Featured

भटकने का अपना सुख है

माचिस की डिबिया
-संजय व्यास

तीली

माचिस की हरेक तीली की नोक पर पिछले दस हज़ार सालों का इतिहास दर्ज़ है. उस नोक की एक रगड़ से उत्पन्न आग इंसान की पैदा की गयी पहली आग की स्मृति है.और ये सिर्फ उस ताप की स्मृति ही नहीं है उस ज़ायके की स्मृति भी है जो पके हुए खाने के जीभ पर आने से पहले खुशबू के रूप में पहली बार फैला होगा.माचिस की तीली अपनी डिबिया में मौन रहती है. एक रगड़ भर का फर्क है इसके मूक से वाचाल होने में.

डिबिया

माचिस की डिबिया एक तीली की तरह पुरातन धुंए में लिपटे खाना पका रहे सबसे पहले चटोरे आदमी के दर्शन भले नहीं कराती पर कुछ साल पहले ही पीछे छूटे बचपन को ज़रूर हमारे सामने प्रकट करती है. कम से कम मेरे बचपन को तो ज़रूर. शौक था उन दिनों खाली माचिस की डिब्बी के ऊपरी चौकोर भाग को इकट्ठे करने का जिस पर ब्रांड – नाम के साथ चित्र बना होता है. इसे छाप कहते थे. उस वक्त बन्दूक छाप और मुर्गा छाप माचिसें आम मिला करती थीं. इन डिबियाओं की छापें जमा करना प्रिय शगल हुआ करता था जिन्हें इकट्ठे करने के लिए खुर्दबीनी नज़र के साथ काफी आवारा भी होना पड़ता था. इन माचिसी कला नमूनों से एक खेल भी खेला जाता था जिसमें लड़के अपनी छापों को एक समतल धरातल पर इकठ्ठा कर एक पत्थर से उन्हें उनके घेरे से बाहर निकालने का प्रयास करते थे. जिस खिलाड़ी के वार से जितनी छापें बाहर वो उतने का मालिक. हां इन छापों के अंक तय थे. बन्दूक वाली का एक तो मुर्गे के पांच. ये अंक ही हार जीत का फैसला करते थे.

सर पर धूल

असल बात तो ये थी कि ये शौक हमें भटकने का मौका देता था. क्योंकि बेहतरीन नमूने बीनने के लिए अपनी और महल्ले की चौहद्दी को लांघना पड़ता था. ये काम बेशक घर वालों से छुपकर ही होता था. माचिस की छापों का शौक घरवाले निहायत रद्दी मानते थे, क्योंकि घर के बाहर माचिस का इस्तेमाल सिगरेट जलाने में होता था और घरवाले माचिस और सिगरेट की अनूठी दोस्ती से आशंकित रहते थे. इनकी आपस में संगति इतनी पक्की मानते थे कि जहां डिबिया बीनने का शौक हुआ नहीं, वहीं धुंए उड़ाने में देर नहीं लगने वाली. कुछ इस तरह की सोच थी उनकी. पर भटकने का अपना सुख है. एक नियत भूगोल को लांघने का सुख और लगभग वर्जित क्षेत्र में विचरने जैसा भी.

घर से रेलवे स्टेशन दूर था और माचिस के नए नए नमूने वहीं मिल सकते थे, यानी उसके आसपास की दुकानों में, क्योंकि कई तरह के लोग वहाँ आते थे.ऐसी ही किसी शाम मैं माचिस की खाली डिबियाएं बीनने-ढूँढने के चक्कर में दूर निकल गया और रास्ता भूलता रहा. जितना चलता उतना ही भूलता.जब तक डर शुरू होता तब तक ये भी पता चला कि भटकते भटकते गुम जाने का एक अलग ही नशा होता है. एक अन्जान भूगोल में आना, उस ख़ास समय में अपनी नागरिकता बदल देने जैसा होता है. आपका हर जुड़ाव छिन्न भिन्न हो जाता है. एक अनाम खोज का थ्रिल महसूस होता है.

मुझे अनंत तक के लिए भटक जाने का रूपक बहुत आकर्षित करता है. इसे मैंने महसूस किया काफ़्का की एक कहानी में जिसमें हंटर ग्रैकस को ले जाती मृत्यु – नौका अपना रास्ता भटक जाती है और वो सदियों तक जीवित और मृत के बीच की स्थिति में, इस किनारे से उस किनारे, पार्थिव पानियों में यात्रा करता रहता है. मेरा मानना है भटकन में कितनी ही संभावनाएं और भी खोजी जा सकती है. भटकन में सूखे होठों की प्यास है, भटकन में इन होठों पर फिरती लालसा की जीभ है, अन्जान पानियों की यात्राएं हैं, अज्ञात कंदराओं में गुमशुदगी है और भटकन में लापता हो जाना है खुद में… और खुद का.

 

संजय व्यास
उदयपुर में रहने वाले संजय व्यास आकाशवाणी में कार्यरत हैं. अपने संवेदनशील गद्य और अनूठी विषयवस्तु के लिए जाने जाते हैं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago