तुम प्रेम में इतने डरे डरे क्यों हो ?
… और इसके उत्तर में काफ़ी देर शून्य में ताकता रहा. फिर जैसे उसने बहुत गहरे कुँए से अपनी आवाज़ को खींचा और बोला-
मैं पश्चाताप का आदिपुरुष हूँ. कहीं भी कुछ ग़लत होता है मेरी आत्मा उसका प्रायश्चित करने लगती है. बरसों पहले जब मैं बहुत छोटा था. अबोध. तब पहली बार मेरी आत्मा एक निरर्थक वाक़ये के बाद ईंधन की तरह जलने लगी. मैं अपने ननिहाल में आया हुआ था. वो घर पुराना था. उस घर की मरम्मत शायद कभी नहीं हुई थी. उसके कमरे, दीवारें, दालान सब कुछ धूल मिट्टी में सने रहते. कच्चे आँगन में असंख्य दरारें थी जिनमे चींटियों की प्राचीन बस्तियां थी. दीवार के सहारे एक मिट्टी की परात खड़ी थी.बरसों से. उस परात का कोई इस्तेमाल नहीं था. बस, वो घर के भूगोल का हिस्सा भर ही थी. मैं कुछ खेलते खेलते उस परात के पास पहुंचा और अनायास ही पाँव की ठोकर से वो परात अपने बारीक संतुलन से हिल गयी. गिर गयी. और टुकड़े टुकड़े हो गयी. मैं दहशत से भर उठा. जैसे मैंने कोई हादसा अंजाम दे दिया था. मैंने जैसे घर का भूगोल ही बिगाड़ दिया था. मुझे शायद हल्की डांट पड़ी थी पर आज मैं सोचता हूँ वो नकली ही रही होगी. उस घर के लिए वो परात जैसे थी ही नहीं, उसका कोई क्या शोक मनाता. पर मैं उस मिटटी की परात को लेकर परेशान था. जब भी आने वाले दिनों में मैं उस जगह टूटे हुए टुकड़ों को देखता मैं डरने लगता, मैं अपने आप को घर का नक्शा, हुलिया बिगाड़ देने का दोषी ठहरता. आखिर घर वालों को समझ में आया और उन्होंने उन टूटे हुए टुकड़ों को वहां से बाहर फेंक दिया. परात के भौतिक अवशेषों के वहां से हटने के बाद भी मेरा मन वहां उन्हें ढूंढता रहा…
मैं पछतावे से भरा हूँ. मेरी आत्मा किसी अनाम पश्चाताप से धूंआती- सुलगती रहती है. आम दिनों में भी मैं इसकी आंच महसूस करता हूँ पर कुछ ग़लत का ज़िम्मेदार होने पर तो तो ये कपूर की तरह जलने लगती है. अब मुझे ये कई बार अच्छा भी लगता है. मैं उस दहन की गंध को सुवास की तरह लेता हूँ.
‘एक और दिन की बात है. मेरे कोई रिश्तेदार अपने बच्चे को डांट रहे थे. वो बच्चा मेरा भी दोस्त था. उसने अपने ही घर में कोई चोरी की थी. कुछ पैसों की. डांटने के दौरान में भी वहां खड़ा था…’ बोलते बोलते उसकी आवाज़ में खुश्की आ गयी थी. वो आस पास पानी ढूँढने लगा पर कहीं ग्लास न पाकर उसने उसी आवाज़ में बोलना जारी रखा-
मैं भी वहां खड़ा था और डांट का असर अपने ऊपर महसूस कर रहा था. रंगे हाथों जैसे मैं ही पकड़ा गया था. मैंने उसी समय कसम खाई कि मैं कभी चोरी नहीं करूंगा यद्यपि मैंने कभी चोरी की नहीं थी. डांट में आवाज़ की सख्ती जब एक सीमा से बढ़ गयी तो मैं बोल उठा कि ये काम मैंने नहीं किया था.
उसकी प्रेमिका उसे देखे जा रही थी. उसने पूछा-
‘तुम सारे गुनाह क्यों अपने ऊपर लेते हो’ ?
‘मैं गुनाहगार नहीं हूँ, पर गुनाहों का दंश मुझे फिर भी बींधता है.’
‘तो क्या ऐसे में तुम मुझसे प्रेम कर पाओगे?
‘मुझे पता नहीं पर मैं तुम्हे प्रेम दूँ तो क्या तुम मुझे अपनी करुणा दोगी? मुझे करुणा की ज़रुरत है जिससे मैं अपनी दग्ध आत्मा को शीतल कर सकूं. एक ये गुनाह मुझे करने की अनुमति दो.
उदयपुर में रहने वाले संजय व्यास आकाशवाणी में कार्यरत हैं. अपने संवेदनशील गद्य और अनूठी विषयवस्तु के लिए जाने जाते हैं.
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