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मल्या उड़ कर माल-भाबर की ओर जाते थे और हम गर्म इलाके के अपने दूसरे गांव

पहाड़ की चोटी पर बसे अपने गांव में शीत ऋतु से सामना बचपन में ही हो चुका था. सर्दियां शुरू होतीं और सुबह-शाम ठंड से शरीर कंपकंपाने लगता, दांत किटकिटाने लगते. ठंडी सूखी हवा से होंठ फट जाते. सुबह-सवेरे खेतों की मेंड़ और कच्चे रास्तों-पगडंडियों में फैली तुषार की सफेदी मन मोह लेती लेकिन हाथों में लेते ही तुषार उन्हें ठंड से जमा देती. सर्दियों में ही आसमान से फूलों की पंखुड़ियों की तरह झरती बर्फ का अद्भुत नजारा भी दिखाई देता. बर्फ गिरती और खेत, मकान, पेड़-पौधे और पहाड़ों की चोटियां सभी सफेदी से ढक जाते. Deven Mewari Column

और हां, सर्दियां शुरू होतीं और सुदूर साफ-सुकीले हिमालय की ओर से कबूतरों जैसे पंछियों के झुंड के झुंड उड़ते हुए आते और हमारे गेहूं के खेतों में उतर कर चुगने लगते! मां कहती थी- वे मल्या हैं. जाड़े से बचने के लिए धाम तापने नीचे माल-भाबर की ओर जा रहे हैं. उड़ते-उड़ते थक जाते होंगे इजू, इसलिए एकाध दिन यहां डेरा डाल लेते हैं.

जाड़ा बढ़ता और बग्वाली (दीपावली) का त्योहार मना कर हम भी अपने पालतू पशुओं के बागुड़ (झुंड) के साथ घाम तापने माल-भाबर की ओर चल पड़ते. सबसे आगे गले में लटका बड़ा-सा घंटा घनघनाती, बड़े-बड़े सींगों वाली फूल भैंस, ….घन-मन! घन-मन! फिर बाकी भैंसें, उनके पीछे गोधनी और दूसरी गाएं, फिर सेतुवा और गुजारा बैलों की जोड़ी, उनके पीछे गून में भरे सामान से लदा-फंदा गले में लटकी खांकरों (बड़े घुंघरूओं) की माला खन-खन खनखनाता हमारा घोड़ा, और फिर घोड़े को ‘कुरा! कुरा!’ और ‘च्च-च्च-च्च’ की आवाज देकर हांकते पिताजी, मां, मैं और भाभी मां.

मल्या आसमान में उड़ कर मैदानों की ओर जाते थे और हम पहाड़ों, घाटियों, नदी-रौखड़ों, घने वनों और चढ़ाइयों-उतारों को पार करते हुए पैदल गर्म इलाके के अपने दूसरे गांव में पहुंचते थे. वे पंछी और हम शीत ऋतु के प्रवासी प्राणी थे. उन्हें देख कर प्रवासी पक्षियों के लिए मन में बचपन से ही जिज्ञासा भर गई थी. यह तो बहुत बाद में जाकर पता लगा कि शीत ऋतु के आगमन के साथ ही पक्षी क्यों इतनी लंबी यात्राएं करके प्रवास पर जाते हैं.

और हां, बचपन में हमें अंग्रेजी का एक बालगीत पढाया जाता था, जिसमें बताया गया था कि उत्तरी ठंडी हवा बहने लगी है. अब बर्फ गिरेगी. लेकिन, बेचारी अबाबील क्या करेगी? और, छुछुंदर क्या करेगा? उसमें बताया गया था कि अबाबील तो ठंडी हवा बहने से पहले ही गर्म प्रदेशों की ओर उड़ जाएगी और छुछुंदर गुड़ी-मुड़ी गेंद बन कर सो जाएगा और गर्म ऋतु आने पर ही उठेगा!

कई प्राणी शीत ऋतु आते ही दरारों, कंदराओं, गुफाओं और भूमि के भीतर क्यों छिप जाते हैं? सोचता रहता था बचपन से कि वर्षा में ताल-पोखरों में इतना टर्राने वाले मेंढकों की गायक मंडलियां आखिर शीत ऋतु में कहां चली जाती हैं? कहां गायब हो जाते हैं वे हजारों कीट-पतंगें, गिलहरियां और छिपकलियां. क्यों गुफाओं में लंबी नींद में सो जाते हैं भालू और क्यों खंडहरों और कोटरों में उल्टे छाते से लटक जाते हैं चमगादड़? सर्दियों की यह लंबी नींद और पक्षियों की प्रवास यात्राएं शीत ऋतु की खास पहचान हैं.

तभी पढ़ी थी प्रेमचंद की कहानी ‘पूस की रात’ जिसमें शिशिर ऋतु का जीवंत वर्णन और हल्कू व जबरा की झेली ठंड शरीर को सर्दी से सिहरा देती थी – पूस की अंधेरी रात. आकाश पर तारे भी ठिठुरते मालूम होते थे. हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पत्तों की एक छतरी के नीचे बांस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े कांप रहा था. खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट में मुंह डाले सर्दी से कूं-कूं कर रहा था…

शिशिर की इतनी ठंड कि निराला कह उठे – ‘प्रखर शीत के शर से जग को वेधा तुमने/हरीतिमा के पत्र-पत्र को छेदा तुमने.’ उन्होंने हिंस्त्र पशुओं भरी शिशिर की शर्वरी को भी शब्दों में बांधा.

मन में सवाल उठता था कि आखिर शरीर को सिहरा देने वाली शिशिर की ठंड पड़ती क्यों है जिसमें पशु-पक्षी ही नहीं पेड़-पौधे भी सिहर उठते हैं? उत्तर मिला अपनी धुरी पर बांकी खड़ी पृथ्वी से. अगर पृथ्वी का संतरे-सा गोला सीधा खड़ा रहता तो न ऋतुएं आतीं और न मौसम बदलते. साल भर एक-सा मौसम रहता. मां प्रकृति का आभार कि उसने जीवन की हलचल से भरी हमारी प्यारी और निराली पृथ्वी को धुरी पर हलका-सा झुका दिया. अक्ष से बस 23.5 अंश. इसी झुकाव का फल है पृथ्वी पर ऋतुएं आती हैं, जाती हैं. पृथ्वी के झुके हुए गोले का उत्तरी गोलार्ध जब सूर्य से दूर होता है तो पृथ्वी के इस भाग में शीत ऋतु आ जाती है. तब दक्षिणी गोलार्ध सूर्य के सामने होता है और उसकी किरणों से तपता रहता है. सूर्य दक्षिणायन होता है और वहां तब ग्रीष्म ऋतु होती है. समय का पहिया घूमता है, सूर्य उत्तरायण होता है और घूमती धरती का उत्तरी गोलार्ध सूर्य के सामने आ जाता है. तब उत्तरी गोलार्ध में ग्रीष्म और दक्षिणी गोलार्ध में शीत ऋतु शुरू हो जाती है.

लेकिन, पहले वसंत, फिर ग्रीष्म, फिर बर्षा, उसके बाद शरद, हेमंत और शीत ऋतु आने का क्या रहस्य है? कोई रहस्य नहीं. पृथ्वी के घूमने और सूर्य की किरणों का कमाल भर है यह. जब पृथ्वी का गोलार्ध, यानी जैसे उत्तरी गोलार्ध, घूमते-घूमते सूर्य की ओर आने लगता है तो वसंत ऋतु शुरू हो जाती है. गोला घूमते हुए ऐन सूर्य के सामने आता है तो ग्रीष्म ऋतु की तपन शुरू हो जाती है. ग्रीष्म ऋतु की तपन से उठी भाप बादलों को जन्म देती है. वे बरसते हैं. मानसून भी आ जाता है. वर्षा ऋतु शुरू हो जाती है. जब उत्तरी गोलार्ध घूमते-घूमते सूर्य से दूर हटने लगता है तो शरद और हेमंत ऋतु आती हैं और सूर्य से दूर होते उत्तरी गोलार्ध में चिल्ला जाड़े के साथ शिशिर यानी शीत ऋतु शुरू हो जाती है. रातें लंबी और दिन छोटे हो जाते हैं.

इन्हीं छोटे दिनों और लंबी रातों के अहसास के साथ अपनी प्रवास यात्रा कर कूच करते हैं प्रवासी परिंदे. उनके ठंडे मुल्क में ठंडी, बर्फानी हवाएं बहने लगती हैं और कीट-पतंगे, मेंढक और केंचुए सब शीत निद्रा में शवासन साध लेते हैं. तब परिंदें खाएं तो क्या खाएं? ऊपर से कड़ाके की ठंड! पंखों की पोशाक आखिर ठंड से कितना बचा सकती है? इसलिए, वे कूच कर जाते हैं अपनी प्रवास यात्रा पर. आगे-आगे बच्चे और फिर बड़ी उम्र के पक्षी कतार बांध कर मंजिल की ओर चल पड़ते हैं.           

न कलैंडर, न घड़ी, न कुतुबनुमा, फिर भी वे सूरज व चांद-तारों से पता पूछते-पूछते पहुंच जाते हैं दूर मैदानों में अपनी मंजिल तक. वैज्ञानिक कहते हैं, वे पृथ्वी की चुंबकीय शक्ति से भी अपनी राह खोज लेते हैं.

इतनी लंबी यात्रा पर रवाना होने से पहले वे खूब खा-खा कर शरीर में चर्बी जमा कर लेते हैं. लंबी उड़ान में यही चर्बी उन्हें उड़ने की ताकत देती है. शीत ऋतु की ठंड से बचने के लिए अपने नीड़ों का मोह त्याग कर देश-प्रदेश से हजारों-हजार पक्षी हमारे देश की नदियों, झील-तालाबों, बाग-बगीचों और पक्षी विहारों में चले आते हैं. रोजी पास्टर, वुडकाक, वागटेल, बगुले, बत्तखें, हंस, गरुड़, बाज़, बुलबुल, गौरेया, पपीहा, चकवा, तीतर, बटेर आदि सभी पक्षी पास या दूर-दूर तक की प्रवास यात्राएं करते हैं. पेंटेड स्टार्क, ओपन बिल्ड स्टार्क, पिंटेल, कामन टील, ब्लू विंग्ड टील, शोवेलर, ग्रे पेलिकन, चक्रवाक, फ्लैमिंगो, क्रौंच, सारस और साइबेरियाई सारस भी प्रवासी पक्षी हैं और जाड़े हमारे देश के गर्म इलाकों में बिताते हैं.

हर साल साइबेरिया, मंगोलिया, तिब्बत, चीन, नेपाल, जापान, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, यूरोप, श्रीलंका और अन्य देशों से हजारों पक्षी प्रवास पर आते हैं. कहते हैं, प्रवास के लिए आर्कटिक टर्न उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक की लगभग 17,700 किलोमीटर लंबी उड़ान भरती है. प्रवास यात्रा की यह सबसे लंबी उड़ान है. गोल्डन प्लोवर पक्षी उत्तरी अमेरिका के सागर तटों से लगभग 3,800 किलोमीटर लंबी उड़ान भर कर अर्जेंटाइना पहुंच जाते हैं. रूस और दक्षिणी यूरोप से रोजी पास्टर पक्षी जाड़ों में हमारे देश में आ जाते हैं. शिशिर ऋतु की रातों में कूजते चकवा-चकवी के लिए कवि कहता है- ‘सांझ भई दिन बीत चकवा दीन्ही रोय, चल चकवा वा देश को जहां रैन ना होय!’

लेकिन, रैन तो सभी जगह होती है. शीत ऋतु समाप्त होती है और ऋतुराज वसंत दस्तक देने लगता है. जब ‘शिशिर ने पहन लिया वसंत का दुकूल/गंध बन उड़ रहा पराग धूल-धूल’ (अज्ञेय) तो पंछी अपने पुराने नीड़ों की ओर लौट जाते हैं.

पक्षियों और हम में एक बात समान है- दोनों गर्म खून वाले प्राणी हैं. यानी, हमारे शरीर का भीतरी तापमान एक समान बना रहता है. जैसे, हमारे शरीर का औसत तापमान 37 डिग्री सेल्सियस (98.6 डिग्री फारेनहाइट) बना रहता है. अगर कपड़े न पहने हों तो आसपास तापमान 25 डिग्री सेल्सियस से कम हो जाए तो ठंड लगने लगती है, कंपकंपी शुरू हो जाती है और शरीर के बाहरी हिस्सों से खून भीतरी अंगों की ओर जाने लगता है ताकि वे बचें रहें. कपड़े पहनने से हमारे शरीर की गर्मी रुकी रहती है और बाहर नहीं निकलती. ठंड से कंपकंपी इसलिए छूटती है क्योंकि मांसपेशियां तेजी से हरकत करने लगती हैं और शरीर के भीतरी ताप को बचाने की कोशिश करती हैं. ठंड से धीरे-धीरे शरीर के बाहरी अंग सुन्न पड़ने लगते हैं. ठंड अधिक बढ़ने पर कंपकंपी के साथ ही छुअन की अनुभूति भी कम होने लगती है. अंगुलियों से किसी चीज को उठाना और बटन तक लगाना कठिन हो जाता है.

बहरहाल, वसंत दस्तक देता है और सिहरते शीत के दिन बीत जाते हैं. शीत निद्रा में सोए जीव जाग उठते हैं. समाधि साधे पर्णविहीन वृक्षों की सोई कलियां भी जाग उठती हैं और खिल कर फूलों की बहार ला देती हैं. Deven Mewari Column

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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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