समाज

फिर आयेगा धुन्नी

मुंशी प्रेमचंद की क्लासिक कहानी ‘ईदगाह’ की शुरुआत, अगर मुझे ठीक से याद है, तो कुछ इस तरह से है- “रमज़ान के पूरे तीस रोज़ बाद ईद आयी…”. क़िस्सागोई वाले सीधे सपाट अंदाज़ में बयाँ इस कहानी का कथ्य आगे बताता है कि किस तरह ईद का आना कहानी के मुख्य पात्र हामिद के गाँव के सूरज में एक नयी रौशनी, हवा में एक मस्ती भरा अन्दाज़ और शरीर में एक नयी उमंग भर देता है . अरसा गुज़र गया प्रमचंद को फ़ना हुए, पता नहीं उनकी ईदगाह को, अलावा उन छात्रों के जिनके हिंदी पाठ्यक्रम में यह दी गयी है, कोई अब पढ़ता भी है या नहीं ? पर हाँ, प्रेमचंद ने सपाट और बेस्वाद से लगने वाले कस्बाई जीवन में ईद जैसे हलचल भरे त्यौहार के आने पर ‘वायरल’ हो जाने वाले जिस उत्साही मूड का जिक्र किया है उसकी बानगी आज भी जस की तस जिंदा है -कम से कम उस संस्थान में तो निश्चित ही, जहाँ में पिछले दो दशकों से कार्यरत हूँ.  

कल्पना कीजिये उत्तराखंड के किसी पहाड़ी शहर में एक अकेली सी, देवदार के सालों पुराने पेड़ों से ढकी पहाड़ी पर एकड़ों में फैला एक आवासीय स्कूल. सौ-डेढ़ सौ साल पुरानी इमारतें, गहरे भूरे रंग की अंतहीन परतों से दबी ढकी मोटी मोटी शहतीरें. चूं-चर्र की अवाज़ के साथ खुलने वाले लकड़ी के गोथिक स्टाइल वाले दरवाज़े और जर्मन आर्चेस. पुरानी, बदरंग हो चुकी अल्मारियों में बंद चमड़े की ज़िल्दों में बंधी कुछ सैकड़ों साल पुरानी सी क़िताबें. और उनके ऊपर इस संस्था के अतीत को फुस-फुसा कर बताने कोशिश करती, दीवार की सलीब पर निहायत ही बेचारगी से लटकी कुछ तस्वीरें और पोर्ट्रेट्स. साल के लगभग छह महीने कोहरे से ढकी रहने वाली इस फौसिलनुमा जगह का ‘ सरिएलिज्म ‘ यहीं ख़त्म नहीं होता.

अपने इतिहास के ग्लूकोस और वैचारिक जड़ता के बार-बार और लगातार दिए जा रहे स्टेरोइड्स के चलते परम स्थायित्व की गति को प्राप्त इस संस्थान में हर साल जाने और आने वाले छात्रों की शक्ल के अलावा कभी ज्यादा कुछ नहीं बदलता. उन पुरातात्विक शक्लोसूरत और सीरत वाले अध्यापकों का जिक्र भी यहाँ ज़रूरी है जो इस संस्थान के व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करते हैं . ग़नीमत है कि इनके किसी पुरखे, किसी आदिपुरुष ने दशकों पूर्व इस स्थान पर पड़ने वाली भयानक ठण्ड से घबडा कर यह क्रांतिकारी कल्पना की थी कि क्यों न इस स्कूल में अध्यनरत फाइनल इयर के छात्रों को जाड़ों की छुट्टीओं में किसी बड़े से मैदानी शहर में ले जाया जाये . इससे रिजल्ट तो बढ़िया आयेगा ही साथ ही यहाँ के स्थायी कारिंदों की, धीरे-धीरे ही सही पर निश्चित रूप से मोहनजोदड़ो की खुदाई में मिली किसी टैराकोटा सील या ईस्वी पूर्व के किसी धुन्दलाये शिलालेख में तब्दील होती जा रही मानसिकता को भी शायद ठहराव मिल सकेगा.

आयडिया निहायत दमदार था सो चल निकला . इतिहास के वाईजेस्ट फूल कहे जाने वाले बादशाह मोहम्मद तुगलक के निर्णय की तर्ज पर दिल्ली से दौलताबाद और फिर वापस दौलताबाद से दिल्ली का जो क्रम तब शुरू हुआ था उसे निर्बाध गति से चलते हुए अब सात दशक बीत चुके हैं .  पूरे सरकारी लावा-लश्कर, पत्नी-बच्चों, प्रागैतिहासिक संदूकों में बंद सामान और बैडहोल्डर समेत यहाँ काम करने वाले लोग ठन्डे पहाड़ों से उतर कर साइबेरिया के सारसों की तरह हर साल एक बड़े से मैदानी शहर में आ जाते हैं .  बसंत के आगमन के साथ ही, फरवरी के आख़िरी सप्ताह तक फिर से पहाड़ों की ओर वापसी की उड़ान शुरू हो जाती है .  यह प्रवास इस संस्थान के इतिहास में विंटर स्टडी कैम्प के नाम से दर्ज हो चुका है .

दौलताबाद से दिल्ली लौटने के बाद मोहम्मद तुगलक भले ही दोबारा इस अनुभव को दोहराने की जुर्रत न कर सका हो पर इस संस्थान की बात कुछ और ही है . काश अंग्रेजी में ‘फूल’ से पहले लगने वाले विशेषण की सुपरलेटिव डिग्री ‘वाईजेस्ट’ के बाद कोई और डिगरी, कोई और अल्ट्रा सुपरलेटिव डिगरी वाला शब्द भी उपलब्ध होता !  

खैर बात शुरू हुई थी प्रेमचंद की कहानी के शुरुवाती वाक्य ” रमज़ान के पूरे तीस रोज़ बाद” से. इस विद्यालय के इतिहास में दिसंबर के आखिरी सप्ताह से निर्बाध शुरू होने वाले स्टडी कैम्प के पूरे तीस रोज़ बाद अचानक अवतरित होता है एक धुन्नी . धुन्नी, यानि कि रजाई-गद्दे भरने की प्राचीनतम तकनीक का  अकेला प्रतिनिधि ! बाँस की लकड़ी से बने एक बन्दूक और एकतारे के बीच की शक्ल वाले आदिम यन्त्र को, जिसके दोनों सिरों के बीच ऊँट की आंत से बना एक तार ताना रह्ता है, कंधे पर रख  वह अचानक प्रकट होता है . सामने से कुछ उठी हुई एक चौखानी लुंगी और गाढ़े की कभी सफ़ेद रही सदरी पोशाक है उसकी . डमरू की शक्ल में तराशे गए लकड़ी के एक वजनदार टुकड़े से अपने बन्दूक नुमा यन्त्र पर लगे तार पर नपे-तुले प्रहार करते हुए वह धुन्न-धुन्न की अवाज़ निकालता है, जैसे सार्थक कर रहा हो अपने पारंपरिक नाम को . मरे हुए ऊँट की आंत से बने तार की झंकार नई-पुरानी साफ़ या गंदी कैसी भी रूई को तार-तार कर बिखरा देती है,  उन मध्यम वर्गीय वेतन भोगियों के सपनों की तरह जो ता-उम्र फिक्स-डिपोजिट, इंश्योरंस, यूनिट-प्लान, पी.ऍफ़. और ग्रेचुटी के इर्द-गिर्द घुमते हुए रिटायर्मेंट के बाद एक अदद रहने लायक मकान की तलाश में ही फुस्स हो जाते हैं .   

कुछ भी हो, कैम्प में छब्बीस जनवरी की खुशी के रस्मी इज़हार के बाद धुन्नी का आना जाड़ों की ठिठुराने वाली वर्षा में नहा कर साफ़-सुथरे हुए आम के पेड़ों की फुनगी में अचानक आ जाने वाले सुनहरे बौर के सुखद एहसास से कम नहीं होता . और फिर हो भी क्यों नहीं, धुन्नी का आना संकेत होता है इस बात का कि कैम्प अब समाप्त होने वाला है, और महिने की गिनी-गिनायी तनख्वा के अलावा मिलने वाली रेम्युनरेशन की मोटी रकम बस अब हाथों से कुछ ही दूर है .

शब्द वास्तव में निरर्थक हो जाते हैं उस परम आत्मिक आनंद का वर्णन करने में जो किसी अध्यापक को, जिसके जीवन में तनख्वा के अलावा ‘कुछ और’ अचानक ही मिल जाने के अवसर शायद ही कभी आते हों, रेम्युनरेशन की मोटी रकम को हाथों में महसूस कर जेब में सहेज़ कर रखने में मिलता है . सच भी है ‘मास्टरी’ का पेशा तीस-चालीस बच्चों को सर झुका कर चुपचाप आपकी बकवास सुनने के लिए मज़बूर होने का सुख भले ही आपको देता हो पर तनख्वा के अलावा कुछ और ‘ऊपर से कमा लेने’ का अवसर नहीं देता . हाँ, वो जो अत्यंत योग्य हैं, जिन्होंने दुनिया देखी है, उनकी बात और है .          

बावज़ूद एक अच्छी-खासी रकम मिलने की संभावना से जन्मे वर्णनातीत उत्साह और मैदानी प्रवास ख़त्म कर पहाड़ों की ओर वापस लौटने की खुशी के, कैम्प में आये हर ‘मास्टर’ के अन्दर बैठा गुरु-गंभीर गणितज्ञ इन दिनों अचानक ही सक्रिय हो जाता है . लगभग दो माह के लम्बे समय तक चलने वाले इस कैम्प में घर-गृहस्थी के सामान की ढुलाई का इंतज़ाम संस्था द्वारा खुद अपने खर्चे पर किया जाता है . ऐसी  सुविधा. और फिर धुन्नी का आना. मैदानों में आये बसंत, आम के बौर और साथ ही रेम्युनरेशन से आयी गर्मी के बावज़ूद पहाड़ों में मार्च-अप्रैल तक खीचने वाली ठण्ड का एहसास सीधे उतर कर हर ‘मास्टर’ के अन्दर छुपे गणितज्ञं को कुलबुलाने लगता है .

यदि वहां जा कर, उस पहाड़ पर रजाई-गद्दा बनवाया जायेगा तो नंबर एक- कपडा और रूई काफी महंगी मिलेगी, जब कि यहाँ पटरी पर लगने वाले बुध-बाज़ार की सुविधा कैम्प के पास ही उपलब्ध है. नंबर दो- इस  खरीदारी के लिए पहाड़ की चोटी से शहर तक आने जाने का खर्च लगभग पाँच सौ रूपया . नंबर तीन- अगर स्कूल के काम से नीचे शहर गयी सरकारी गाड़ी किसी कारण से नहीं मिली तो बारह-चौदह किलो के गद्दे और कम से कम छः किलो की रजाई को ऊपर पहाड़ की चोटी तक लाने का खर्चा, यानि कि एक और पीला गाँधी (500 रुपये) . इस तरह से कुल मिला कर हज़ार पांच सौ रुपये का फ़ालतू खर्च. और फिर वहां पहाड़ पर कौन सा धुन्नी बैठा है, वहां तो मशीन से धुनाई होगी. यानी कि हाथ से धुन्नी द्वारा धुनी गयी रूई के गद्दे-रजाई पर सोने के पारंपरिक और सांस्कृतिक सुख के ज़बरन बलिदान का अफ़सोस अलग से. यहाँ धुन्नी है.. कैम्प की विशाल छत पर अपना यन्त्र टाँके, धुन्न-धुन्न करता हुआ. उसे, बाकायदा उसके सहायक कारिंदों के साथ छत से उतार कर स्कूल की मैस में ब्रेकफ़ास्ट से लेकर डिनर तक जिमाने का पूरा इंतज़ाम चतुर्थ श्रेणी के इफरात से उपलब्ध कर्मचारियो द्वारा किया जा रहा है. इस आवभगत से अभीभूत वह चाहने के बावज़ूद भी ज्यादा कीमत नहीं वसूल सकता है. रजाई-गद्दे को बाकायदा तहा  कर बड़ी शालीनता से उसके द्वारा दरवाज़े तक पहुंचाने का सुख अलग से. और वह भी इन मीठे शब्दों के साथ – साहब लीजिये. अध्यापक प्रजाति के लिए तो वैसे भी ‘साहब’ जैसा अभिजात्य संबोधन सुनना एक अनुभव होता है. और फिर टाट के कपड़ों में बंधे विशालकाय बिस्तरबन्दों और टिन के कमरा नुमा संदूकों को वापस घर तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी भी तो स्कूल की ही है. 

ज़रुरत के गणित और भविष्य की प्लानिंग के आधार पर रेम्युनरेशन का हर हकदार फटा-फट गद्दे-रजाइयों की संख्या तय करने लगता है . और फिर धुन्नी के पास उसकी उम्मीद के मुताबिक आडर्स का ढेर लग जाता है . उस आयताकार इमारत की विशाल छत, जहाँ कैम्प लगा करता है, गूंजने लगती है धुन्नी के गांडीव की सतत टंकार से … धुन्न-धुन्न… धुन्न-धुन्न . इस इमारत के सबसे ऊपर के फ्लोर के कारीडोर में लगने वाली क्लासेज़ को पढ़ा रहे अध्यपक बन्धु बीच-बीच में एक नज़र उठा कर उसे देख लेने से ख़ुद को रोक नहीं पाते .

अपने बेफिक्र अंदाज में धुन्नी. फोटो: राजशेखर पन्त

एक आमंत्रण है इस धुन्नी की धुन्न-धुन्न में, जो न जाने कितने दशकों से छब्बीस जनवरी के आस-पास हर साल इस स्टडी-कैम्प में आ जाता है . बसंत में बहने वाली पुरवाई में डूबती-उतराती धुन्न-धुन्न की आवाज़ मुझे अक्सर वर्षों से ‘मास्टरी’ के पेशे से जुड़े उस मानव-समूह की मानसिकता, उसकी शख्सियत से ख़ुद को जोड़ने की कोशिश करती हुई सी प्रतीत होती है, जो वर्षों से यहाँ लगातार आता रहा है . इस धुन्न-धुन्न में समाई हुई है वह एकरसता, वह मोनोट्नी, जो अपोइन्टमेंट वाले दिन से ले कर रिटायर्मेंट की शाम तक हड़प्पा की खुदाई में निकले अवशेष, न्यूटन के नियम या फिर गरम और ठन्डे गंधक के तेज़ाब में तांबे की छीलन डालने पर हुए अलग-अलग रिएक्शन को सपाट से मशीनी अंदाज़ पढ़ाने, और फिर उसे ही परीक्षा कि उत्तर-पुस्तिकाओं में बार-बार पढने वाले ‘मास्टर’ के बेस्वाद जीवन हिस्सा बन जाती हैं . 

यह धुन्न-धुन्न टंकार भी है कैम्प के कुरुक्षेत्र में कभी-कभार गूंजने वाले उस गांडीव की जो हर ‘मास्टर’ को याद दिलाती है कि जीवन सिर्फ किसी अटके हुए रिकार्ड में बार-बार बजने वाली किसी पुराने गाने की एक पंक्ति भर नहीं, कुछ और भी है . यह एक पुरानी इमारत, बदरंग होती दीवारों, अपने अन्दर गुज़रे ज़माने की महक समेटे, पीले पड़ चुके पन्नों वाली एक क़िताब, चारों ओर फैले दमघोंटू कुहासे, और देवदार के पेड़ों से टपकने वाली बूंदों के अलावा एक अदद खूबसूरत एहसास भी है- भरी जेब के साथ किसी मॉल में होने का एहसास; पत्नी के साथ किसी मल्टीप्लेक्स में सिनेमा देखने या केंडिल लाइट डिनर पर जाने का एहसास; सरकारी खर्चे पर ए.सी. फर्स्ट क्लास में सफ़र करने का एहसास; किराये की ही सही पर किसी लम्बी सीडान गाड़ी में घूमने का एहसास; और शायद और भी बहुत कुछ .

नैनीताल का ईसाई कब्रिस्तान: वक्त के पथराये गाल और आँसू की बूंदें

‘मास्टरी’ के पेशे में, जिसे कोई भी अक्सर कुछ और न करने की स्थिति में ही अपनाता है, आमतौर पर जन्मे यह काम्प्लेक्सेज़ -कि मैं बहुत लायक हूँ; कि मेरे भाग्य से लेकर मुझसे जुड़े हर शख्स तक ने मेरे साथ छल किया है; कि मुझे दुनियां समझ ही नहीं पाई है; कि मैं यहाँ फँस गया वरना आज पता नहीं कहाँ पहुंचा होता; कि चोरों से भरी इस दुनिया में सतयुग की विरासत को मुझ अकेले ने ही कन्धों पर उठा रखा है वगैरा-वगैरा… -भी धुन्नी की धुन्न-धुन्न में धुंधलाने लगते हैं. चौखानी लुंगी और मैली सी सदरी पहिने वह जब ऊँट की निर्जीव आंत को झनझनाता है तो जैसे सन्देश दे रहा होता है वक्त के लम्बे गलियारे में युगों से ठहरे हुए ‘मास्टर’ को -ये जिन्दगी तो एक उत्सव है यार, फिर क्यों अच्छी-भली शक्ल पर मुखौटा लगा कर जी रहा है? जिन्दगी की रूई को कितना गांठदार, कितना सख्त और बदरंग कर दिया है तूने. 

अरे यार, ख़ुद के अन्दर ज़ज्बा हो ना, तो मरे ऊँट की सूखी आंत जैसी बेकार चीज़ से भी सख्त से सख्त गांठ और वर्षों से जमा धूल और गन्दगी को इधर-उधर छिटक, खुशनुमा पलों को रेशा-रेशा कर संभाला और संवारा जा सकता है .

एक दार्शनिक है धुन्नी. ‘मास्टरी’ जैसी बेस्वाद समझी जाने वाली ज़िंदगी के हशिये पर एक दमदार कमेन्ट, एक टिप्पणी करता हुआ. पहाड़ की चोटी पर फैल जाने भर से ख़ुद को ऊंचा, बहुत ऊंचा समझ लेने के भ्रम को तोड़ता हुआ. 

यह कैम्प थोड़े दिनों बाद सिमट जायेगा और जिन्दगी फिर बन जायेगी उस ‘ सरिएलिज्म ‘, उस मुगालते का हिस्सा जिसे ‘मास्टर’ कहलाने वाला प्राणी अपने चारों ओर बुनता रहता है . पर साल ख़त्म होते-होते एक बार फिर कैम्प लगने की तैयारियां शुरु हो जायेंगी. धुन्न-धुन्न की अवाज़ एक बार फिर गूंजेगी.

धुन्नी फिर आयेगा…

आना ही होगा उसे .

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कला-फिल्म-यात्रा-भोजन-बागवानी-साहित्य जैसे विविध विषयों पर विविध माध्यमों में काम करने वाले राजशेखर पन्त नैनीताल के बिड़ला विद्यामंदिर में अंग्रेजी पढ़ाते रहे. फिलहाल रिटायरमेंट के बाद भीमताल स्थित अपने पैतृक आवास में रह रहे हैं. पछले करीब चार दशकों में उनका काम देश-विदेश की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं-अखबारों में छपता रहा है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.

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