अब तो भूले-बिसरे ही याद आता है हमें रामदाना. उपवास के लिए लोग इसके लड्डू और पट्टी खोजते हैं. पहले इसकी खेती का भी खूब प्रचलन था. बचपन में मंडुवे यानी कोदों के खेतों के बीच-बीच में चटख लाल, सिंदूरी और भूरे रंग के चपटे, मोटे गुच्छे जैसे देख कर चकित होता था कि आखिर यह कौन-सी फसल है? पता लगा वह चुआ (चौलाई) है जिसके पके हुए बीज रामदाना कहलाते हैं. जब पौधे छोटे होते थे तो वे चौलाई के रूप में हरी सब्जी के काम आते थे. तब पहाड़ों में मंडुवे की फसल के साथ चौलाई उगाने का आम रिवाज था. यह तो शहर आकर पता लगा कि रामदाना के लड्डू और मीठी पट्टी बनती है. पहाड़ में रामदाना के बीजों को भून कर उनकी खीर या दलिया बनाया जाता था. एक बार गुप्तकाशी के जैक्स वीन नेशनल स्कूल में विद्यार्थियों को विज्ञान की कहानियां सुनाने गया था. तब स्कूल के अध्यक्ष श्री लखपत राणा के घर पर जीवन में पहली बार, नाश्ते में रामदाने की मुलायम और स्वादिष्ट रोटी खाई थी. रोटी का वह स्वाद अब भी याद है. अब तो पहाड़ में भी खेतों में दूर-दूर तक चौलाई के रंगीन गुच्छे नहीं दिखाई देते हैं. (Disappearing Amaranth from Hill Agriculture)
इतिहास टटोला तो पता लगा, चौलाई के गुच्छे तो हजारों वर्ष पहले दक्षिणी अमेरिका के एज़टेक और मय सभ्यताओं के खेतों में लहराते थे. रामदाना उनके मुख्य भोजन का हिस्सा था और इसकी खेती वहां बहुत लोकप्रिय थी. जब सोलहवीं सदी में स्पेनी सेनाओं ने वहां आक्रमण किया, तब चौलाई की फसल चारों ओर लहलहा रही थी. वहां के निवासी चौलाई को पवित्र फसल मानते थे और उनके अनेक धार्मिक अनुष्ठानों में रामदाना काम आता था. विभिन्न उत्सवों, संस्कारों और पूजा में रामदाने का प्रयोग किया जाता था. स्पेनी सेनापति हरनांडो कार्टेज को चौलाई की फसल के लिए उन लोगों का यह प्यार रास नहीं आया और उसने इसकी खड़ी फसल के लहलहाते खेतों में आग लगवा दी. चौलाई की फसल को बुरी तरह रौंद दिया गया और उसकी खेती पर पाबंदी लगा दी गई. इतना ही नहीं, हुक्म दे दिया गया कि जो चौलाई की खेती करेगा उसे मृत्युदंड दिया जाएगा. इस कारण चौलाई की खेती खत्म हो गई. (Disappearing Amaranth from Hill Agriculture)
चौलाई का जन्मस्थान पेरू माना जाता है. स्पेनी सेनाओं ने एज़टेक और मय सभ्यताओं के खेतों में चौलाई की फसल भले ही उजाड़ दी, लेकिन दुनिया के दूसरे देशों में इसकी खेती की जाती रही. दुनिया भर में इसकी 60 से अघिक प्रजातियां उगाई जाती हैं.
पहाड़ों में चौलाई सब्जी और बीज दोनों के काम आती है लेकिन मैदानों में इसका प्रयोग हरी सब्जी के लिए किया जाता है. इसकी ‘अमेरेंथस गैंगेटिकस’ प्रजाति की पत्तियां लाल होती हैं और लाल साग या लाल चौलाई के रूप में काम आती हैं. ‘अमेरेंथस पेनिकुलेटस’ हरी चौलाई कहलाती है. ‘अमेरेंथस काडेटस’ प्रजाति की चौलाई को रामदाने के लिए उगाया जाता है. हालांकि, मैदानों में यह हरी सब्जी के रूप में काम आती है. चौलाई के एक ही पौधे से कम से कम एक किलोग्राम तक बीज मिल जाते हैं. इस फसल की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसे कम वर्षा वाले और रूखे-सूखे इलाकों में भी बखूबी उगाया जा सकता है. इस भूली-बिसरी फसल के बारे में हम यह भूल गए हैं कि यह एक पौष्टिक आहार है. कई विद्वान तो इसे गाय के दूध और अंडे के बराबर पौष्टिक बताते हैं. (Disappearing Amaranth from Hill Agriculture)
यह विडंबना ही है कि जिस फसल को अब तक हमारी मुख्य फसल बन जाना चाहिए था, उसे कई देशों में तो खरपतवार और गरीबों का भोजन तक मान लिया गया. हमारी बेरूखी से रूखे-सूखे में भी उगने वाली यह फसल गेहूं, धान और दालों की दौड़ में पीछे छूट गई.
एक अनुमान के अनुसार अगर हम पौष्टिकता को 100 मान लें तो रामदाने की पौष्टिकता 75, गाय के दूध की 72, सोयाबीन की 68, गेहूं की 60 और मक्का की 44 है. इसमें उच्च कोटि की प्रोटीन पाई जाती है जो दूध की प्रोटीन ‘केसीन’ के समान बताई जाती है.
कई लोगों को गेहूं के आटे में पाए जाने वाले ग्लूटेन के कारण भोजन पचने में परेशानी होती है. साथ ही एलर्जी के कारण चर्म रोग भी हो जाते हैं. लेकिन, रामदाने का आटा अन्य प्रकार के आटे में मिला कर आराम से खाया जा सकता है. रामदाने के कारण यह काफी पौष्टिक आहार बन जाता है. वैज्ञानिक कहते हैं रामदाना हमारे रक्त में हानिकारक कोलेस्ट्राल की मात्रा को कम करता है. इसलिए यह दिल के मरीजों के लिए भी मुफीद आहार माना गया है. बेक्रफास्ट में इसका दलिया या रोटी खाई जा सकती है.
रामदाने के कई व्यंजन बनाए जा सकते हैं. रोटी, पू़ड़ी और लड्डू बनाने के साथ-साथ भुना हुआ रामदाना शहद के साथ भी खाया जा सकता है. यह सुपाच्य उत्तम आहार है.
समय आ गया है जब हमें चौलाई जैसी अपनी भूली-बिसरी फसलों की खेती को फिर से बढ़ावा देना चाहिए.
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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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