से लागत की ये अतिरिक्त वृद्धि दस साल के अतिरिक्त समय के कारण हुई. 18 टन भार क्षमता का वाहन इस पुल से एक बार में गुजर सकता है. टिहरी के प्रतापनगर विकास खण्ड और उत्तरकाशी की गाजणा पट्टी की लगभग 2 लाख आबादी को लाभान्वित करने वाले डोबरा-चांठी ब्रिज को उत्तराखण्ड सरकार द्वारा सदैव ही शीर्ष प्राथमिकता में रखा गया.
डोबरा-चांठी पुल न सिर्फ़ अपनी रिकॉर्ड लम्बाई के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि ये आने वाले समय में लोकप्रिय पर्यटक आकर्षण भी बनने जा रहा है. अत्याधुनिक फसाड़ लाइट्स के जरिए इसने पर्यटकों को लुभाना पहले ही शुरू कर दिया है. शीघ्र ही इसे बोटिंग डेस्टिनेशन के रूप में विकसित किए जाने की भी योजना है.
राज्य स्थापना की 19वीं वर्षगांठ के पूर्वदिवस को इस पुल का उद्घाटन मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत द्वारा किया जाएगा. यूक्रेन और साउथ कोरियन तकनीकी परामर्श से निर्मित डोबरा-चांठी पुल उत्तराखण्ड का एक ऐसा पुल है जो किसी नदी के नहीं बल्कि सागर-सदृश झील के ऊपर बनाया गया है. उत्तराखण्ड का सी-लिंक है डोबरा-चांठी पुल और प्रतापनगर-गाजणा की लाइफलाइन. इसके किसी छोर पर खड़े होकर न सिर्फ़ वाहनों को झील के आर-पार जाते हुए देखा जा सकता है बल्कि चौदह वर्षों की दीर्घ अवधि तक हाशिए पर धकेली हुई आबादी के जीवन में फिर से आती हुई खुशनुमा बहार को भी देखा जा सकता है.
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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.
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