आज से तीस साल पहले तक जब डिजिटल तकनीक का कोई अता-पता नहीं था हर शुक्रवार को फ़िल्म रिलीज़ होना एक बड़ी सांस्कृतिक कार्रवाई जैसा था. कई बार फ़िल्म के प्रचार के लिए साइकिल रिक्शे पर बड़े होर्डिंग लगाकर एक आदमी ख़राब क्वालिटी का माईक हाथ में लिए खूब जोर शोर से फ़िल्म का प्रचार करते हुए दिख जाता था. ऐसा प्रचार अमूमन बहुत संयोग से ही दिखाई पड़ता क्योंकि सिनेमा हाल वाले बजट कम होने के कारण आमतौर पर एक ही रिक्शे के प्रचार का खर्च वहन कर पाते. सिनेमा के बारे में कोई भी नई जानकारी मिलना उस समय के हम किशोरों के लिए बहुत उत्तेजना की बात थी. एक तो सिनेमा पत्रिकाएँ बहुत कम थीं दूसरे तब के अखबारों में भी आज की तरह चमकीले सिनेमा परिशिष्ट भी नहीं छपते थे इसलिए सिनेमा हाल में जाकर कांच के फ्रेम में सजे पोस्टर देखना फ़िल्म संबंधी सूचना से राजदार होने का एक और तरीका था. उस समय तक यूनिवर्सिटी में चूंकि फ़िल्म अध्ययन अभी कोर्स का हिस्सा नहीं बने थे इसलिए पढ़े–लिखे घरों में सिनेमा के बारे में कोई जानकारी पाना अच्छी बात न समझी जाती थी.
ऐसे सन्दर्भ में किसी फ़िल्म का पहला शो देख पाना उस समय एक बहुत बड़ी बात थी. ये काम आम तौर पर मोहल्ले के वे लड़के अंजाम देते जो पढ़ाई–लिखी से कोसों दूर थे, जिन्हें भीड़ में घुसकर लड़ाई–झगड़ा करने से परहेज नहीं था और उनकी गधा पचीसी में यही एकमात्र उपलब्धि थी जिसमें उनका कोई प्रतिद्वंदी न था. तब हर शुक्रवार क़त्ल की रात जैसा होता. अलग–अलग मोहल्लों के बांके पहले शो के टिकट हासिल करने के लिए समय से एक घंटा पहले ही सिनेमा हाल में पहुँच जाते और तयशुदा लाइन में लग जाते.
टिकट खिड़की खुलते ही यह लाइन बेहद अराजक स्थल में परिवर्तित हो जाती. इस स्थल की सबसे रणनीतिक जगह होती टिकट की छोटी सी खिड़की जहां शहर के तमाम बांकों के दसियों हाथ मुट्ठियों में मुड़े–तुड़े रुपये पकड़े पहले दिन के पहले शो का टिकट हासिल करने में जुटे होते. जो वीर इन खिड़कियों तक नहीं पहुँच पाते वे बिना किसी की परवाह किये बाकी लोगों के कंधों पर चढ़ते हुए खिड़की तक पहुँच जाते. चूंकि ज्यादातर सिनेमा सिंगल स्क्रीन थे इसलिए हर सिनेमा हाल में ठीक–ठाक संख्या में सीटें भी थीं. इस वजह से भी सभी शौकीनों को पहले दिन के पहले शो की सीट मिल ही जाती थी. पहले दिन का पहला शो देखकर आने वाले का स्वागत मित्र मंडली में इस तरह होता मानो वह एवरेस्ट पर फ़तेह करके लौटा हो. फिर ये विजयी दर्शक अपनी–अपनी तरह से फ़िल्म का अच्छा या बुरा प्रचार करते.
आज इंटरनेट और टोरेन्ट के ज़माने में पहले दिन पहले शो का कोई मतलब नहीं लेकिन तीन दशक पहले किसी फ़िल्म का सबसे पहले राजदार होना बहुत रसूख की बात थी. जिस पर हमारी पीढ़ी के बहुत सारे शौकीनों ने कई शुक्रवार दीवानगी में बिताये.
संजय जोशी पिछले तकरीबन दो दशकों से बेहतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्नरत हैं. उनकी संस्था ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ पारम्परिक सिनेमाई कुलीनता के विरोध में उठने वाली एक अनूठी आवाज़ है जिसने फिल्म समारोहों को महानगरों की चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे कस्बों तक पहुंचा दिया है. इसके अलावा संजय साहित्यिक प्रकाशन नवारुण के भी कर्ताधर्ता हैं.
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