लड़कियों के लिए सड़क की ओर की चढ़ाई चढ़ना किसी यातना से गुजरने जैसा रहा. खड़ी चढ़ाई उनके ही नहीं अच्छे-अच्छों के होश ठिकाने लगा देती थी. दोनों किसी से मिले तथा कुछ कहे बगैर चुपचाप गांव से चले जाना चाहती थी. अपने अलावा उनको किसी और पर भरोसा नहीं था. मगर गांव के सुनसान घरों की महिलाओं को न जाने किस जादू से पता चल जाता था कि बटिया से कोई गुजर रहा है. आने-जाने वाला जान-पहचान का हो तो ठीक. कुछ बात कर ली. हाल-चाल पूछ लिया. जान-पहचान न भी हो तो किसी अजनबी को ओझल होने तक देखना उन्हें न जाने कौन सा सुख देता था. (story Bhagne Wali Ladkiyan )
औरतें न जाने कहां-कहां से प्रकट होकर दोनों के सामने आती गई और ‘कहां जा रहे हो ? कब आओगे ?’ जरूर पूछती थी. मानो उनका साथ छूटना उन्हें मंजूर न हो. पहाड़ की क्लासिक प्रेमकथा : कोसी का घटवार
‘लोहाघाट वाली मौसी के वहां. जा रही हूं… कई दिनों से बुला रही थी. साथ के लिए कमला को ले जा रही हूं.’ उमा रटा-रटाया सा जवाब दे देती. कमला को कोई जवाब न सूझता तो वह अपने को उसकी ओट में छुपा लेती.
खीझकर उमा ने कहा था, ‘ये लोग क्या रोज इसी तरह रास्ते में आने-जाने वालों पर नजर गढ़ाए रखते हैं ?’
बदले में हंस दी थी कमला ‘और दिनों तू भी तो सब पर नजर रखती थी !’
किसी और मौके की बात होती तो दोनों को औरतों का इस तरह से कुरेद-कुरेद कर पूछना अच्छा लगता. कोई नहीं पूछता तो उस पर गुस्सा भी आता, पर आज उनका इस तरह स्नेह दिखाते हुए पूछना उन्हें बुरा लग रहा था. उनको लग रहा था, पूछने के बहाने औरतें उनका भेद लेना चाह रही हैं.
देवी के थान पर आकर कमला खुद को रोक न सकी और रो पड़ी. घर से निकलने के बाद से ही वह गुमसुम थी. दिमाग में कई सवाल थे, जिनके उत्तर नहीं मिल रहे थे. हर प्रश्न के साथ उसका हौसला बैठता जाता था. हारकर वह उमा की ओर देखने लगती थी.
‘लोगों से तो जैसे-तैसे आंख मिला ली… अब देवी के सामने किस मुंह से जायें ?’ कमला ने उमा से पूछा.
‘हम कुछ गलत नहीं कर रहे हैं. तू अपने ईजा-बाबू की बीमारी का इलाज कराने और उनका सहारा बनने के लिए घर छोड़ रही है. मैं उसके पास जा रही हूं, जिसने इसी देवी के सामने मुझे अपना मान लिया है.’
‘हम दोनों सही हैं फिर भी इस तरह चोरी-छिपे गांव छोड़कर जा रहे हैं. कल को लोग हमीं को नाम रखेंगे. बदनाम करेंगे. तेरा तो ठीक है. मैं क्या जवाब दूंगी ? मेरी बात कौन मानेगा ?’
‘तू किनकी चिन्ता कर रही है… कौन जानता है इन लोगों को… क्या हो जाएगा उनके नाम रखने से ? पता नहीं कैसे लोग अपनी सारी उम्र यहां बिता देते हैं ? इस गड्डे से बाहर निकलकर तुझे पता चलेगाा, लोग कहां से कहां पहुंच चुके हैं ! वहां पहुंचकर तेरी समझ में आएगा कि एक छोटे से गांव और वहां के लोगों का एक बड़े शहर में कोई मूल्य नहीं है ! यहां भी तो तू लोगों के घरों और खेतों में काम कर के जैसे-तैसे अपना घर चला रही है. कल को नौकरी करेगी. ताऊजी और ताईजी को अपने पास बुला लेगी.’ उमा ने हमेशा की तरह उसे समझाते हुए उसके सामने भविष्य की सुनहरी तस्वीर खींची.
‘डर लगता है. ऐसे ही एक दिन ददा भी घर से गया था. दो साल से उसका कहीं पता नहीं है !’ कमला ने कहा, जिसे अनसुना कर उमा आगे बढ़ गयी.
सड़क गांव के ठीक ऊपर, पहाड़ की चोटी पर थी. गांव पहाड़ की जड़ पर नदी के बगल में दूर तक फैले हुए तप्पड़ से हटकर ऊंचाई पर बसा हुआ था. तप्पड़ में खेत और ऊंचाई पर लोगों के कच्चे-पक्के मकान थे. पानी की कोई कमी नहीं थी. साल भर के लिए खाने-पीने की खेती आराम से हो जाती थी. कुछ वर्षों से गांव के पढ़े-लिखे लड़कों के गांव छोड़कर जाने में तेजी आ गयी थी. गांव से गये लोगों में से अधिकांश ने शहरों में जमीन और मकान जोड़ लिया था. जाते हुए लोग पीछे छूट गए लोगों के लिए, असफलता बोध और लगातार बढ़ता हुआ सन्नाटा छोड़ जाते थे. छूटे हुए लोगों के बीच उन्हें कामयाब माना जाता और सम्मान की नजर से देखा जाता था. वे प्रायः उनकी सफलता की कहानी एक-दूसरे को सुनाते और खुश होते थे, जैसे यह उनकी अपनी सफलता हो !
गांव के लड़के देश के तमाम बड़े शहरों में जाकर धीरे-धीरे वहीं के हो जाते. गांव उन्हें सरपट दौड़ते जीवन में अचानक उभर आयी बीमारी की तरह लगता था. मौका मिलते ही अपने पीछे-पीछे घर-परिवार को भी वहीं पहुंचा दिया करते थे. कभी पुरानी मान्यताओं और रीति-रिवाजों को निभाने के लिए मजबूरी में गांव आना पड़ता तो वे छूट गये लोगों से कहते, ‘सोचा, घर-गांव के दर्षन कर आते हैं !’ गांव वाले सब समझते और मन ही मन उनसे प्रश्न करते, ‘तुम हमें इतना बेवकूफ क्यों समझते हो ?’ गांव में रह गए लोग भय और आशंका के साथ शहरों के सपने देखा करते थे. लेकिन उनके हालात उन्हें वहां से निकलने नहीं देते थे और वे लोग वहां की जमीन, जंगल, पानी, जानवर, रीति-रिवाज और आपसी रिश्तेदारी को अपना सब कुछ मानकर निभाए चले जाते थे. (story Bhagne Wali Ladkiyan )
गांव के ऊपरी हिस्से पर, जहां से रास्ता षुरू होता था, बांज के विशाल पेड़ के नीचे गांव की कुल देवी का मंदिर था. मान्यता थी कि देवी के थान में प्रार्थना करने से चढ़ाई आसान हो जाती है. इस विश्वास के सहारे सदियों से गांव के लोग इस चढ़ाई को चढ़ते आ रहे थे. पहले जीवन में इतनी गति नहीं थी. कभी-कभी ही कहीं को जाना होता था. जीपों और मोबाइल के आने के बाद लोगों के जीवन में एक बेचैन किस्म की तेजी आ चुकी थी. बगैर आए-जाए गुजारा नहीं था. हर बार चढ़ाई को देखकर हिम्मत जवाब देती हुई लगती. लेकिन सड़क पर पहुंचकर कुछ देर सुस्ताने के बाद जब थकान गायब हो जाती तो उन्हें यह देवी की कृपा लगती. हालांकि गांव के पढ़े-लिखे युवक-युवतियां अब ऐसा नहीं मानते थे. यही वजह थी कि वे स्थानीय विधायक और जनप्रतिनिधियों से जोर-शोर से सड़क की मांग करते थे. गांव की आबादी को देखते हुए क्षेत्रीय विधायक ने वहां तक रोड पहुंचाने के प्रस्ताव को प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत पास करवा लिया था, लेकिन रोड के लिए भी उस चढ़ाई से पार पाना किसी आफत से कम नहीं था. हर बार रोड कुछ नीचे की ओर जाती, और बरसात के मौसम में सब कुछ पहले जैसा हो जाता.
उमा ने मंदिर के अंदर जाकर देवी को प्रणाम किया. लौटते हुए पेड़ के तने पर जगह-जगह बंधी हुई घंटियों पर हाथ मारा. घंटियों की आवाज से कुछ देर के लिए आस-पास पसरा हुआ सन्नाटा गुम सा हो गया. कमला अंदर जाने का साहस नहीं जुटा पायी. उसने बाहर से हाथ जोड़कर मन ही मन देवी से क्षमा मांगी और आगे सब ठीक करने की प्रार्थना की. फिर दोनों चढ़ाई चढ़ने लगे. दोनों चुप थे. बीच-बीच में उमा कमला को खुश करने या हौसला बढ़ाने वाली कोई बात कह देती थी, जिसे सुनकर वह हंस देती. लेकिन उसकी हंसी उसकी बेचैनी को छुपा नहीं पाती थी.
कमला ज्यों-ज्यों आगे को कदम रखती जाती, उसे लगता वह अनिश्चितता की एक अंधी सुरंग की ओर बढ़ती जा रही है. उसके भीतर तूफान मचा था. ‘दुनिया में कैसे-कैसे पढ़े-लिखे लोग हैं, मेरी जैसी मामूली लड़की को वहां कौन काम देगा ? वहां का मुझे कुछ अंदाज भी नहीं ! कैसे होगा ? सब मुझे बेवकूफ समझेंगे !’
फिर उम्मीद की लहर उठती, ‘रमेश ऐसे ही थोड़ा बुला रहा है, उसने कहीं बात कर रखी होगी ! हो सकता है, सब ठीक हो जाए. कोई करूणावान, समझदार मालिक मिल जाए. मैं अपनी ओर से खूब मेहनत करूंगी. हालात बदलने में क्या समय लगता है ? यहां भाभी तो है, ईजा-बाबू को देखने के लिए. काम जमने के बाद अपने पास लिवा ले जाऊंगी.’
गांव के लोगों के बीच उमा के लच्छन अच्छे नहीं माने जाते थे. उसके मजबूती से अपनी बात को कहने और तपाक से जवाब देने की आदत से उन्हें लगता, पढ़ाई ने उसके दिमाग को सातवें आसमान पर चढ़ा दिया है ! जबकि रमेश उसकी तारीफ करते हुए कहता, ‘तेरा खुलकर बात करना मुझे अच्छा लगता है………तू शहर की लड़कियों जैसी है.’
‘जब तुमको भी ऐसे ही जवाब दूंगी क्या तब भी मेरी तारीफ करोगे ?’ उमा ने कहा तो रमेश को एकाएक कोई जवाब नहीं सूझा था.
उमा प्राइवेट इंटर पास कर चुकी थी और बीटीसी, आंगनबाड़ी या साक्षरता कार्यकर्ता बनकर अपने पैरों पर खड़े होने की फिराक में रहती थी. मगर इसी बीच रमेश ने उसे दिल्ली में बढ़िया काम दिलवाने और घर-गृहस्थी जमाने की बात कही थी. गांव के लोग उसे कितना ही होषियार समझते हों, मगर खुद उसे शहरों की दुनिया भयभीत करती थी. सारी हत्या, बलात्कार, लूट, आतंक, दंगे, जालसाजी और दुर्घटनाओं की बुरी खबरें वहीं से आती थी. इसलिए शहर एक ओर जहां उसे आजादी और तरक्की के प्रतीक लगते थे, वहीं डराते भी कम नहीं थे.
आखिरकार दोनों सड़क पर पहुंची, तो उन्हें लगा जैसे उन्होंने गांव की सीमा को पार कर लिया है. मुंडेर पर बैठकर उन्होंने सड़क पर नजर डाली जो जनविहीन थी, लेकिन थोड़ी-थोड़ी देर में जीप, बस और कारें हॉर्न बजाते हुए तेजी से उनके सामने से गुजर जाते थे. उनको लगा, यहां पहुंचकर उनके खून के प्रवाह तथा दिल की धड़कनों में बदलाव आ गया है. घाट के पार अल्मोड़ा को जाने वाली सड़क दूर तक दिखायी दे रही थी. कुछ देर तक मुंडेर पर बैठकर सुस्ताने, स्रोत का पानी पीने और मुंह-हाथ धोने के बाद धीरे-धीरे थकान तिरोहित होकर स्फूर्ति लौटने लगी. इस बीच कुछ जीपों तथा ट्रकों के ड्राइवरों ने उनसे चलने के लिए पूछा था तो उन्होंने मना कर दिया. जब वे चलने को तैयार हुई तो धौलिया अपने केन्टर के साथ वहां पहुंच गया. संयोग से आज उसके केबिन में कोई सवारी भी नहीं थी.
‘चलो बैंड़ियो, आ जाओ ! गाड़ी खाली है. अरे, सोच क्या रही हो ? बस के किराये से दस रूपये कम दे देना !’
दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा. उमा बोली-‘हम तो रोडवेज की बस से जायेंगे !’
‘बैंड़ियों, अब कौन सी रोडवेज की बस से जाओगे ! वैसे ही बहुत देर हो गयी है. घबराने की कोई बात नहीं है. धौलिया, इसी रोड पर चलने वाला ठैरा ! मेरे होते हुए कोई तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता. अपना भाई जैसा समझो… कोई परदेशी, थोडा हूं.’ अपने तरकश से एक के बाद एक भरोसेमंद तीर निकालकर वह उनके ऊपर छोड़ता चला गया.
दोनों पर उसकी बातों का असर हुआ. उसकी आत्मीयता से भरी बातों को सुनकर, कुछ ही पलों में वह उन्हें अपना सा लगने लगा. उधर कलैंडर को हमेशा की तरह उस्ताद की बातों को सुनकर उस पर गुस्सा आ रहा था. ‘सवारी को पटाने के लिए उस्ताद, क्या-क्या नहीं कह देता है. इतनी खुशामद लाइन में और कोई नहीं करता.’
‘चलो-चलो आ जाओ. रोडवेज से एक घंटा पहले पहुंचाऊंगा. चल भाई कलैंडर, बैड़ियों का सामान रखवा दे ! अब, रुकने का समय नहीं है… पहले ही भौत देर हो चुकी है !’
दोनों मंत्रमुग्ध से केबिन की ओर बढ़ चले.
‘हां भाई कलैंडर, अपना कोटा पूरा हो गया !’ उसने क्लीनर से कहा तथा ‘ओ चन्दू डरैवर, गाड़ी चलाछैं बागेश्वर लैना…’ गुनगुनाते हुए कुछ ही पलों में गेयर लीवर दूसरे से होते हुए चौथे पर पहुंच कर ठहर गया.
कुछ समय तक वह अपने गीतों में मग्न रहा. फिर लड़कियों से मुखातिब हुआ- ‘बैंड़ियो, एक बार जो अपने साथ चल देता है, सड़क पर दूसरी गाड़ी की ओर देखता तक नहीं है. बहुत मेहनत से लाइन में अपनी रैपुटेशन बनायी है. यकीन न आ रहा हो तो मेरा नाम किसी भी गाड़ी वाले से पूछ लेना. कमाते तो सभी हैं, अपनी सोच दूसरे के दर्द को समझने की हुई. इसलिए लाइन में अपने दुश्मन भी कम नहीं हुए… करें दुश्मनी… करते रहें… हम तो अपनी मेहनत की खाते हैं. लोग साले अपना जैसा धूर्त समझते हैं !’
उस्ताद की बातें सुनकर कलैंडर ने दोनों हाथों से अपना मुंह ढंक लिया.
‘कहां तक जा रहे हो ?’
‘मौसी के वहां… नहीं… दिल्ली !’
‘दिल्ली मौसी है तुम्हारी ?’
‘नहीं… वो…. हां…’
‘अरे, धौलिया उस्ताद को बताने से क्यों घबरा रहे हो ? घर का आदमी समझो… कभी धोखा नहीं होगा !’
‘नहीं, ऐसी बात नहीं है.’
‘मैंने तो कई लोगों को फ्री में उनके घर पहुंचाया ठैरा ! इसी साल की बात है, एक लड़की घर वालों से नाराज होकर टनकपुर आ गयी. वहां जिसे देखो साले उसे बुरी नजर से देखने वाले हुए. मैं उसे अपने साथ बैठाकर लाया. सब साले मुझसे चिढ़ गये. अपना जैसा समझने वाले हुए. अपनी बहन को भी बहन नहीं समझने वाले लोग यहां हर ओर भरे हुए ठैरे ! टनकपुर से नीचे को गए तो जिसे देखो वो ही ताक में लगा रहता है. धंधा है सालों का. दिल्ली और बोम्बे में नेपाल की मजबूर लड़कियां यहीं से जाने वाली हुई. सीधी-सादी और अकेली औरतों पर इन लोगों की नजर लगी रहने वाली हुई.’
‘टनकपुर तक जायेंगे !’
‘वहां से दिल्ली की शाम की बस पकड़ोगे ?’
‘हां !’
‘मौसी के वहां पहले भी गये हो ?’
‘नहीं, पहली बार जा रहे हैं !’
‘मुझे तो बता दिया. रास्ते में कोई कुछ पूछे तो मत बताना. उससे कहना, अपने काम से मतलब रख. समय बहुत बुरा है, बैड़ियो !’
धौलिया की बकबक अब उन्हें बोझिल करने लगी थी. उससे किनारा करने के लिए दोनों कलैंडर की ओर मुड़कर बाहर की ओर देखने लगे. चौदह-पन्द्रह साल का कलैंडर जिसकी मुस्कान रीत सी गयी थी, ट्रक में लड़कियों को देखकर खुश था. अब स्त्रियां उसे अपनी ओर आकर्षित करने लगी थीं. उनकी ओर देखना उसे, हवा के ताजे झोंके की तरह सुकून का एहसास करा रहा था. खिड़की से सिर बाहर निकालकर वह रोड पर आ-जा रही लड़कियों का चेहरा देख लिया करता था, हालांकि दूसरे ड्राइवर-कंडक्टरों की तरह उनकी ओर बेहयाई से देखना या कोई अष्लील बात कह देना उसे पसंद नहीं था. वह उनको कुछ इस तरह देखता की उनको भी पता नहीं चल पाता था कि कब उसने उनके रूप का पान कर लिया. यहां भी वह क्षण भर के लिए बाहर देखता और मौका मिलते ही गौर से उनका चेहरा देख लेता. पहली बार सुंदरता उसके इतने करीब थी कि उसका उनके चेहरों से नजरें हटाने का मन नहीं कर रहा था. कुछ देर में जब उमा को उसके इस खेल का पता चला तो उसने अपनी नजरें उस पर गड़ाना शुरू कर दिया. उसकी सतर्कता देखकर लड़के ने इस खेल में हार मान ली.
उमा को कलैंडर के मनोभावों को पढ़ने के बाद इस खेल में मजा आने लगा. उसने कमला के कान में कुछ कहा. लड़के को लगा, कहीं उसी के बारे में बात तो नहीं हो रही है. वह घबरा गया. अगर उन्होंने उस्ताद से कुछ कह दिया तो ! उस्ताद पिटाई लगाने के साथ कई दिनों तक किस्म-किस्म की बातें सुनाकर जलील करते रहेंगे. वह घबरा गया और लड़कियों की ओर देखने से तौबा कर बाहर की ओर देखने लगा. इसी बीच अनायास वह भावुक हो गया और उसके भीतर उथल-पुथल मच गयी.
उसे अपनी मां की याद आ गयी. बचपन के दिन कितने कष्ट भरे थे, लेकिन मां अपनी शीतल छांव उसके ऊपर फैलाकर उसे उन कष्टों का एहसास नहीं होने देती थी. उसके कोमल स्पर्श तथा प्रेम का ध्यान आते ही उसकी आंखें भर आयी. उसे पता था, लाइन के कलैंडर कभी उसके दिल की बात नहीं समझ सकेंगे. उन्हें क्या पता कि उसका स्त्रियों के बारे में क्या नजरिया है ? जब भी मां की याद आती, उसे खूब रोना आता था. मां के अंतिम दिन कितने दुःखदायी थे. चाहकर भी वह उसके लिए कुछ नहीं कर पाया था. बस, पल-पल मां को मरते हुए देखता रहा. कौन समझेगा उसके साथ कैसी बीती है ? कोई नहीं समझता. सब अपने बारे में सोचते हैं, दूसरों की कोई चिन्ता नहीं करता !
कई बार सोचता, वह कैसे पत्थर लोगों के बीच आ गया है, जो सिर्फ दूसरों को नोचना जानते हैं. लेकिन कभी कोई अपने जीवन की उबड़-खाबड़ कहानी सुनाने लगता तो उसे सुनकर उसका दिल दहल जाता. अकेला वही नहीं है. सभी ने झेला है. लेकिन वे लोग अपने पुराने दिनों को भूलकर वर्तमान में जीने लगे हैं. उसे लगता, एक वही है जो अभी भी अतीत से चिपका हुआ है.
वह फिर से वर्तमान में लौट आया. उसकी इच्छा हुई उमा उसे अपने सीने से लगा लेती तो अब तक की सारी थकान, कई दिनों की नींद, सारे दुःख, उस्ताद की गालियां, लोगों की उपेक्षा, दुत्कारती हुई नजरें सब कुछ धुल जाता और ठूंठ में बदलते जा रहे जीवन में नई कोंपले फूट पड़ती.
उमा ने लड़के की आंखों में भर आये आंसुओं और मासूम सी आदिम इच्छा को पढ़ लिया . वह उसके दुःख से दुःखी हो गयी और सोचने लगी-‘कितना प्यारा लड़का है. इसकी उम्र अभी घर में रहकर खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने की है. पता नहीं किस मजबूरी के कारण यह इस ट्रक में जुता हुआ है.’ उसका जी हुआ लड़के को अपनी छाती में भींचकर, उसके बालों को सहलाए और उसके कोमल चेहरे पर चुम्बनों की बौछार कर दे.
उधर धौलिया उस्ताद टेप में बज रहे गानों के साथ सुर मिलाता जाता और पारखी नजरों से लड़कियों तथा कलैंडर के बीच चल रहे खेल को देख लेता. उसे लगने लगा, मामला अब कुछ सीरियस होने लगा है. उस का ध्यान लड़कियों से हटाने के लिए वह उससे रुक-रुक कर प्रश्न पूछने लगा-
‘हां भई कलैंडर, टायरों की हवा चेक की थी ?
बोल्ट टाइट करने के बाद व्हील-पाना संभाल कर रखा था ?
गाड़ी का तेल-पानी तो ठीक है ना ?
मालिक साहब की चिट्ठी संभालकर रखी है ना ?’
जब वह कलैंडर था तो उसका उस्ताद भी उससे ऐसे ही सवाल पूछता था. धौलिया ने उन दिनों गौर किया था, जब ट्रक में कोई खास सवारी हेाती तो उस्ताद के सवाल बढ़ जाते थे. तब वह मन ही मन उस्ताद से कहता था, ‘दिखा लो उस्ताद तुम भी अपनी उस्तादी…..कभी हमारा समय भी आएगा !’ आज वैसे ही उसके सवाल बढ़ गये थे. लड़का इस बात पर गौर कर रहा था और वही बात मन ही मन कह रहा था, जो कभी धौलिया कहा करता था.
उमा को नींद सी आने लगी थी. पलकें मूंदी तो देखा, भीतर भारी उथल-पुथल मची हुई है. एक-एक कर माता-पिता, गांव के लोगों और रिष्तेदारों के चेहरें आंखों के आगे आते जा रहे थे. सब उसकी ओर हिकारत भरी नजरों से देख रहे थे. उसे लगा, जमाने का सच जो भी हो मगर अपने तो यही लोग हैं. इनकी नजरों में गिरने के बाद क्या कभी इस कालिख से पीछा छुड़ाना संभव हो पाएगा ? वियोग तो सहा जा सकता है, लेकिन जिंदगीभर का अपमान और लांछन नहीं ! उसने पलकें खोलकर कमला की ओर देखा तो उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे.
‘क्या हुआ ?’ उमा ने धीरे से उसके कान में पूछा.
वह चुप रही.
‘बोल तो सही…….कर लिया ऐसे तूने दिल्ली में काम !’ उमा ने फिर से कहा.
‘चल लौट जाते हैं. मुझे बहुत डर लग रहा है. पता नहीं हमारा क्या होगा ? आस-पास कितनी बदनामी होगी. अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा !’
‘उसका पता तो है हमारे पास. उसने कहां तो है वो तेरे लिए नौकरी का इंतजाम कर देगा !’
‘अगर वो वहां नहीं हुआ तो ! उसने तुझसे जोश में कहा और हम उसकी बातों में आकर चल पड़े. कहां से करेगा वो दो-दो लड़कियों के लिए नौकरी और रहने का इंतजाम ! लड़के तो बढ़ा-चढ़ाकर बोलते ही हैं. वहां जाकर अगर कुछ नहीं हुआ, तब क्या होगा ?’
‘नहीं, वो ऐसा नहीं है… उसने मुझसे कहा है कि वो मेरे लिए कुछ भी कर सकता है !’ उमा ने दृढ़ता से कहा.
‘वो अच्छा आदमी है. मैं जानती हूं, लेकिन वहां उसके बस में कितना है ? ये हमें पता थोड़ा है ? तेरा तो ठीक है तू उससे शादी कर लेगी. मेरा क्या होगा ? कहीं मैं तुम दोनों के लिए समस्या बन गयी तो ? कुछ समय की हो तो बात है तुम दोनों की शादी को कौन रोक सकता है ? इतनी जल्दबाजी से क्या फायदा ?’ कमला ने अब तक उपजे सवालों को दबाने के बजाय कह देने में ही भलाई समझी.
‘जल्दबाजी… तू आजकल के लड़कों को नहीं जानती… मैं उसे खोना नहीं चाहती… घर वाले मेरी शादी की बातें करने लगे हैं… कब तक मना करती रहूंगी… ऐसे ही किसी गांव में शादी कर देंगे… मैं एक गड्ढे से निकलकर दूसरे में फंसना नहीं चाहती ! फिर भी तू लौटना चाहती है तो ठीक है !’ उसने कमला की बात में हामी भर दी थी.
उनकी फुसफुसाहट से धौलिया उस्ताद ने भी अंदाजा लगा लिया था कि मामला उतना सीधा नहीं है, जितना दिख रहा है.
‘दाज्यू, टनकपुर में आपका कितनी देर का काम है. टनकपुर से हम आप के साथ वापस लौट जायेंगे. एक कागज में मौसी का पता लिखा था. कहीं मिल नहीं रहा है. शायद हम उसे जल्दीबाजी में घर ही भूल आए !’ उमा ने धौलिया से कहा.
‘बैड़ियों, इतनी बड़ी गलती… देख लो यहीं, कहीं होगा, किसी थैले-थूले में !’
‘हमने अच्छे से देख लिया… कहीं नहीं मिल रहा !’
‘ठीक है, अपनी जिन्दगी को मुसीबत में डालना ठीक नहीं… मेरा एक-दो घंटे का काम है. तब तक खाना-खुना खा लेते हैं… जल्दी है तो किसी गाड़ी में निकल लो !’
‘दाज्यू तुम्हारे साथ ही जायेंगे !’
टनकपुर पहुंचकर उसने कैंटर को ईंटों के ठेकेदार के आगे खड़ा कर दिया. उसकी गाड़ी में लड़कियों को देखकर लाइन के दूसरे ड्राइवरों की बेचैनी बढ़ने लगी. कुछ ने आगे बढ़कर धौलिया से लड़कियों के बारे में पूछा तो उसने ‘उन का दिल्ली का पता खोने वाली बात दोहरा दी, जिस पर किसी को यकीन नहीं हुआ.
दोनों लड़कियां अब काफी खुश थी. उन्होंने घर तथा रास्ते पर मिलने वाले गांव के लोगों को बताने के लिए बहाना सोच लिया था. ‘मौसी के घर में कोई नहीं था… क्या करते… कहां रहते… इसलिये लौट आए !’
अब तो वे समय से घाट पहुंचकर घर का रास्ता पकड़ने का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. दोनों मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रहे थे, ‘हे भगवान, आज सकुशल घर पहुंचा दो. आगे से जो करेंगे, खूब सोच समझकर होशो-हवास में करेंगे !’
अब इसे धौलिया की इंसानियत माना जाए या साथ के ड्राइवरों द्वारा खुद को निशाने पर लेने की प्रतिक्रिया समझा जाए या दो जवान और खूबसूरत लड़कियों के सान्निध्य का सुख मान लिया जाए या इसे उसकी बेवकूफी कहा जाए कि उसने लौटते समय जगह होते हुए भी किसी और को गाड़ी में नहीं बैठाया. जिसने लाइन के लोगों के शक को पुख्ता कर दिया और सवारियों के लिए मरने वाला धौलिया, इस चूक की वजह से और भी संदेह के घेरे में आ गया.
लड़कियों से किराये में मिले चार सौ रुपये उसने चोर जेब में खोंस दिए. टनकपुर में एक घंटे रुकने के दौरान लड़कियां पसीने से तरबर हो चुकी थी. कैंटर के चलने से उन्हें राहत महसूस हो रही थी. इस दौरान धौलिया ने उनसे उनके घर-बार के बारे में पता कर लिया था. उनके न पूछने पर भी अपने बारे में वह उन्हें काफी कुछ बता चुका था. उनकी नजरें देखकर अनुमान लगा चुका था कि लड़कियां गलत नहीं हैं. ‘होगी इनकी कोई बात… मुझे क्या मतलब. सड़क पर रोज नए-नए लोग मिलते रहते हैं. सब के बारे में सोचने लगूं तो हो गया अपना काम !’
जैसे ही वह लोहाघाट से पहले पुलिया पर पहुंचा. उसे आगे के चैक पोस्ट पर दरोगा तथा कुछ सिपाही मुस्तैदी से खड़े दिखायी दिए. ‘कोई खास मामला होगा. कोई मुखबिरी हुई होगी. अभी पूछता हूं दरोगाजी से !’ लड़कियों पर रौब डालने के लिए उसने कहा.
चैक पोस्ट के करीब पहुंचते ही उसका दांया हाथ सलाम की मुद्रा में उठ गया. पुलिस वालों के हाव-भाव बदले हुए थे. उनमें रोज की जान-पहचान के संकेत नहीं थे. उन्होंने उसे रुकने का इशारा किया. एक सिपाही उसके दरवाजे की ओर लपका.
‘चल उतर… गाड़ी को साइड लगा !’ डंडा घुमाते हुए सिपाही ने उससे कहा.
‘कोई बात होगी… तभी रोक रहे होंगे !’ धौलिया ने सोचा.
किसी प्रकार की आफत के अपनी ओर आने का उसे कोई अंदेशा नहीं था. ऐसे कोई संकेत भी उसे नहीं मिले थे. वैसे भी इंसान अपनी ओर आती हुई मुसीबत के बारे में भी आश्वस्त रहता है कि वह ऐन वक्त पर किसी और दिशा को मुड़ जाएगी. फिर यहां तो ऐसा कोई मामला ही नहीं था.
लेकिन धौलिया का आशावाद धरा का धरा रह गया. कुछ ही पलों में दृश्य पूरी तरह बदल चुका था. उसका कैंटर रोड के किनारे खड़ा था और दो जोरदार डंडे उसके पिछवाड़े पर पड़ चुके थे. लोगों का मजमा लग चुका था.
‘साला, लड़कियों का धंधा करता है. सुबह से ट्रक में घुमा रहा है.’
‘अच्छा..!’ लोग सुनते और आष्चर्य से एक-दूसरे की ओर देखते हुए कहते.
‘कहां की रहने वाली हो ? अपने मां-बाप का नाम बताओ ?’
लड़कियां डर के मारे चुप रही.
‘बोलो, नहीं तो अंदर बंद कर दूंगा. किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहोगी !’
दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा. उमा बोली, ‘हम लोहाघाट मौसी के वहां जा रहे थे…’
‘और ये साला तुमको जबरदस्ती बहला-फुसलाकर टनकपुर ले गया, क्यों ?’
वे समझ गयी सच कहना उन्हें बहुत भारी पड़ेगा.
‘तुम लोग अपनी इच्छा से इसके साथ गये… या कोई बहाना बनाकर ये तुमको अपने साथ ले गया !’
पहले ‘ना’ फिर ‘हां’ कहकर उन्होंने दरोगा की बात की पुष्टि कर दी.
‘चलो, यहां पर साइन करो. इस साले को तो हम देख लेंगे !’ उसने एक सादा कागज उनकी ओर बढ़ाया था.
‘साहब, आप तो मुझे अच्छे से जानते हो. रोज मुलाकात होती है. कभी कोई गलत काम नहीं किया ठैरा साहब ! लड़कियां दिल्ली जा रही थी, फिर कहने लगी पता कहीं खो गया. मेरे साथ वापस लौट आई. बस, इतनी सी बात है!’
‘बातें मत बना… हमें सब पता है. उन्होंने तेरे खिलाफ बयान दिया है.’
‘मैंने कुछ नहीं किया साहब ! मैं निर्दोष हूं. घर में छोटे-छोटे बच्चे हैं !’
‘साले, लड़कियों का धंधा करते समय तुझे बच्चों का ख्याल नहीं आया. लड़कियों को लेकर सड़क पर घूमता है.’ कहकर दरोगा वहां से चला गया.
धौलिया की समझ में आ रहा था कि वह मुसीबत में फंस चुका है. उसका आत्मविश्वास डगमगा चुका था. ‘क्या जरूरत थी, टनकपुर से दुबारा लड़कियों को अपने साथ लेकर आने की. जब मैं जानता हूं, सब मुझसे जलते हैं. क्या जरूरत थी, उनकी खुशामद करने की ? अपनी मार्केट बनाने में लगा रहता हूं. कौन पूछता है किसी को ? कौन किस को याद रखता है ? लड़कियां दूसरों को भी तो मिलती हैं. कोई उनकी इतनी खुशामद नहीं करता. वो समझते हैं औरतों का मामला !’
तभी उसे अपनी जान-पहचान का एक सिपाही दिखायी दिया. उसे देखते ही धौलिया ने सलाम ठोका.
‘क्यों भाई, कैसे फंस गया इस चक्कर में ?’ सिपाही के तेवर बदले हुए थे.
‘दीवानजी, अब क्या बताऊं ? मैं तो सिर्फ सवारी ले जा रहा था. मेरी खुद समझ में नहीं आ रहा है. मेरे ऊपर ऐसे आरोप क्यों लग रहे हैं ? आप तो मुझे अच्छे से जानते हो !’ उसने अपने को दयनीय बनाते हुए कहा.
‘चल, जो हुआ सो हुआ ! अब यहां से निकलने की सोच. तेरे ऊपर अपहरण का मामला बन रहा है. इसमें जमानत भी नहीं मिलती. अभी मामला दरोगाजी के हाथ में है. किसी जिम्मेदार आदमी के जरिये बात करा ले !’ फिर वह फुसफुसाने लगा ‘हमारी तेरी तो रोज की दुआ-सलाम हुई. देख ले, बात आगे नहीं बढ़नी चाहिए !’
‘दीवान जी, अब तक मालिक के पास खबर पहुंच गयी होगी. कोई न कोई आता होगा ! तुम दरोगाजी से कह दो, सुबह तक इंतजाम हो जाएगा !’
‘चिन्ता मत कर, काम करवा दूंगा ! मेरा ख्याल रखना !’ सिपाही ने मुस्कराते हुए कहा.
वह इसी माहौल में पला-बढ़ा था. जानता था, सिपाही के जरिए बात आगे बढ़ाकर वह बाहर हो सकता है. पर अभी मामला गर्म था. दाम ऊंचे लगते. लेकिन रूपये खर्च होना अब तय था. दिन-रात मेहनत करके कुछ रूपये जोड़े थे. सोचा था, इस बार छत पर नई चादरें बिछवा दूंगा. लेकिन सोचने से ही तो सब काम नहीं हो जाते ! पता नहीं, किसकी नजर लगी ?’
गाड़ी मालिक रात को अपने साथ एक ड्राइवर लेकर आया और दरोगाजी की जेब गरम कर केंटर को लेकर चलता बना. अगले दिन सुबह-सुबह उसके पिता इधर-उधर से रुपयों का इंतजाम कर पिछले चुनाव में विधायकी के लिए खड़े क्षेत्र के समाज सेवक अमर सिंह के साथ थाने में हाजिर हो गये. मुलाकात के समय धौलिया ने पिता से कह दिया था कि ‘किसी को भी अपने पास दस हजार से ज्यादा रुपयों की खबर मत होने देना !’
उसके कंधे पर हाथ रखकर अमर सिंह ने कहा, ‘चिन्ता मत कर मैं हूं न ! सब ठीक हो जाएगा ! ‘पुलिस वाले अपहरण का मामला बता रहे हैं. पन्द्रह-बीस से कम में तो क्या मानेंगे !’
‘इतना तो नहीं है. शायद बाबू आठ-दस लाये हैं !’
‘चल देखता हूं, क्या होता है. आज बीडीसी की जरूरी मीटिंग में जाना था. खैर कोई बात नहीं, अपने लोगों के लिए सब छोड़ना पड़ता है !’ एहसान जताते हुए उसने कहा था.
अमर सिंह दरोगा के कमरे में पहुंच गया. दोनों ने जोशो-खरोश से हाथ मिलाए.
अमर सिंह ने मजाकिया लहजे में पुलिस के द्वारा सीधे-सादे स्थानीय लोगों का उत्पीड़न बढ़ने की बात कही. थानेदार ने लड़कियों की शिकायत दिखायी. अमर सिंह ने मंत्रीजी तथा राज्य के आला अधिकारियों से हाल में हुई अपनी मुलाकात का जिक्र किया तथा लड़कियों के बयानों की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली. उसने धौलिया के अब तक के अच्छे रिकार्ड का जिक्र किया. मामले को जबरदस्ती का तूल दिया हुआ बताया.
दरोगा नियम-कायदे की बात करने लगा. अमर सिंह ने पांच हजार की गड्डी उसकी मेज पर रखी और झटके से बाहर निकल गया. माहौल को शांत होता हुआ देखकर अगले दिन धौलिया को छोड़ दिया गया.
और जैसे कि हर बार अपने जीवन में घटने वाली प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना के बाद धौलिया उसका विष्लेशण करते हुए आगे के लिए सबक लिया करता था, इस बार उसने निष्कर्ष निकाला कि ‘अब से अकेली लड़कियों को गाड़ी में नहीं बैठाना है. सालियों ने न सिर्फ खून-पसीने की कमाई को मिट्टी में मिला दिया, बल्कि वर्षों की मेहनत से बनी मार्केट भी खतम कर दी. अब, किस-किस को समझाऊंगा… किस-किस का मुंह बंद करूंगा !’
उधर, जीप के अंदर से बाहर घिर आए अंधेरे को देख रही लड़कियां, डरी हुई अपने-अपने ख्यालों में खोयी थी. दोनों को लग रहा था ‘जब तक घर नहीं पहुंचते, अपने को सुरक्षित नहीं समझ सकते !’ उमा सोच रही थी, ‘जब नदी में छलांग लगा दी थी तो पार भी हो ही जाना चाहिए था. देखा जाता. कमला कमजोर निकली. कमला ही क्यों ? वह भी तो ढीली पड़ गयी थी. ज्यों-ज्यों वह घर के करीब पहुंचती जा रही थी, एक गहरी खिन्नता उसके ऊपर हावी होती जा रही थी. मगर कमला के चेहरे में ऐसे भाव थे, जैसे वह किसी मुसीबत से निकल आयी है और अब कम से कम ऐसा कदम नहीं उठायेगी. जब दोनों रोड पर उतरी तो उनका सामना एक बिल्कुल नयी और अपरिचित सी जगह से हुआ. सड़क में कीड़ों के कुलबुलाने, नीम अंधेरे और मौन के अलावा कुछ नहीं था. यह सन्नाटा दूर तक तना हुआ था और माहौल को भयानक बना रहा था. दोनों को अकेले, सुनसान जगहों में आने-जाने का अनुभव नहीं था. लग रहा था जैसे आधी रात हो चुकी है. दोनों भयभीत थी. अंधेरे में ढलान वाले रास्ते पर कैसे उतरेंगे ?
तभी कमला ने पहाड़ों के काले-काले सायों के बीच कुछ बल्बों के सहारे रोशनी से टिमटिमाते हुए अपने गांव को पहचाना तो वह अपनी खुशी छिपा नहीं पायी-‘देख, यहां से हमारा गांव कितना अच्छा लग रहा है ?’
‘हां, बहुत अच्छा है तेरा ये गांव ! कल से लोगों के वहां जाकर भीख मांगना शुरू कर देना ! अपने मां-बाप की तरह तू भी रोते-कलपते हुए ऐसे ही गाड़-गधेरों में अपनी जिन्दगी बिता देना ! किसी दिन पहाड़ से गिरकर… नदी में डूबकर मर जाना !’ उमा ने गुस्से में कहा.
एकाएक गुस्से में कही उमा की बातें कमला की समझ में नहीं आयी. उसका ध्यान गांव की खूबसूरती और दोनों की सुरक्षित वापसी की ओर था.
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भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत दिनेश कर्नाटक चर्चित युवा साहित्यकार हैं. रानीबाग में रहने वाले दिनेश की कहानी, उपन्यास व यात्रा की पांच किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. ‘शैक्षिक दख़ल’ पत्रिका की सम्पादकीय टीम का हिस्सा हैं.
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