हमारे फैजाबाद में घंटाघर के नीचे एक बदसूरत सी पान की दुकान है, लेकिन चलती खूब है. वजह यह कि उसके जैसा कत्था पूरे शहर में कोई और नहीं बनाता. एक गिलौरी मुंह में दबाइए और चलते-चलते मकबरे तक पहुंच जाइए, क्या मजाल कि खुशबू में कहीं से कोई कमी आए. लेकिन सिर्फ एक पान वाले का जिक्र करना उन बाकी के हुनरमंदों की शान में गुस्ताखी होगी, जिन्होंने अपना पूरा जीवन ही कत्थाकारी में होम कर दिया है.
अब जैसे हनुमानगढ़ी वाले अशोक हैं या नाका, श्रृंगारहाट, टकसाल या टेढ़ी बाजार चौराहे वाले चचा, जिन्होंने चलाई तो पान की दुकान, लेकिन उनका लगाया कत्था विधानसभा और मौका लग जाए तो संसद तक को लाल किए रहता है. हमारे यहां के जो सांसद हैं, बगैर गिलौरी दाबे उनसे न तो सांस ली जाती है और न ही सोचा जाता है.
पुराने जमाने में दिल्ली में कत्थई रंग का, पत्थर के टुकड़ों जैसा बड़ा ही बदसूरत कत्था यूज होता था. असल में दिल्ली वालों को तब न पान का शऊर रहा, न तंबाकू का, न ही पानदान का. पान एक जिम्मेदारी है, जिसे उठाने से लेकर मुंह में रखने तक का सलीका और उगलने की नफासत अवध के इतिहास से ही सीखी जा सकती है.
दिल्ली वालों को जर्दा बनाने की अक्ल जब तक आई, तब तक हमारे अवध में केवड़े से महकता केसरिया कत्था और गमकता किवाम घरों में तैयार होने लगा था. अभी तो मशीनों से जो वाहियात कत्था बन रहा है, उसे बनाने वाले न सिर्फ पान की हमारी प्राचीन रवायत के प्रति पूरी तरह से गैरजिम्मेदार हैं, बल्कि चिंदीचोरी के चलते उसमें बदमजा मिलावट भी करते हैं. पर बात पहले जिम्मेदारी की हो जाए.
अवध के नवाब जब किसी को किसी मुश्किल मोर्चे पर भेजना चाहते थे तो दरबार में गिलौरियों से भरी थाली रख दी जाती. जो भी बीड़ा उठाता, मोर्चे की जिम्मेदारी उसी पर होती थी. यहीं से उक्ति बनी- किसी काम का बीड़ा उठाना.
इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली वालों से गिलौरियां भले ही ऐसी-वैसी बनीं, लेकिन पानदान उन्होंने ही बनाया. यहां चौकोर, पंचकोण और षटकोणीय पानदान बना करते थे. दिल्ली से बहुएं अवध में वही पानदान लेकर आईं. बहरहाल, इनपर कलाकारी अवध में शुरू हुई और एक वक्त ऐसा आया कि पानदान से लोगों की औकात पहचानी जाने लगी.
डोली में बहू से पहले पानदान बैठता था. बाज दफे यह इतना बड़ा होता था कि बहू कैसे-कैसे करके डोली में फिट हो पाती थी. इसे हुस्नदान भी कहते थे और इसमें हर कीमती चीज रखकर उसे गिलौरियों से ढंक दिया जाता था. हमारे यहां पान सिर्फ गौरी का आसन ही नहीं है. यह हुस्न, इश्क, अदब और बड़ी जिम्मेदारी उठाने का दूसरा नाम है. शादियों में समधन आज भी यों ही नहीं समधी के सामने पान का बीड़ा पेश करती हैं.
दिल्ली में रहने वाले राहुल पाण्डेय का विट और सहज हास्यबोध से भरा विचारोत्तेजक लेखन सोशल मीडिया पर हलचल पैदा करता रहा है. नवभारत टाइम्स के लिए कार्य करते हैं. राहुल काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.
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