स्वामी दयानन्द जी 11 अप्रैल सन् 1855 को 30 वर्ष की उम्र में कुम्भ मेले की धूम सुनकर उत्तराखण्ड के वन पर्वतों की ओर प्रस्थान करते हुए हरिद्वार पहुंचे थे. हरिद्वार में स्वामी जी ने अपना निवास स्थान चण्डी मंदिर के जंगल को बनाया, यहां का वातावरण शान्त था. यहां के कुम्भ मेले के सम्बन्ध में स्वामी जी ने इस प्रकार कहा
(Dayanand Saraswati in Uttarakhand)
मैंने हरिद्वार का यह पहला ही कुम्भ देखा था. मैंने यह कभी कल्पना भी नहीं की थी कि कुम्भ के मेले में इतने त्यागी और तत्वदर्शी पुरुष आयेंगे.
स्वामी जी हरिद्वार से चलकर ऋषिकेश पहुंचे. यहां पहचकर स्वामी जी योगाभ्यास करने लगे. ऋषिकेश के सम्बन्ध में उन्होंने इस प्रकार से लिखा है- वहां बड़े-बड़े महात्माओं, संन्यासियों और योगियों से योग की रीति सीखता और सत्संग करता रहा.
कुछ समय पश्चात् वे यहां से टिहरी पहुंच गये. टिहरी जाने के लिए एक ब्रह्मचारी और दो पहाड़ी भी तैयार हो गये थे. फलतः स्वामी जी इन्हें भी अपने साथ टिहरी लेकर पहुंचे. स्वामी जी ने इस स्थान के बारे में लिखा है- यह स्थान विद्यावृद्धि के कारण साधुओं एवं राज्य पंडितों से पूर्ण और प्रसिद्ध था. यहां स्वामी जी के साथ एक विचित्र घटना घटी. इस घटना के सम्बन्ध में उन्होंने इस प्रकार लिखा है-
एक दिन एक पण्डित ने अपने यहां मेरा निमंत्रण किया और निश्चित समय पर एक पुरुष को बुलाने भी भेजा. उसके साथ मैं और ब्रह्मचारी दोनों उसके स्थान पर पहुंचे. परन्तु मुझको वहां एक पण्डित को मांस काटते और बनाते देख अत्यन्त घृणा आई. आगे जाकर बहुत से पण्डितों को मांस और अस्थियों के ढेर और जानवरों के भुने हुए सिरों पर काम करते देखा. इतने में ही गृह स्वामी ने प्रसन्नतापूर्वक हमसे कहा कि भीतर चले आइये. मैंने कहा कि आप अपना काम करते जाइये. मेरे लिए कुछ कष्ट न कीजिये. यह कह कर वहां से उलटे पांव अपने स्थान का मार्ग लिया. कुछ काल बाद वही मांस-भक्षी पंडित मेरे पास आया और मुझसे निमंत्रण में चलने के लिए कहा और साथ ही यह भी कहा कि यह मांसादि उत्तम भोजन केवल आप ही के लिए बनाये गये हैं. मैंने उससे स्पष्ट कह दिया कि यह सब वृथा और निष्फल है क्योंकि आप मांस-भक्षी हैं. मेरे योग्य तो केवल फल आदि हैं. मांस खाना तो दूर रहा, मुझे तो उसको देखने से ही रोग हो जाता है. यदि आपको मेरा न्योता करना ही है तो कुछ अन्न और फलादि वस्तु भिजवा दीजिए. मेरा ब्रहाचारी वहां पर भोजन बना लेगा. इन सब बातों को उक्त पण्डित स्वीकृत कर और लज्जित हो अपने घर लौट गया.
(Dayanand Saraswati in Uttarakhand)
स्वामी जी को अभी तक तंत्र-मंत्र का भी ज्ञान न था लेकिन जब राजपंडित के पास तंत्र ग्रन्थों को देखा तो उन्हें उनके प्रति बड़ी श्रद्धा हुई. इस सम्बन्ध में खुद कहते हैं – इन तंत्र ग्रन्थों को पढ़कर मैंने उज्जवल रूप से जान लिया कि ऐसे जघन्य ग्रन्थों को लिखकर धूर्त और दुष्ट लोगों ने उन्हें धर्म शास्त्र के नाम से प्रचारित किया है.
तंत्र ग्रन्थों की वे खुली आलोचना करते थे. टिहरी में काफी समय तक रहने के पश्चात वे श्रीनगर पहुंचे. श्रीनगर के केदारघाट पर बने एक मन्दिर में उन्होंने निवास किया. उन्होंने स्वयं कहा है – ‘मैं यहां (टिहरी) से श्रीनगर को चल पड़ा. यहां मैंने केदारघाट पर एक मन्दिर में निवास किया.
केदारघाट से स्वामीजी घूमते-घूमते तुंगनाथ के शिखर पर जा पहुंचे. तुंगनाथ की चढ़ाई बड़ी भयंकर थी. तुंगनाथ के मंदिर में पहुंचकर उन्होंने वहां के पंडों से भेंट की. मंदिर में अनेक देव मूर्तियां भी देखीं. वे वहां न ठहरे, क्योंकि उन्होंने समझ लिया कि यहां किसी योगी के सत्संग की आशा नहीं है. अत: वह वहां से वापस नीचे लौट आये. लौटते समय वे रास्ता भूल गये जिससे उन्हें महान विपत्ति का सामना करना पड़ा. इसका वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है-
(Dayanand Saraswati in Uttarakhand)
नीचे उतरते समय मैंने अपने सामने दो मार्ग देखे, एक मार्ग पश्चिम की ओर, दूसरा दक्षिण-पश्चिम की ओर जाता था. मैं यह स्थिर न कर सका कि उन मार्गों में से मुझे किस मार्ग से जाना चाहिए. अन्त में मैं उस मार्ग से चल दिया जो जंगल की ओर जाता था. कुछ ही दूर बढ़ा कि मैं एक घने जंगल में घुस गया. जंगल में कहीं बड़े-बड़े ऊंचे नीचे पाषाणखण्ड थे और कहीं जलहीन छोटी-छोटी नदियां थीं. थोड़ी दूर और आगे चलने पर मैंने देखा कि मार्ग रूका हुआ है. कुछ देर तक सोचने के बाद मैं घास के गुल्म को दृढ़ता से पकड़कर धीरे-धीरे नीचे उतरने लगा. थोड़ी देर बाद मैं एक सूखी नदी के ऊंचे तट पर जा पहुंचा. उसके पीछे एक ऊंची पत्थर की चट्टान पर खड़ा होकर चारों ओर देखने लगा. मैंने देखा कि चारों ओर ऊंची-ऊंची भूमि, छोटे-छोटे पर्वत और मनुष्य के लिए अगम्य और मार्गहीन वनस्थली थी. यद्यपि उस दुर्गम वन के मार्ग में मेरे वस्त्रादि फट गये थे, शरीर क्षत विक्षत हो गया था, पैर कांटों से छिद गये थे. तथापि मैं केवल प्रबल पुरुषार्थ के प्रभाव से ही उसे पार कर गया. अन्त में एक पादमूल में आकर मैंने एक मार्ग भी देखा. इसी मार्ग से आगे जाने पर कुटियों की एक श्रेणी देखी. कुटीवासियों से पूछने पर पता चला कि यह मार्ग ऊखीमठ की ओर गया है. मैं भी ऊखीमठ की ओर चल दिया और थोड़ी देर बाद ही वहां पहुंच गया.
इस वन में स्वामी जी को मृत्यु का एक प्रकार से सामना करना पड़ा था. तुंगनाथ से स्वामी जी ऊखीमठ आये. यहां पर स्वामी जी ने एक रात्रि विश्राम किया. प्रात:काल होते ही वे गुप्त काशी चले गये और गुप्तकाशी से उसी दिन लौट आये, ऊखीमठ से गुप्तकाशी की दूरी अधिक नहीं है. स्वामी जी वहां पर मठ के महन्त और साधु संन्यासियों से विशेष रूप से परिचित हो गये. अन्त में मठ का महन्त उनसे इतना प्रसन्न हुआ कि उसने उनसे शिष्य हो जाने का विशेष अनुरोध किया और प्रलोभन भी उनके सामने उपस्थित किया.
स्वामी ने स्वयं बताया है कि – यहां के बड़े महन्त ने मुझे अपना चेला बनाने के लिए कहा. उसने इस बात की दृढ़ता के लिए भी मुझे प्रलोभन दिखाया कि हमारी गद्दी के तुम स्वामी होगे और लाखों रुपये की पूंजी होगी. मैंने उनको यह निस्पृह उत्तर दिया कि यदि मुझे धन की लालसा होती तो मैं अपने पिता की सम्पत्ति को जो तुम्हारे इस स्थल, धन धान्य से कहीं बढ़कर थी, न छोड़ता. इसके अतिरिक्त स्वामी जी ने यह भी ऊखीमठ के महंत से कहा था – जिस उद्देश्य के लिए मैंने घर छोड़ा और सांसारिक ऐश्वर्य से मुख मोड़ा, न तो मैं उसके लिए तुम्हें यत्न करते देखता हूं और न तुम्हें उसका ज्ञान ही प्रतीत होता है. पुनः तुम्हारे पास मेरा रहना कैसे हो सकता है? यह सुनकर महन्त ने पूछा कि वह कौन सा उद्देश्य है जिसकी तुम्हें जिज्ञासा है और तुम इतना परिश्रम उठा रहे हो. मैंने उत्तर दिया कि मैं सत्य, योग, विद्या और मोक्ष चाहता हूं और जब तक यह अर्थ सिद्ध न होगा तब तक बराबर अपने देशवासियों का उपकार, जो मनुष्य का कर्तव्य है, करता रहूंगा. महन्त ने स्वामी जी के इस विचार का आदर किया.
यहां पर यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि स्वामी जी ने अपने हृदयगत विचार प्रकट करते हुए कहा – मैं सत्य योग विद्या और मोक्ष चाहता है. वन पर्वतों में भ्रमण करने का आशय स्वामी जी का यही था. स्वामी जी ने जब यह समझ लिया कि यहां किसी योगी महात्मा से भेंट होने की आशा नहीं तो वे वहां से जोशीमठ की ओर चल दिये. जोशीमठ के संबंध में स्वामी जी ने कहा है – वहां (जोशीमठ) कुछ दिनों दक्षिणी महाराष्ट्रों और संन्यासियों के साथ जो संन्यासाश्रम की चतुर्थ श्रेणी के सच्चे साधु थे, रहा और बहुत से योगियों और विद्वानों, महन्तों और साधुओं से भेंट हुई और उनसे वार्तालाप में मुझको योग विद्या संबंधी और नई बातें ज्ञात हुईं.
(Dayanand Saraswati in Uttarakhand)
जोशीमठ, ज्योतिर्मठ का अपभ्रंश है. ऊखीमठ और जोशीमठ दोनों स्थानों में स्वामी जी ने ग्रंथों की भी खोज की. जोशीमठ में स्वामी जी ने योगियों से योग की क्रियायें भी सीखीं. इस संबंध में दयानन्द जीवन चरित्र में इस प्रकार से उल्लेख आता है- किसी योगी से योग विद्या के कुछ तत्वों की शिक्षा लेकर दयानन्द, बद्रीनारायण के मंदिर को चले गये.
जोशीमठ से स्वामी जी सीधे बदरीनाथ गये. वहां उन्होंने मंदिर के मुख्य पुजारी ‘रावल’ से भेंट की. दयानंद स्वरचित लिखित व कथित जीवन चरित्र में निम्न प्रकार से वर्णन है – मैं बदरीनाथ गया. विद्वान ‘रावलजी’ उस समय उस मंदिर के मुख्य महन्त थे और मैं उनके साथ कई दिन तक रहा. हम दोनों का परस्पर वेदों और दर्शनों पर बहुत वाद-विवाद रहा.
बद्रीनारायण मंदिर से स्वामी जी अलकनन्दा के स्रोत की ओर चले. यथा- एक दिन सूर्योदय के होते ही मैं अपनी यात्रा पर चल पड़ा और पर्वत की उपत्यका में होता हुआ अलकनन्दा नदी के तट पर जा पहुंचा. अन्तत: अपना मार्ग अन्वेषण करने के अर्थ मैंने नदी पार करने का दृढ़ निश्चय कर लिया. कुछ ही देर ऐसा अधिक शीत हुआ कि उसे सहन करना असंभव था. क्षुधा और पिपासा ने जब मुझे अत्यन्त बाधित किया तो मैंने हिम का टुकड़ा खाकर क्षुधा बुझाने का प्रयत्न किया, परन्तु उससे किंचिंत आराम व संतुष्टि प्रतीत न हुई. पुन: मैं नदी में उतरकर उसे पार करने लगा. कतिपय स्थानों पर नदी बहुत गम्भीर थी और कहीं पानी बहुत कम था. परन्तु एक हाथ या अध गज से कम गहरा कहीं न था. मेरे पांव शीत के कारण नितान्त सुन्न हो गये थे. यहां तक कि मैं अचेतन अवस्था में होकर हिम पर गिरने को था. तभी मुझे विदित हुआ कि यदि मैं यहां पर इसी प्रकार गिर गया तो पुन: यहां से उठना मेरे लिए अत्यन्त असंभव और कठिन होगा. फलतः मैं नदी से निकलकर दूसरी ओर जा पहुंचा. अपने सम्मुख दो पहाड़ी पुरुषों को आते हुए देखा जो मेरे समीप आए और मुझको प्रणाम करके उन्होंने अपने साथ घा जाने के लिए आमंत्रित किया – आओ हम तुमको वहां खाने को भी देवेंगे. परन्तु उनकी कोई बात हमें अच्छी न लगी और मैं वहीं पड़ा रहा. वहां जब मुझे आराम मिला तब मैं आगे को चलकर सायं लगभग 8 बजे बदरीनाथ जा पहुंचा.
(Dayanand Saraswati in Uttarakhand)
नदी पार करने के उपरान्त स्वामी जी उस मार्ग से आये जो पुलमाना गांव से तिब्बत की ओर जाता है, फिर वहां से स्वामी जी रात्रि के समय बदरीनाथ की ओर चले. बदरीनाथ पहुंचकर रावल को अपने संकट की कथा सुनाकर स्वामी जी भोजन के पश्चात सो गये और दूसरे दिन बदरीनाथ से प्रत्थान कर गये.
स्वामी दयानन्द को उत्तराखण्ड में निराशा ही हाथ लगी स्वामी दयानन्द सरस्वती जी उत्तराखंड के उन्नत शिखरों पर अनेक कष्ट उठाकर भी अपनी आत्म संतुष्टि के लिए ज्ञान के मार्ग तक न पहुंच सके. अर्थात ऐसा कोई महात्मा, योगी अथवा विद्वान पुरुष नहीं मिला जो उनकी आत्मसंतुष्टि के लिए मार्ग प्रदर्शित करता.
(Dayanand Saraswati in Uttarakhand)
–योगेन्द्र नारायण पाण्डेय
यह लेख पुरवासी के 2013 के अंक से साभार लिया गया है. पुरवासी पत्रिका में योगेन्द्र नारायण पाण्डेय का यह लेख ‘सत्य की तलाश में भटके स्वामी दयानन्द’ नाम से प्रकाशित हुआ है.
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बहुत खूब! ज्ञानवर्धक जानकारी!🙏