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दिल्ली से तुंगनाथ वाया नागनाथ – अन्तिम हिस्सा

(पिछली क़िस्त – दिल्ली से तुंगनाथ वाया नागनाथ – 3)

तभी, शेखर ने सामने उगी लैंटाना यानी कुरी की झाड़ी पर से उसके नन्हे, रंग-बिरंगे फूलों का छोटा-सा गुच्छा तोड़ा और आकर मेरी वास्कट की जेब पर सजाते हुए कहा, “देवेनदा, इसे देख कर आपको कुछ याद आएगा. देखिए क्या याद आता है? ”याद आए, बुजुर्ग चंद्रशेखर लोहुमी जी याद आए जिन्होंने कभी कुरी के कीड़े पर किसी सिद्धहस्त वैज्ञानिक की तरह काम किया था. उस काम के लिए उन्हें खूब सम्मानित भी किया गया था. मैंने उनसे भेंट के आधार पर लेख लिखे थे. पंतनगर विश्वविद्यालय में वे प्रायः मेरे घर पर आते थे और हम घंटों बातें किया करते थे.

“कुछ याद आया? ” थोड़ी देर बाद शेखर ने पूछा.

मैंने कहा, “यह तो कुरी है. इसके कीड़े पर लोहुमी जी ने जो काम किया था उस पर मैंने ‘धर्मयुग’ में लेख लिखे थे. दो अंकों में छपे थे.”

“मेरे पास उन लेखों की कतरनें आज भी सुरक्षित हैं,” शेखर ने मुस्कुरा कर कहा तो बहुत खुशी हुई.

रामगंगा पीछे छूट चुकी थी और गगास आगे आने वाली थी. हम उनके बीच के पहाड़ पार कर रहे थे. तभी, इन दोनों नदियों के बारे में एटकिंसन के गजट में छपी वह किंवदंती याद हो आई…एक बार देवताओं ने निश्चय किया कि द्वारा में रहें. इसके लिए पवित्र प्रयाग का होना जरूरी था. तो, उन्होंने तय किया कि गगास और रामगंगा आकर द्वारा में मिलें. वहां इनका संगम हो जाए. आदेश दे दिया गया. गगास ने रामगंगा को रैबार भेजना था कि वह गनाई से आगे आ जाए. उसने रेबार देने की जिम्मेदारी सेमल के पेड़ को दी. वह छानी तक आया और वहां खड़ा हो गया. सोचा, मैं इतना ऊंचा हूं, मुझे आगे जाने की क्या जरूरत? रामगंगा आएगी तो यहीं से देख लूंगा.

उधर, रामगंगा मेहलचैरी से पूर्व की ओर मुड़ कर घूमते हुए गनाई पहुंची और वहां से पश्चिम की ओर बढ़ गई. सेमल ने रामगंगा का सुसाट-भुभाट सुना तो चौंक कर बोला- अरे, रामगंगा गनाई से सीधे आगे आ जाओ. लेकिन, ‘अब तो बहुत देर हो गई’ कह कर रामगंगा आगे बढ़ गई. इसलिए वहां उनका संगम नहीं हो पाया. गगास अपनी जगह से ही आगे बहती चली गई. देर से रैबार देने वाले रैबारी को लोग तब से ‘सेमल जैसा रैबारी’ कहने लगे.

हां, तो हम चीड़ वनों के बीच से नीचे घाटी की ओर उतरे. लेकिन, उतरते-उतरते देखा, एक पहाड़ की पूरी ढलान पर युकिलिप्टस ही यूकिलिप्टस के पेड़ उगे हैं. उनके नीचे न कोई घास, न बेलें, न झाड़ियां, न छोटे पौधे. सूखी उजाड़-सी धरती. हैरान हुए कि यह किसके दिमाग की उपज होगी? पूरे पहाड़ पर स्थानीय पेड़-पौधों का नामो-निशान भी नहीं रह गया है. उसमें पशु-पक्षी और कीड़े-मकोड़े भी नहीं रह सकते. हम लोग पहाड़ पर यूकिलिप्टस का वह एकल रोपण देख कर बहुत दुखी हुए.

सड़क घूमते हुए नीचे और नीचे जा रही थी. नीचे कफड़ा गांव था. यहां भी कहीं कोयल कूक रही थी. बीच-बीच में पेड़ों की शाखों पर चमकीली हरी-नीली सन बर्ड दिखाई दे जातीं. कहीं कीड़ों की ताक में बैठी पतली लंबी पूंछ वाली काली चिड़िया (भुजंगा) नजर आ जाती. सड़क किनारे अचानक काफी सिल्वर ओक के लंबे, ऊंचे पेड़ दिखाई देने लगे जो पीली, सुनहरी मंजरियों से लदे हुए थे.

तभी, संकरी घाटी में अचानक गगास नदी का पुल आ गया. पुल पार करके थोड़ा ऊपर पहुंच कर शेखर ने रोक लिया. यहां भी सड़क के घूम पर नीली गुलमोहर के पेड़ में बहार आई हुई थी. हम शीशम के पेड़ की बगल में खड़े हो गए. शेखर ने नीचे गगास की ओर देख कर कहा, “जगदीश चंद्र पांडे के ‘गगास के तट पर’ उपन्यास में जो गगास नदी है, वह यही है. हम उसके बारे में बचपन से पढ़ते आ रहे हैं. पांडे जी ने इसे अपने उपन्यास में अमर कर दिया है, ठीक वैसे ही जैसे शेखर जोशी ने ‘कोसी का घटवार’ कहानी में कोसी को. लेकिन, पता नहीं ये नदियां कब तक अमर बनी रहेगीं क्योंकि हर साल इनमें पानी घटता जा रहा है. क्यों मेहता जी?”
“आप ठीक कह रहे हैं. गगास और कोसी दोनों के बहाव की गति घटती जा रही है. कोसी के घटते बहाव का तो बाकायदा अध्ययन भी किया गया है. शायद 4.6 किमी. प्रति वर्ष या ऐसे ही कुछ हिसाब से पानी के बहाव की गति घट रही है.”

यह ‘गिरदा’ भी सदा ऐन मौके पर याद आ जाता है. अब देखो तो आंखें बंद करके कान में सुना रहा हैः ‘मेरि कोसि हिरै गे कोसि/आब कचुई है गे, मेरि कोसि हिरै गे कोसि/तिरंगुली जसि रै गे, मेरि कोसि हिरै गे कोसि.”…

गगास को एक नजर और देख लेता हूं. कानों में गिरदा की आवाज गूंज रही है. भीतर कहीं कोसी की पीड़ा बहने लगी है. हम आगे चल पड़ते हैं.

रानीखेत अब केवल 14 किमी. दूर था और हम चीड़ वनों से होकर आगे बढ़ रहे थे. उन चीड़ वनों के बीच शांत, एकांत मौना गांव आया. एक चीड़ानी धार की ढलान पर विद्यालय का बोर्ड दिखा- चौकुनी विद्यालय, जिला-अल्मोड़ा. ऊपर जाने पर चौकुनी गांव के खेत और घर दिखाई दिए. हरे-भरे जंगल में चीड़ के पेड़ों की सांय-सांय सुनते हुए हम कब रानीखेत में रंग-बिरंगे छावनी द्वार के पास पहुंच गए, पता ही नहीं लगा. और लीजिए, वहां काफल देखते ही कूद कर बाहर! दो-तीन लोग टोकरियों में काफल लेकर बैठे हुए थे. एक के पास खुबानी, आड़ू, कुसमिया आड़ू और प्लम थे. साथियों ने थैलियों में दस-दस रूपए के काफल लेकर एक-दूसरे को दिए. महेश ने मुझे भी एक थैली पकड़ा दी. ‘काफल-काफल’ करते मन को मुट्ठी भर-भर कर काफल खाने से बड़ा सुकून मिला. पाए हुए जैसे लगे वे मीठे रसीले काफल. खाते-खाते मन बचपन में भी हो आया, गांव में काफल के पेड़ों में चढ़ कर, टहनियों से टीप-टीप कर काफल चख आया.

सदर बाजार में जाकर रुके. महेश ने दाज्यू से परिचय कराया. फिर एक होटल में विशेष रूप से हमारे लिए बना खाना खाया- हरे लंबे गदुवा का जायकेदार साग, आलू-टमाटर की रसदार सब्जी, रोटी और चावल. सब्जियों को जखिया से छौंका गया था. स्वाद इतना अद्भुत कि प्रकाश ने फटाफट एक पहाड़ी लौकी खरीद ली कि दिल्ली जाकर खाएंगे. कुछ साथियों ने दिल्ली में परिवार को पहाड़ की याद दिलाने के लिए बाल मिठाई खरीद ली. मुझे बीच बाजार में रेढ़ी पर काफल दिख गए. काफल वाले से कागज के डिब्बे में काफल की ही पत्तियां बिछा कर काफल पैक करवा लिए. पहाड़ की ये सौगातें लेकर हम आगे रवाना हुए.

खैरना में कोसी मिली. देख कर ‘चाय्ये रै गए’ (देखते ही रह गए). गिरदा फिर कान में कहने लगे, “देखो, इस कोसी को देखो. ये वही कोसी है दाज्यू जो कभी….गदगदानी औंछी, मेरि कोसि हिरै गे कोसि/घट-गूला रिंगोंछी, मेरि कोसि हिरै गे कोसि.…

अब अपने-अपने घरों को जाने की घड़ी आ गई थी. खैरना में सभी साथियों ने जे.एस. मेहता जी के गले लग कर उनसे विदा ली. वहां से उन्हें अल्मोड़ा जाना था. माहौल थोड़ा भावुक हो गया. चुपचाप आगे बढ़ गए. 1.30 बजे भुवाली पहुंचे. वहां शेखर, नवीन, राजू, हरीश और समीर से इस संकल्प के साथ विदाई ली कि जल्दी ही अगले कार्यक्रम में मिलेंगे. वे नैनीताल, हल्द्वानी को गए और हमने भीमताल की राह पकड़ी. धार पार फरसौंली में भगतदा की दूकान ‘फ्रुटेज’ पर रुके. वे तो बाहर गए हुए थे लेकिन उनके बेटे संजीव ने पहचान लिया. बुरांश और लीची के रस का रसास्वादन कराया. उस रस में संघर्ष और मेहनत का रस भी घुला होने के कारण उसका स्वाद बहुत बढ़ गया था.

असल में यात्रारंभ और यात्रा समापन के समय के अब दो ऐसे उदाहरण हमारे सामने थे जो पहाड़ों में रह कर पहाड़ के लिए बहुत-कुछ कर सकने का संदेश देते हैं. पहला उदाहरण उस युवा विद्यार्थी का है जिसने अपने साथियों के साथ मिल कर 1974 में उत्तराखंड की आर-पार यात्रा करके पहाड़ में रह कर पहाड़ को समझने और कुछ कर दिखाने की अलख जगाई थी. वह रमता जोगी साथी अभी-अभी गले लग कर नैनीताल की ओर चला गया है. विगत 36 वर्षों में उसके दो कदमों के साथ हजारों कदम जुड़ गए हैं और वह सबको साथ लेकर ‘पहाड़’ के जरिए पहाड़ की धड़कनों को लगातार सुन और गुन रहा है.

दूसरा उदाहरण इस साथी का है जिसने वन विभाग की नौकरी के बाद पहाड़ में ही रह कर स्वरोजगार अपना कर आत्मनिर्भर बनने का संकल्प लिया और आज स्वरोजगार के साथ-साथ दूसरों को भी रोजगार दे रहा है. उसका सपना ‘फ्रुटेज’ के रूप में फला-फूला है. हमने फ्रुटेज से बुरांश का रस और कुछ अन्य फल उत्पाद खरीदे.

सपना साकार करने के इन दोनों उदाहरणों के बारे में सोचते-सोचते, लौटने का सुखद स्वप्न लेकर हम भीमताल के रास्ते दिल्ली की ओर रवाना हो गए.

(समाप्त)

देवेंद्र मेवाड़ी

लोकप्रिय विज्ञान की दर्ज़नों किताबें लिख चुके देवेन मेवाड़ी देश के वरिष्ठतम विज्ञान लेखकों में गिने जाते हैं. अनेक राष्ट्रीय पुरुस्कारों से सम्मानित देवेन मेवाड़ी मूलतः उत्तराखण्ड के निवासी हैं और ‘मेरी यादों का पहाड़’ शीर्षक उनकी आत्मकथात्मक रचना हाल के वर्षों में बहुत लोकप्रिय रही है.

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