प्रो. मृगेश पाण्डे

वन्य जीव विहार का खुलना और धन सिंह राणा की वसीयत

धन सिंह राणा याद आ गए. चमोली जिले के लाता गांव वाले सीधे साधे से आम पहाड़ी. 1974 में बिरला राजकीय महाविद्यालय में अर्थशास्त्र का शिक्षक होने के बाद वहां ऐसे कुछ चेले मिले जो हर छुट्टी में अपने घर अपने गांव ले जाते. खूब पैदल यात्रा होती लोगों से मेल मुलाकात होती. बातें पता चलतीं. ऐसे ही भेंट हो पड़ी धन सिंह राणा से. खरी दो टूक बातें कहने वाला धन सिंह राणा जिससे मिलने के बाद अपनी मिट्टी अपना पानी और अपने जंगल से जुड़ी किताबी मान्यताएं हिलने-डुलने लगीं. इनको बनाये बचाये रखने के लिए लोगों ने कैसे अपने हाड़ सुलगाये उसकी व्यथा कथा सुनाई देने लगी. अंग्रेजी राज में या टेहरी नरेश के दरबार में नहीं अपनी ही सरकार ने कैसे और कितने तरीकों से वन वासियों की सुदूर गांवों में अपनी जमीन कमाते लोगों की फजीहत की और वह लोग भी चुप न रहे. सत्तर का यह दशक अपना ही जंगल बचाने के वास्ते की गई उन लड़ाइयों के खिलाफ अपनी ही उस सरकार के विरोध में था जिसने जंगल के नए कानून के फंदे अपने ग्रामवासियों के गले में कस दिए थे.
(Dhan Singh Rana)

यह सब सुनते देखते और बरसों बाद उनकी आपबीती उनका संघर्षनामा पढ़ते लगा कि इस सबक को दुहराया जाये. इसे फिर से कई-कई बार गांव घर में रह रही अपनी जवान हो रही पीढ़ी को बताना भी धन सिंह ने जरुरी समझा था. रोजी रोटी की तलाश में प्रवास में छिटक गए उन लोगों के नाम अपनी जमीन को बनाये -बचाये रखने की चिंता भी इसमें जाहिर थी. गांव में सब कुछ होते हुए भी अधिकांश लोगों की मजबूरियां ,इच्छाएं लालसाएं या बेहतरी- बर्बादी के दौर उन्हें दूर काम धंधा करने को अपनी थात से छिटकाते रहे. धन सिंह राणा पुत्र श्री लाल सिंह राणा, निवासी ग्राम लाता, जिला चमोली आज के हिसाब से अपने इलाके की नयी पीढ़ी के लिए अपने पहाड़ में हुए संघर्ष के इतिहास की कथा लिख गए. ग्राम सभा लाता, जिला चमोली से यह छपा. सुनील कैंथोला ने इसका संपादन किया यह धन सिंह राणा, प्रधान ग्राम सभा लाता का संघर्ष नामा है. उनकी वसीयत भी.

आज इस कथा को फिर बांचने की जरुरत इसलिए आ पड़ी कि अख़बार के पन्नों में एक दो कॉलम में सिमटी छोटी सी खबर ओने-कोने में छपी दिखी कि वन मंत्री की पुरजोर कोशिशों से सुदूर सीमांत में जो वन्य जीव अभयारण्य है उसके सभी गांवों को अब भारत सरकार ने पारिस्थितिक संवेदी जोन के दायरे से मुक्त कर दिया है. इसी दिन के दूसरे अख़बार में सेवानिवृत डी ऍफ़ ओ साहिब का जिक्र है वन मंत्री का नहीं कि वह बहुत सालों से ऐसा कुछ होना चाहते थे और उनकी कोशिशें आखिरकार 2 दिसंबर 2021 को रंग लाईं जब सरकार की अंतिम अधिसूचना ने इस खबर को पुख्ता कर दिया. यह अस्कोट वन्य जीव अभयारण्य है जहाँ आज से पैंतीस साल पहले यानि 1986 में अस्कोट कस्तूरी मृग अभ्यारण्य की स्थापना हुई थी. ताकि उस कस्तूरी मृग को बचाया बढ़ाया जा सके जिसकी नाभि में सुगन्धित बहुत ही कीमती कस्तूरी होती है जो आयुर्वेद के हिसाब से बलवर्धक बाजीकारक और असंख्य बिमारियों का नाश करती है जिसका प्रयोग पुराने ज़माने में महाबली राजे महराजे करते आये थे और आज भी उन्ही की हैसियत वाले किसी भी कीमत पर इसे लेने को लोलुप रहते हैं.सुना कि इनका सरगना कोई पोचिंग का सरगना संसार चंद है जो जंगल में घुस जंगल के निरीह जानवरों की हत्या कर अरबपति खरबपति बन गया था. उसकी पौंध कुरी के झाड़ की तरह पनपती रही है.

खबर यह है कि अस्कोट वन्य जीव अभयारण्य के पारिस्थितिक संवेदी जोन में सम्मिलित सभी ग्रामों को भारत सरकार की 2 दिसम्बर 2021 की अंतिम अधिसूचना के बाद इस दायरे से मुक्त कर दिया गया. टनकपुर-तवाघाट राष्ट्रीय राजमार्ग पर पिथौरागढ़ और धारचूला के बीच स्थित और पारम्परिक कैलास-मानसरोवर मार्ग (दिल्ली-अल्मोड़ा-डीडीहाट-लिपुलेख) का मुख्य पड़ाव रहा राष्ट्रीय राज्य मार्ग संख्या 01 इसे कई अन्य स्थानों से सड़क से जोड़ता है. अस्कोट इस इलाके के पाल राजवंश की राजधानी रहा तथा भारत तिब्बत व्यापार की कई गतिविधियों का मुख्य केंद्र भी. 1986 से ले कर अब एक लम्बी समय अवधि के बाद अब यह उत्तराखंड का पहला ऐसा ईएसजेड (इको सेंसिटिव जोन) होगा जिसमें एक भी गांव सम्मिलित नहीं है. अस्कोट डीडीहाट तहसील और कनालीछीना विकासखंड का एक हिस्सा है जहाँ 1986 में अस्कोट कस्तूरी मृग अभयारण्य की स्थापना हुई थी. अस्कोट और धारचूला के 12 वन खण्डों के 600 वर्ग किलोमीटर इलाके में विस्तृत अस्कोट अभयारण्य में 290.914 वर्ग किलोमीटर आरक्षित वन और 309.086 वर्ग किलोमीटर वन पंचायतों और अवर्गीकृत सिविल वन और संरक्षित वन क्षेत्र रहा जिसका कुल क्षेत्रफल 454.65 वर्ग किलोमीटर रहा. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से इस वन्य जीव विहार में 600 से 7000 मीटर की ऊंचाई पर फ़्लोरा-फौना की दुर्लभ प्रजातियां उपलब्ध हैं जिनमें पौंधों की 2600, पक्षियों की 250 व स्तनधारियों की 250 किस्में विद्यमान हैं. यहाँ वास कर रहे वन्य जीवों में हिमालयी काला भालू, कस्तूरी मृग, हिमालयी थार, गंधबिलाव या सिवेट, तेंदुआ, काकड़ या बार्किंग डिअर, घुरड़, ब्लू भेड़, सेरोव के साथ लंगूर, मोनाल, कलीज फेअसंत, चीर फेअसंत, हिमालयन स्नो कॉक, ट्रैगोपान इत्यादि मुख्य हैं.

पारिस्थितिक संवेदी इलाके की जद से सभी गांवों को बाहर कर दिया जाना अब लोगों की एक बड़ी जीत बताया जा रहा है. यह कहा जा रहा है की अब भविष्य में इस इलाके के विकास में कोई बाधा नहीं आएगी. स्थानीय जनप्रतिनिधि कब से ऐसी मांग उठा रहे थे तब केंद्र में यहाँ के डी.एफ.ओ रहे डॉ विनय भार्गव के विशेष प्रयासों से इसकी पैरवी किये जाने पर केंद्र ने इस इको सेंसिटिव जोन से यहाँ के सभी 722 गांवों को मुक्त कर दिया है. 600 वर्ग किलोमीटर के इस वन्य जीव अभयारण्य की जब घोषणा की गयी थी तब इसका मुख्य उद्देश्य यह तय किया गया कि इससे इस इलाके की वनस्पतियों और वन्य जीवन की वृहद जैव विविधता बनी बची रहेगी. इस एक सेंसिटिव जाने का विस्तार अस्कोट वन्य जीव अभयारण्य की सीमा के चारों और करीब 22 किलोमीटर इलाके तक फैला है. अन्तर्राष्ट्रीय सीमा के कारण अभयारण्य के इस इलाके के पूर्वी ,दक्षिणी और पश्चिमी भागों की ओर जीरो सेंसिटिव जोन घोषित किया गया है. 
(Dhan Singh Rana)

निश्चय ही वन्य जीव अभयारण्य को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील जद से बाहर कर दिए जाने के पीछे इस इलाके की जनता की वह सोच बलवती रही जिसके कारण यह इलाका विकास की गतिविधियों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाने में असमर्थ हो गया था. जनता की तरफ से लगातार चलने वाले किसी संघर्ष की बानगी इस इलाके से उठती हुई महसूस नहीं हुई. अपने चुनावी एजेंडे को ध्यान में रखते हुए जन प्रतिनिधियों ने भी बस उसी समय पर विकास की इस सोच को उतनी ही हवा दी जो उनकी व्यक्तिगत छवि या पार्टी के वर्चस्व में सहायक सिद्ध हो रही हो.सीमांत के इस इलाके में विकास और पर्यावरण जैसे विषयों पर कोई स्पष्ट चिंतन कमोबेश नहीं के बराबर था. सरकारी योजनाओं के द्वारा जो भी खानापूरी की जाती और सरकार के द्वारा दिए बजट और उसे खर्च करने में सरकारी अमले की कुशलता या अकुशलता से ही विकास की डायरी के वह पन्ने भरे जाते रहे जो न तो इस इलाके की परंपरागत खेती शिल्प व रोजगार को बचा पाए और न ही जिसने इस इलाके में उपलब्ध संसाधनों के कुशल और विवेकपूर्ण उपयोग की कोई मिसाल कायम रखी.

इससे पहले 1982 में नंदा देवी को नेशनल पार्क बनाया जा चुका था. वहां इसकी खिलाफत बहुत असरदार और आक्रामक तरीके से हुई दिखती थी. उस पूरे इलाके के ढेर सारे लोगों के साथ जंगल बचने की सनक लिए धन सिंह पुत्र श्री लाल सिंह दुखी मन से पुकार लगता रहा कि बरस 1982 में नंदा देवी के नेशनल पार्क बनने के बाद हमारी चौमासी की कहानियां हमसे छीन ली गई थीं .हमारे पारम्परिक भेड़ पालन व्यवसाय को जड़ से ख़तम कर दिया गया था. दुबड़ी देवी को पूजने की सदियों से चली आ रही परंपरा को बंद करवा दिया गया था. लाटू का निशाण-खड्ग चोरी हो गया था और हमारी आँखों में धूल झोंकने के लिए सरकार ने कुछ वादे भी किये थे जिनकी आड़ में हमारी एकता को तोड़ने के लिये कई निजी स्वार्थी तत्वों को बढ़ावा भी दिया गया.

नंदा देवी के इलाके के स्थानीय जनों-गांववालों को जिन्होंने बरगलाया जिनकी सोच पर अपना जादू चलाया उनमें ऐसे लोगों की कमी न थी जो चिपको आंदोलन से खाद-पानी पा कर पनपे और फिर जिन्होंने सरकार की जी हजूरी में ही अपने नाम प्रसिद्धि और उपार्जन का रास्ता पाया. जनसंघर्ष के मंथन से चिपको का जो अमृत निकला था उसे तो दानव पी गए और इससे पाए जोश से उन्होंने वनवासियों पर फिर-फिर हमले बोले. ये धन सिंह राणा थे जो जता गए कि वह कोई अपने शौक से इस संघर्ष में कूद नहीं पड़े थे बल्कि उनके और उनके जैसे नंदादेवी के के हजारों निवासियों के सामने तो बस दो ही रास्ते थे. इनमें पहला रास्ता अमूमन वह ही था जिस पर चलते लोग किसी प्रत्यक्ष विरोध के दबाव से बचे रहते हैं. उन पर शासन और उसकी हठधर्मिता का कोई असर नहीं पड़ता. पुलिस और पटवारी का कोई आतंक झेलने से वह बचे रहते हैं और इसके लिए वह भेड़चाल सबसे भली है कि जो हो रहा है वह होने दो. वन विभाग के भृष्टाचार में शामिल हो जाओ, अधिकारियों-बिचौलियों को माँ नंदा का खजाना खाली करने दो. मतलब साफ़ है कि अपने अस्तित्व का आधार अपनी आँखों के सामने मरते हुए चुपचाप देखते रहो या फिर इसका विरोध करो और आज संघर्ष करते हुए अपने भविष्य के हितों के लिए लड़ो. नंदादेवी के सपूतों के साथ धन सिंह राणा ने यह तय किया की वह लड़ेंगे. हम भले ही आज ऐसे ही रह जाएँ पर अपने बाल-बच्चों के भविष्य के साथ कोई खिलवाड़ किया जाना अब मंजूर नहीं होगा.

1974 में जो ऐतिहासिक घटना हुई थी वह कोई एकदम से उपजी कार्यवाही न थी बल्कि उसके पीछे कामरेड गोविन्द सिंह की बरसों बरस की मेहनत थी. धन सिंह अक्टूबर 1973 की वह घटना याद करते हैं कि तब वह पंद्रह बरस के रहे होंगे और उस शाम अपने बहुत सारे दोस्तों के साथ गांव के चबूतरे पर मुर्गी झपट का खेल खेल रहे थे. तभी हाथ वाला चैलेंजर माइक पकडे कई लोगों के साथ एक आदमी आया और उसने सबको कुछ पर्चे बांटे. उन पर्चों पर गढ़वाली में गीत लिखे हुए थे. धन सिंह ने भी अपने यार दोस्तों के साथ वह गीत पढ़े जिनके बोल थे :

चिपका पेड़ों पर अब न काटण दया
पहाड़ों की सम्पति अब न लुटण दया
ठेकेदार-मालदार पैसा कमोंदा
पहाड़ों का छोरा भाण्डा मजोंदा

गोविन्द सिंह के दिए उस पर्चे से यही बोल फूट कर दिल पर असर कर रहे थे कि हरी डाली कटेगी तो भारी दुःख आएगा, सारी जमीन रौखड़ में बदल जाएगी. ये जंगल रहेंगे तभी वन सम्पदा रहेगी ,जंगल के जानवर रहेंगे तो जन को जीने के साधन सदियों तक मिलेंगे. अगर वन ही न रहेंगे तो जीवन जीने का सारा तरीका ही बदल जायेगा. आज हमारी ही सरकार हमारे जंगलों को बेच रही है. मालदार और ठेकेदार हमारे जंगलों का पातन करके धन बटोर रहे हैं और हमारे लोग उनका पानी ढो रहे हैं उनके बर्तन मांज रहे हैं. इस बात को समझ कर हम सभी को इन जंगलों को बचने के लिए एकजुट हो जाना चाहिए. जब तक ठेकेदारी मालदारी की प्रथा बंद न हो जाये संघर्ष चलते रहना चाहिए. धन सिंह तो जेठ की उस सर्द शाम से चिपको के एक सिपाही बन गए.
(Dhan Singh Rana)

अब ये वही दौर था जब जंगलों पर वन विभाग के अनाप-शनाप नियम कायदे थोपे जा रहे थे. वनवासियों की भूमि पर संसाधनों की लूट खसोट के लिए उन्हें बेदखल किया जा रहा था. पहाड़ों की जमीन पहाड़ियों के द्वारा ही बाहर से आये धनपतियों को बेचीं जा रही थी. जो उपजाऊ जमीन थी उसे बटाई पर खेती के लिए दिया जा रहा था और अधिया पर खेती करने वाले, भरपूर साग सब्जी उगाने वाले, मसाले मिर्ची और अदरख उगाने वाले ये कोई बड़े धनपति न थे बल्कि इनमें नेपाली कामगार भी थे जिन्होंने अपनी मेहनत से यहाँ के बारामासा अनाज और स्थानीय रूप से विशिष्ट दालों और मोटे अनाज की खेती को जिन्दा रखा था. हरित क्रांति के चलते तराई- भाबर में संपन्न खेती तो पूंजी गहन होती जा रही थी पर पहाड़ों की पैदावार अभी भी अपनी जैविक खासियत और स्थानीय नस्लों के बूते अभी भी खासी लोकप्रिय थी. संकट वही था कि खेतिहर को उसकी उपज का मूल्य नहीं मिल रहा था. ऐसी हजार चिंताएं थीं अपने इलाके की अपने पहाड़ की.

धन सिंह कहते हैं कि में तो बस जंगलों को देखता था और अपने दिमाग की तस्वीर में बिना जंगलों के नंगे पहाड़ों की तस्वीर बनाता और डर जाता. अपने से ही अकेले में बातें करता की बिना जंगलों के तू कैसे रहेगा रे धौनू? गाय चराने जाएगा तो झूला कहाँ डालेगा? जब जोर की बारिश होगी तो किसके नीचे खड़ा हो कर बचेगा? और तो और अपनी होने वाली घरवाली की भी फ़िक्र हो गयी कि हमारे पाले जानवरों के लिए वो घास काटने कहाँ जाएगी? फिर जब मैं अपना घर -मकान बनाऊंगा तो लकड़ी कहाँ से लाऊंगा और जो मेरे बच्चे होंगे उनका क्या होगा?

धन सिंह राणा ने ऐसे ही सोचा.उनके जैसे सोचने वाले उनके साथ जुड़ते गए. उन सब को बिलकुल ये गवारा नहीं हुआ कि उनके जंगलों पर कोई बलात कब्ज़ा कर उन्हें उनके हक़ हकूक से मरहूम कर दे. ऐसा भी नहीं था कि ये सब पहली बार हो रहा था. अंग्रेजों ने भी यही किया जब उन्होंने जंगलों को अपने राजस्व की प्राप्ति का मुख्य औजार बनाया. पर अब तो आज़ाद पीढ़ी थी पर सरकार की सोच और विकृत हो चली थी. सरकार में ऐसे जनप्रतिनिधि थे जिन्होंने न पहाड़ देखे थे न जंगल, उन्हें क्या मालूम कि सुदूर दुर्गम पहाड़ों के बीच रह कर जीना कुछ उगाना कुछ कमाना कितना मुश्किल होता है. इन्हीं गावों से बच्चे-बालक और किशोर स्कूल न होने से पढ़ने लिखने के लिए शहर की ओर निकल जाते हैं. वहां से ही उनके रस्ते खुलते दीखते हैं. कुछ ही होते हैं जो आगे पढ़लिख सपड़ जाते हैं बाकी जो गांव में घर में रह गए उनके पास जीवन यापन के क्या विकल्प होंगे?क्या उनके हर कदम पर कोई नजर रखी जाएगी. वो क्या कहते हैं? क्या करते हैं? खाना पकाने को क्या जलाते हैं ,कितना जलाते हैं. वो जंगल कितनी बार जाते हैं? क्यों जाते हैं?ऐसे बहुत सारे सवालों को ले कर विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के लोग उन बच्चों की तरफ ध्यान देंगे कि वह तो थे पर स्कूल में मास्साब न थे, बच्चे के बैठने की जगह न थी. दर्जा आठ में आ कर भी क्यों बच्चे को जोड़ना घटाना तक नहीं आता था. फिर हमारे बच्चों के अध्ययन की उन पर रिसर्च की बात होगी. वह परियोजनाएं बनाएंगे, डुबोएंगे और फिर परियोजनाएं डूबने के कारणों के अध्ययन पर जुट जायेंगे. सवाल यह उठ खड़ा होगा कि क्या इनका हर कदम हमारे अपने भविष्य का गला घोंट देगा और फिर वो जैसा चाहेंगे ,जैसा भी चाहेंगे हमारे आने वाले कल को तोड़-मरोड़ डालेंगे.

हमारी पीढ़ी तो इन सब षड्यंत्रों को झेल गई और उसने इनका डट कर मुकाबला भी किया. समस्या बस यह रही की तब गांव में जो पढ़े लिखे लोग थे वो तो नौकरी की तलाश में बाहर निकल गए.जो गांव में बचे वह संघर्ष तो करते रहे पैर शैक्षिक चतुरता और तर्कशैली से वंचित रह गए. पलायन और प्रवासियों की संवादहीनता का असर हमारे ऊपर पड़ा. हमारी कमजोरी यह रही कि हम तो गांव में बैठ के आंदोलन करते रहे. यह देख कर खुश होते रहे कि कैसे दूर दूर से लोग हम पर रिसर्च करने आ रहे हैं. हमारे फोटो खींच रहे हैं. हम तो विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन की जन्मभूमि के वासी होने के गौरव में डूबे रहे और हमारे ऊपर बाकि दुनिया में चिपको की परिभाषा बदलती रहीं उसकी व्याख्या नया मोड़ लेती रहीं . महानगरों में पर्यावरण के ठेकेदार अलग -अलग मंचों में नये सुरों में गाने लगे जिसमें उन्हें नाम और दाम दोनों ही मिले.

रैणी में मार्च 1974 की वह घटना अचानक न हुई थी. उस घटना का भगीरथ गोविन्द सिंह रावत बरसों से गांव- गांव जा अपने चैलेंजर माइक से लोगों के कान में यह बात डाल रहा था कि हमें ही जल-जमीन-जंगल और जन को बचाना है और ठेकेदारों -मालदारोंऔर सरकारी रवैये का विरोध करना है. इलाके में छोटे-मोटे ठेकेदार पल्लेदार टुटपुँजियें भी थे जो उसे पागल कहते थे. जब रैणी के जंगल का ठेका भल्ला नाम के ठेकेदार को मिला तो ये सारे बिचोलिये भी झख मार जनता के साथ खड़े हो गए.अभी दो महीने पाहिले फरवरी की तो बात है जब लमताल गांव में अपना माइक लिए गोविन्द सिंह आये थे और उनके साथ सब बच्चों ने भागते- भागते वही गीत गाना शुरू किया था, ‘चिपको पेड़ों पैर अब ना काटण दया’. देखते-देखते खूब भीड़ होती गयी थी और कई रोज तक भाषण हुए थे. यहाँ रैणी में दो गांव हुए, पहली मल्ला रैणी और दूसरी तल्ली रैणी. अब यहाँ भल्ला ठेकेदार के आदमी आने लगे थे हिमाचली टोपी पहने, लाल कुर्ता पैजामा पहने जो दो लोग थे वो अपने पल्लेदारों से काम करवा रहे थे. भल्ला ठेकेदार का जो कटाई-खुदाई-भराई का सामान आता वह तल्ली रैणी वालों के घर-गोठ में रख दिया जाता. इनके विरोध में पूरे जोशीमठ विकास खंड की तमाम ग्राम सभाओं के लोग अपने बैनर, गाजे-बाजे के साथ रैणी आने लगे थे. यह भी तय हुआ कि रैणी गांव के लोग ही आंदोलन का नेतृत्व करेंगे और ठेकेदार व उसके कारिंदों की हरकतों पर निगरानी रखने की जिम्मेदारी गौरा देवी को दी गयी थी.

14 अप्रैल 1974 को लाता गांव में धूमधाम से बिखौती का मेला चल रहा था. ठेकेदार भल्ला का एक मुंशी अपनी लाल ड्रेस में कमर में खुखरी लटकाये रौब से मेले में घूम रह था. सब इनको देख परेशान थे कि ये जनता की मीटिंगों के बीच रह खुफियागिरी कर इधर की बात उधर करते थे. उसे देख ढाक् गांव के प्रधान जगत सिंह करेणी को ऐसा गुस्सा आया कि वह मुंशी को गले से पकड़ घसीटते हुए गांव के उस चौक पर ले आया जहाँ मुखौटा नृत्य चल रहा था. गोविन्द सिंह ने यह सब देख उस मुंशी को छुड़वाते हुए कहा कि इससे हमारा कोई झगड़ा नहीं ये तो खुद यहाँ अपना पेट पालने के लिए जी हजूरी कर रहा है. हमारी लड़ाई तो बहुत बड़ी है. ये ठेकेदार के नुमाइंदे तो सरकार के फरमान का इंतज़ार कर रहें हैं और हम सब जंगल काटने का विरोध कर जैसे गैर क़ानूनी काम कर रहे हैं. यहाँ तो बाजी ही पलटी हुई है कि सरकार और ठेकेदार जंगल काट अच्छा काम कर रहे हैं. काली करतूत किसकी है यह समझ जाना है. भल्ला से बड़ा और विचित्र कानूनों से लैस हो कर खुद वन निगम ही हमारे यहाँ डाका डालने यहाँ आ पहुंचा है.

उस परीक्षा की घड़ी में रैणी गांव के जंगलों की जिम्मेदारी संभाली सिर्फ औरतों ने जिन्होंने गौरा देवी के नेतृत्व में एक नया इतिहास रच दिया. उस दिन के बाद तो सबका उत्साह आसमान छूने लगा. यह चिपको था जिसकी खुशबू देश के अन्य भागों में फैलती गई. वह ऐसा जमाना था जब सरकार बहादुर की बड़ी धूम होती थी. उसकी तरफ ऊँगली उठाना भी देशद्रोह जैसा समझा जाता था. तब गौरा देवी और उनकी साथ वाली औरतों ने जैसे कुल्हाड़ियों-आरों को बिना पेड़ों से छुवाऐ बैरंग लौटा दिया. उसके बाद भी ठेकेदार भल्ला के लोग अभी भी गांव में डेरा जमाये थे. जंगलात के अफसर नेताओं को बातचीत के लिए बुला रहे थे. ऐसा माहौल बना दिया गया था कि ठेकेदार भल्ला को जंगल काटने से रोकना सरकारी काम में रोड़ा अटकाने जैसा है क्योंकि ठेकेदार ने सरकार को पैसा दे रखा है. ठेकेदार के मुंशी और लेबरों को पूरा भरोसा था कि जल्दी ही पुलिस के सहयोग से वह जंगल काट सकेंगे. भला सरकार से कोई जीता है कभी?अब गोविन्द सिंह ने सबको ख़बरदार करते शेर की तरह गरजते हुए कहा कि भल्ला के आदमी आये नोटों से भरा बैग ले कर मेरे पास, तो मैंने उन्हें धक्के मार कर, घर की देहरी से बाहर कर दिया. ये हमारा कर्तव्य है क्योंकि ये जमीन ही हमारी माँ है जो युग युगों से हमें पालती आ रही है. हम अपनी धरती और अपनी वन देवी माता को बेच नहीं सकते. अब अगर 25 अप्रैल तक ठेकेदार की लेबर उसके कुली पल्लेदार गांव खाली नहीं करते तो लोगों का गुस्सा उफन सकता है. अभी तक पेड़ों को बचाने-बढ़ाने का यह आंदोलन अहिंसक है, लोगों के सब्र का बाँध टूटा तो कहीं हिंसा न हो जाये. इसलिए सभी मजदूर भाई जो अपने और अपने परिवार की रोजी रोटी के खातिर यहाँ जंगल काटने और लकड़ी चीरने के लिए लाये गए हो अपने घरद्वार लौट जाओ. चिरान को आये सभी मजदूरों ने गोविन्द सिंह की इस बात को समझा और 25 अप्रैल से पहले उन्होंने वो गांव खाली कर दिया.

चिपको की लड़ाई जीत कर भी हार में बदलती दिखी. भल्ला ठेकेदार से भी बड़ा और विचित्र कानूनों से लैस हो कर वन निगम हमारे यहाँ डाका डालने आ गया.वन विभाग ने नया पैंतरा खेला और 1982 में हमारे इलाके को नेशनल पार्क बना डाला. जरा सोचा जाये कि1974 के दौरान जो विभाग पुलिस -पीएसी के बल पर हमारे जंगलों को काटना चाहती थी और जिनकी नजर में जंगल का मतलब सिर्फ टिम्बर था वो अब जैव-विविधता और संरक्षण जैसी बातें करने लगा था.अब नंदा देवी इलाके में पर्यटन पर प्रतिबंध से पूरे इलाके का रोजगार छिन गया वहां सर्वाधिक दुर्गति लाता वासियों को हुई. हमारे चौमासे की कहानियां हमसे छीन लीं गयीं. हमारे धार्मिक उत्सव हमसे दूर करने की कोशिश हुई और देवी का खड्ग-निशान तक गायब हो गया. प्रतिबन्ध का सबसे बुरा असर हमारे हरिजन भाइयों पर पड़ा. इस इलाके में उनके पास जमीन नहीं के बराबर थी. ये लोग अनेक प्रकार के हस्त कौशल जानते थे और इसी हाथ के काम की बदौलत घर के कुटीर धंधों से अपना पेट पालते आये थे. इनकी काष्ठ कला और रिंगाल के धंधे को जड़ से मिटा कर इन्हें बेकार बना दिया गया. सारा परंपरागत ग्रामीण रोजगार मिटाया जाने लगा और सुनिश्चित रोजगार के नाम पर बाबू लोगों के खाने-पीने का नया धंधा खोल दिया गया.

 चिपको को जन्म देने वाली जनता जहाँ सरकार के नए हमलों से आहत थी वहीँ पर्यावरण के महंत देश-विदेश में प्रवचन देने में व्यस्त थे. चिपको के बाद चिपको से जो राजनीति पैदा हुई और उसने मठाधीश भी पैदा किये.पर गोविन्द सिंह की जन प्रतिबद्धता ने चिपको को हमेशा जमीनी स्तर पर प्रासंगिक बनाये रखा. बरस 1987 में रैणी में बुलाई गई इलाके की बैठक से लेकर एक दशक से भी ज्यादा किये जन जागरण के बाद ग्राम लाता में झपटो -छीनो आंदोलन का जन्म वस्तुतः उन्हीं की देन है.
(Dhan Singh Rana)

नंदा देवी पार्क क्या बना इसके सारे लाभ बिचौलियों और बेशकीमती जानवरों का आखेट करने वाले शिकारियों को पहुँचने शुरू हो गए. संरक्षित पार्क का इलाका आखेट स्थल में बदल गया. रहा राष्ट्रीय पार्क का विभाग तो इसके कर्मचारी हमारे पुनर्वास हेतु लिए गए विदेशी कर्जे को हड़पने में मगशूल हो गए. पार्क में हो रहे विनाश और अपनी गिरती हुई आर्थिक स्थिति की हमारी बात का सरकार पर जब कोई असर न हुआ तो हमें अपने अधिकारों को छीनने- झपटने पर मजबूर होना पड़ा. ठेकेदार भल्ला की लेबर के वापस लौट जाने के बाद हम सोचते थे कि अब हमारा जीवन हमारे जन जल जमीन और जंगल के साथ कटेगा पर जन संघर्ष के मंथन से निकले चिपको के अमृत को तो दानव गटकते रहे और उन्होंने दोगुने जोश के साथ हमारे ऊपर फिर हमला बोल दिया. तब हमने भी तय किया कि हम लड़ेंगे ,हम भले ही आज ऐसे ही रह जायें लेकिन हम अपने बच्चों के भविष्य के साथ कोई खिलवाड़ नहीं होने देंगे. अपनी मृत्यु से पहले ही गोविन्द सिंह यह तय कर गया कि हमारे संघर्ष का स्वरूप व्यापक रहे. हमारे अस्तित्व की और हमारी प्रकृति के अस्तित्व की लड़ाई एक ही रहे.

लाता ग्राम सभा की 31 मई 1998 की मीटिंग में झपटो -छीनो शब्द उभर कर आया जिसमें अपने हक़-हकूकों से जुड़े कई प्रस्ताव थे जो सरकार को भेजे गए. उसके कान में जून भी न रेंगी. जब अख़बारों में ख़बरें सुर्खियां बनीं तो कुछ अधिकारी बहलाने-फुसलाने आये जिन्हें जनता ने बेरंग लौटा दिया. अपने ही घर के कुछ भेदी सरकार के कृपापात्र बनने और बदले में ठेके मिलने की आस में इधर की बात उधर करते रहे थे जिससे 15 जुलाई 1998 को जनता के शांतिपूर्ण आंदोलन को कुचलने के लिए पी.ऐ.सी की टुकड़ियां ग्राम लाता से आगे लाठी खर्क में तैनात कर दीं गयीं. वन विभाग के लोग भी तोलमा के रस्ते लाठी खर्क आ चुके थे. यू पी पुलिस के सिपाहियों की टोली भी दिखने लगी थी. सब गांव वाले महसूस कर चुके थे कि हमारी बात सुनने में तो सरकार सोये रहती है और कुचलने की बारी में बला की फुर्ती दिखाती है. 16 जुलाई को सग्रांद थी इसलिए सब गांव वालों ने तय किया कि 15 जुलाई को मांगे बढ़ने से पहले ही इसकी रस्म-रिवाज मना लिए जाएँ. बस फिर क्या था, बाजे बजने लगे और पकवान पकने लगे. अनेकों गावों की आंदोलनकारी जनता लाता गांव में आती रही. तहसीलदार साब भी आये और इस आंदोलन को वापस करने की विनती करने लगे. उनसे हमने यह पूछा कि पिछले सोलह वर्षों से हम शांति पूर्वक आंदोलन कर रहे हैं तो इतने हथियारबंद दस्ते आखिरकार यहाँ क्यों भेजे गए हैं? वह चुप्पी लगा गए और हम सब लाता ग्राम से लाठी खर्क की और चल पड़े. पहला दल अपने मवेशी हांकता बढ़ा. पूरा माहौल ख़ुशी का था. लोग नाच रहे थे अपनी भूमि को ले कर बहुत उत्तेजित भी था. चलने से पहले सबने मां नंदा का प्रसाद लिया और देवी के निशाण खड्ग को ले कर गीत गाते लाठी खर्क की दिशा में रवाना हो चले. पहला पड़ाव भेल्टा था जहाँ शाम तक गिरते पड़ते उलटी करते हथियारबंद पी.ए.सी वालों की टुकड़ी भी पहुँच चुकी थी. वन विभाग के अधिकारी उन्हें किसी तरह खर्क तक तो ले आये पर काफी ऊंचाई के उस इलाके में वह बीमार पड़ गए और वापस लौट लिए. आंदोलनकारियों ने उन्हें चाय-पानी पिलाई यहीं ठहरने को कहा पर वह इतने भयभीत थे कि वापस ही हो लिए. भेल्टा पड़ाव में रात गुजार सुबह सभी आंदोलनकारी लाठी खर्क पहुँच गए जहाँ वन विभाग के कर्मचारी बंदूकों से लैस हो कर डरे- सहमे खड़े थे अब आगे रैणी ,पैंग और तोलमा से आने वाले आंदोलनकारियों से मिलना था इसलिए दोणी धार की ओर सब बढ़ चले.

लाठी खर्क पहुँच विशाल जनसभा हुई. दूर से वन विभाग के कर्मचारी जन सैलाब को देख चकित थे. उनने संदेश भिजवाया कि हम तुम्हें रोकने का नाटक करेंगे और तुम हमारी बात का उल्लंघन कर देना, इससे हमारी नौकरी भी बची रहेगी और तुम भी आगे कोर जोन तक जा सकोगे. यह बात सुन कर आंदोलनकारी उग्र हो उठे. यहाँ हमारी लड़ाई अपने अस्तित्व की रक्षा की थी और उन्हें यह नाटक सूझ रहा था. सबने वन चौकी का घेराव कर दिया और वन कर्मचारियों को वहां से खदेड़ दिया. १७ जुलाई को कोर जाने में पहुँच देवी की पूजा की और ये प्रतिज्ञा की कि वन और जन की सुरक्षा के लिए यह आंदोलन जारी रहेगा. फिर 7 सितम्बर 1998 को जोशीमठ में छीनो झपटो आंदोलन की रैली हुई. पत्रकारों ने क्षेत्र भ्रमण कर स्थानीय जनता की समस्याओं को पूरी दुनिया के आगे रख दिया. मार्च 1998 में देहरादून लच्छी वाला कार्यशाला में यह तय किया की उत्तराखंड के सरे संरक्षित क्षेत्रों की जनता का एक अपना मंच होना जरुरी है. फिर 20 जून को लाता और 10 जुलाई 1999 को ग्राम सौड़ गोविन्द पशु विहार में बड़ी बैठक हुई. इसी साल दिसंबर में जिला पिथौरागढ़ में अस्कोट के नजदीक हेल्पिया गांव में कुमाऊं के संरक्षित क्षेत्रों पर बातचीत हुई. इन सारी बैठकों का एक निश्चित प्रभाव यह पड़ा कि गोविन्द पशु विहार, गंगोत्री, नंदादेवी और अस्कोट संरक्षित इलाकों की समस्याओं के बारे में बेहतर समझ विकसित हुई. 26 जनवरी 2001 को गणतंत्र दिवस के अवसर पर ग्राम सभा लाता ने अपनी वन जन सुरक्षा नियमावली को पारित कर दिया.

चिपको से ले कर झपटो-छीनो और आज की परिस्थितियों में यह समझ लेना बहुत जरुरी है की अपने हक़-हकूकों की पुनः प्राप्त करने और समुदाय आधारित इको-टूरिज्म की मांग अपनी जगह है लेकिन इसके अलावा हमारे अस्तित्व का जो मुख्य पक्ष है उस पर लगातार घुन लग रहा है. हमें यह नहीं भूलना है कि हम पहाड़ियों की मेहनत और ईमानदारी ही हमारा सबसे बड़ा संसाधन है पर आज भृष्टाचार का बोलबाला है. आज स्थिति ऐसी बना दी गयी है कि ईमानदार जन प्रतिनिधि और कर्मचारी को लोग बेवकूफ और विकास की बाधा समझने लगे हैं. इसलिए जरुरी हो जाता है की सबसे पहले तो पशु चारण पर अधिकारियों का महीना और दूध -घी की सौगात बंद हो. विकास के लिए आये धन पर फैलने फूलने वाले जेई-एई व ठेकेदारों की लूट से विकास को होने वाली गति व मजदूरों के शोषण पर रोक लगे. हमारे समुदाय में जहाँ जहाँ भ्रष्टाचार व्याप्त है उस पर खुली चर्चा हो. विभिन्न विभागों के फील्ड कर्मचारी जैसे पटवारी, फारेस्ट गार्ड इत्यादि की समस्याएं समझी जाएँ कि वे क्यों और किसके इशारे पर भ्रष्टाचार में लिप्त होते हैं. हमारे इलाके की घाटियों में चल रही विकास परियोजनाओं में कितने प्रतिशत की घूस चलती है इसका श्वेत पत्र हमारे समुदाय द्वारा प्रकाशित किया जाय. हमारे इलाके के व्यापार और विकास में बिचौलियों के कमीशन पर खुली बात हो. जे.आर.वाई और सुनिश्चित रोजगार योजना के प्रभावों का अध्ययन किया जाये. आज हर काम विकास को ध्यान में न रख मात्रा मजदूरी के लालच में हो रहा है. दुख तो यह है कि आज लोग मेले, त्यौहार और परंपरागत रीति रिवाजों को निभाने के लिए भी मजदूरी मांगने लगे हैं. बिल वाउचरों के कुचक्र में ऐसे फंसा दिया गया है कि मानो अफीम की तरह हम सब उसके लती बना दिए गए हैं. पंचायत और पंचों का महत्व कम होता जा रहा है. शराब और जुए का चलन बढ़ता जा रहा है.

आने वाला समय हमारे लिए बड़ी संभावनाएं ले कर आता है. पर आर्थिक समृद्धि, संरक्षण और शांति की इन संभावनाओं की फसल का विदोहन अगर सही ढंग से नहीं किया गया तो यही हमारे लिए श्राप हो जाएँगी. इसलिए अब ये सबकी जिम्मेदारी बनती है कि अपने इलाके के संरक्षण और समृद्धि की संभावनाओं की रखवाली करते हुए समुदाय आधारित संरक्षण और इको-टूरिज्म के एक ऐसे मॉडल की कल्पना करें जिसमें पर्यटन से अर्जित आय का बटवारा संभव हो और जैव-विविधीकरण संरक्षण में सबके हित निहित हों.
(Dhan Singh Rana)

यह निश्चित है कि देर-सबेर नंदा देवी नेशनल पार्क को पर्यटन के लिए खोला जायेगा. इस महत्वपूर्ण अवसर का लाभ उठाते हुए हमें अपना सांगठनिक स्वरूप और योजना विकसित कर लेनी चाहिए ताकि अपनी राज्य सरकार के सहयोग से हम ऐसी वैधानिक व्यवस्था तय कर लें कि पर्यटन पर किसी का एकाधिकार संभव न हो. हमें सरकार का सहयोग मात्र लेना है सरकार को अपने इलाके के समुदाय आधारित इको टूरिज्म उद्योग का नेतृत्व नहीं देना है. आज ये देखा जा रहा है कि जो भी हमारे पर्यटन के सलाहकार होते हैं उनकी प्राथमिकताओं में स्थानीय जनता की जरा भी भूमिका नहीं होती. सरकार कहीं से भी उधार ले कर कोई परियोजना शुरू कर देती है. जिसकी लाभार्थी सूची में अपना नाम दर्ज करवाने के लिए हम आपस में लड़ना शुरू कर देते हैं और फिर घूस और भ्रष्टाचार का कुचक्र शुरू हो जाता है.

दूसरा बड़ा खतरा मंडल के विकास निगम, वन विभाग और वन निगम से है. हमें अपने इलाके के पर्यटन में किसी को भी स्वामित्व नहीं लेने देना है. मेरा मानना तो यह है की हमें इको-टूरिज्म की प्रचलित शब्दावली से भी बच कर रहना है. इको-टूरिज्म के नाम पर परियोजनाओं के अधीन अगर पर्यटन में विविध क्रियाओं और गतिविधियों को शामिल नहीं किया गया तो बस चिप्स-कोला और मैगी बेचने वाले खोखे ही दिखेंगे और यही समग्र पर्यटन का अंत होगा.

भविष्य की रणनीति के दो पहलू हों .पहला कोर जोन क्षेत्र में पर्वतारोहण और ट्रैकिंग व्यवसाय से और दूसरा समुदाय आधारित पर्यटन व्यवसाय के विकास से जुड़ा हो. हमें सरकार को पर्यटन विकास प्राधिकरण का ऐसा प्रारूप बना कर देना चाहिए जिसमें 80 प्रतिशत स्थानीय जनप्रतिनिधियों का नेतृत्व हो, 10 प्रतिशत सरकार और दस प्रतिशत विभिन्न स्त्रोत संस्थाओं और विशेषज्ञों का प्रतिनिधित्व रहे. इस प्राधिकरण को पर्यटन विकास व नियंत्रण का वैधानिक अधिकार सरकार द्वारा मिले.मंडल के विकास निगम क्षेत्रीय जनता विशेषकर बेरोजगार युवकों को उद्यम स्थापित करने में मदद करें और पर्यटन की गुणवत्ता नियंत्रण का कार्य करें. इस काम में इलाके के सफल उद्यमी ,होटल कारोबारी और प्रशिक्षित युवाओं का एक विशेष टास्क फॉर्स सुगमकर्ता की भूमिका निभाए.

विकास के लिए इलाके में स्टे-होम, साहसिक पर्यटन, बाईसिकिल पर्यटन, वन्यता एवं जैव विविधता अनुभव, धार्मिक एवं सांस्कृतिक पर्यटन की विस्तृत सूची के साथ यातायात पर विशेष ध्यान देना होगा. मेरी सलाह होगी कि तपोवन से आगे पर्यटकों को ले जाने की विशेष व्यवस्था की जानी चाहिए. इससे इलाके के बेकारों को शटल सर्विस के अंतर्गत रोजगार मिलेगा ,ना तो ट्रैफिक जाम होगा व पार्किंग, मोटर सर्विस, भोजनालय व आवास के अधीन भी रोजगार के साधन विकसित होंगे. ऐसे गांव जहां पर्यटन विकास प्राथमिकता पर न हो वहां से स्थानीय पर्यटन की आपूर्ति के लिए सब्जियां, दूध और मुर्गीपालन जैसे धंधे विकसित कर दिए जाएँ. कई स्थान मत्स्य पालन हेतु उपयुक्त मिलेंगे जहाँ तालाबों-पोखरों में उन्हें पाल कर अच्छी आय प्राप्त की जा सकती है. फिर अपना इलाका तो हस्तशिल्प व सांस्कृतिक रूप से विशिष्ट है ही. यहाँ आपसी भाई चारा ,सामूहिक निर्णय लेने की परम्पराओं का सुदृढ़ीकरण करते हुए ऐसे सांस्कृतिक-सामाजिक माहौल को बनाये रखना है जहाँ देश-विदेश के सैलानी अपने को सुरक्षित महसूस करें और हमारी संस्कृति व प्राकृतिक खजाने से प्रभावित हो हमारे इलाके में पुनः आने की सोचें.

यही हमारे संघर्षों के अनुभव हैं. नए युग की नई संभावनाओं और उत्तराखंड के शुभ चिंतकों के सकारात्मक सरोकारों की वसीयत मैं धन सिंह राणा अपनी भावी पीढ़ी के नाम कर रहा हूँ. जब मैं अपने इलाके, अपने गांव के भविष्य की तस्वीर अपने दिमाग में बनाने की कोशिश करता हूँ तो एक अकेले अपने घर या अपने देवता अपने लाटू की कोई स्पष्ट तस्वीर नहीं बन पाती है. जो तस्वीर मेरे दिमाग में उभर रही है वह हँसते-नाचते क्षेत्र वासियों की तस्वीर है और उन्हीं के बीच कहीं मेरा देवता मेरा लाटू भी नाच रहा है.
(Dhan Singh Rana)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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