Featured

बचपन के बहाने

हमारे कनिष्ठ पुत्र चिरंजीव नचिकेता, ढाई बरस के हैं. वे रोज रात को सोने से पहले जिद करते हैं. उनकी बालहठ रहती है, यूट्यूब पर फिल्मी गाने देखने की. घर पर टेलीविजन अथवा एलसीडी स्क्रीन जैसे साधन नहीं जुटाए गए हैं. श्रीमती जी का आग्रह रहता है कि, बच्चों को इस उम्र में खेल खेलने चाहिए. विशेषकर धमाचौकड़ी वाले खेल. स्क्रीन के आगे घंटों बैठे रहने को वे बच्चों के विकास में बाधक मानती हैं. कुल मिलाकर, इस घर में ‘दृश्य- मनोरंजन’ के साधनों की सख्त मुमानियत है.

खैर वे सोने से पहले, गीत देखने को नियमित रूप से मचलते हैं. चीखते-चिल्लाते हैं, पैर पटकते हैं. वे ‘भूत गाना’ कहकर जिद करते हैं. पेरेंट्स बच्चों की ‘कूट भाषा’ को भली-भाँति समझते हैं.

बच्चे जब सीखने की प्रक्रिया में होते हैं, तब उनकी शब्द-संपदा अत्यंत सीमित रहती है. इसके बावजूद, वे वांछित संप्रेषण करने में समर्थ हुआ करते हैं. बहरहाल ‘भूत गाना’ से उनका आशय, मुखौटे वाले गाने से हुआ करता है. फिल्म ‘ज्वेल थीफ'(1967) के गीत, ‘होठों पे ऐसी बात मैं दबा के चली आई…’ से.

गोल्डी (विजय आनंद) निर्देशित ‘ज्वेल थीफ’ के अधिकांश दृश्य सिक्किम में फिल्माए गए. सेल्यूलॉइड स्क्रीन पर पूर्वोत्तर के रमणीक दृश्य मन को हर लेते हैं. फिल्म में, कई-कई बार वहाँ की खूबसूरत दृश्यावली दिखाई पड़ती है. गंगटोक के प्राचीन महल-मंदिर-मठ सपनों की दुनिया का एहसास करा जाते हैं. फिल्म निर्माण के दौरान, सिक्किम एक रियासत हुआ करती थी. परवर्ती समय में, उसका विलय भारत संघ में हुआ.

खैर ‘होठों पे ऐसी बात… गीत का फिल्मांकन, गंगटोक के शाही महल में किया गया. ‘सिक्किम’ का शाब्दिक अर्थ, लिंबू भाषा में ‘नया महल’ बताया जाता है. उसी महल में, राजा सिंहासन पर बैठे हुए हैं. सिर पर मुकुट धारण किया हुआ है और मुकुट पर हीरे-जवाहरात.

यह गीत नृत्य प्रधान हैं. शालू (वैजयंती माला) की क्षिप्रता व लास्य देखते ही बनता है. समकक्ष नायक अमर (देव साहब) भी दृश्य में है. वे वादक की भूमिका में हैं, ढोल-मृदंग जैसे वाद्य को पूरी तन्मयता से बजाते चले जाते हैं.

पीछे छद्म-वेश में रेशमी रुमाल से मुँह ढांपे दादामुनि भी दिखाई पड़ते हैं. दरअसल यह एक गिरोह है, और वे इस दल के ‘हैंडलर’ बने हैं. एक दृश्य में दरवाजे की ओट में, नजीर हुसैन साहब भी दिखाई देते हैं. वे चौकीदार वाला लॉन्गकोट पहने, थोड़े से समय के लिए दृश्य में आते हैं. वे पुलिस कमिश्नर हैं, और छद्म-वेश में इस दल पर निगाह रखे दिखाई पड़ते हैं.

जाहिर सी बात है कि, बच्चों को गीत के बोल अधिक आकर्षित नहीं कर पाते. इस अवस्था में बोल, उनकी समझ से परे होते हैं. तो फिर सवाल उठना लाजिमी है कि, आखिर बच्चे जिद क्यों करते हैं. सीधा सा जवाब है, उन्हें आकर्षित किया करता है; संगीत और गीत की रवानगी. इससे अधिक उन्हें आकर्षित करता है, कलरफुल वेश-विन्यास और दृश्य की गतिशीलता. वैजयंती माला, कई बार मुखड़े के अंतरे में, ‘ओ शालू…’ का लंबा आलाप लेती है. एक बार देव साहब भी यही आलाप लेते हैं. लंबा आलाप लेने में, प्रत्येक अवसर पर, नचिकेता नायक-नायिका का साथ देते हुए पाए जाते हैं. लोक- संस्कृति के विविध रंग, इस गीत में दर्शाए गए हैं. कम-से-कम दो बार मुखौटे पहने कलाकार, दौड़ लगाते हुए मंच पर आते हैं. यह दृश्य आते ही, चिरंजीव डर जाते हैं. एकदम भयभीत होकर रह जाते हैं. वैसे इस गीत को वे इतनी बार देख चुके हैं, कि उनका अनुमान हमेशा सटीक बैठता है. मुखौटा पहने कलाकारों की एंट्री से ऐन पहले वे पेरेंट्स की गोद में छलाँग लगा जाते हैं. एक तरह से सुरक्षित आश्रय खोज लेते हैं. उनकी छलाँग, अनुक्रिया (रिफ्लैक्स एक्शन) के रूप में होती है. इन खास दृश्यों को वे गोद में दुबककर देखते हैं. बालपन में यही तो रईसी रहती है- डरना भी है और फिर भी वही देखना है. देखे बिना, मन भी तो नहीं मानता.

इस गीत के पूरा होते ही, झट से उनकी दूसरी फरमाइश आ जाती है- ‘दिल बेचाला…’ जिसका आशय, ‘ज्वेल थीफ’ के ही गीत, ‘ये दिल ना होता बेचारा… से हुआ करता है. देव साहब, मुँह में सुलगती सिगरेट लगाए, सर्राफ के शोरूम से बाहर आते हुए दिखाई पड़ते हैं. तभी पार्श्व से एसडी बर्मन साहब की धुन सुनाई पड़ती है, वही ठेठ रवानगी वाली धुन. तभी दृश्य बदलता है. अगले दृश्य में, देव साहब ‘फिशिंग रॉड’ में मछली लटकाए, सड़क पर तेज चाल में चलते हुए दिखाई देते हैं. वे यही गीत गुनगुनाते हैं. पीछे खुली गाड़ी है, जिसमें तनुजा और उनकी सखियाँ सवार हैं. पठारी भू-भाग का दृश्यांकन है, जिसके पीछे सह्याद्री पर्वतमाला दिखाई पड़ती है.

खुली गाड़ी, मोड़दार रास्ता तय करते हुए चलती है, तो देव साहब कच्चे ढलान से सरपट उतरते हैं. फलस्वरूप वे थोड़े ही समय में सड़क पर पहुँच जाते हैं, यानी गाड़ी से ऐन पहले. हर मौके पर, वे गाड़ी की गति में बाधा पैदा करते हैं. तरह- तरह के अवरोध उत्पन्न करते हैं. कभी सड़क के बीचोंबीच चलते हैं, तो कभी ट्रैफिक के बीच में पशुओं का रेवड़ हाँक लाते हैं. कभी हेठी में गाड़ी के बोनट पर बैठ जाते हैं. एक दृश्य में तो वे उपज से लदी बैलगाड़ी में ऊपर बैठकर सारा-का-सारा रास्ता घेरे रहते हैं. हिचकोले खाती सवारी का आनंद लेते हुए, बाकायदा गीत गुनगुनाते हैं. वस्तुतः यह समस्त क्रिया-व्यापार चुहलबाजी का है. गीत के बोल मजरूह साहब ने लिखे हैं, जाहिर सी बात है कि, परिस्थिति से खूबसूरती से मैच करते हैं. कुल मिलाकर, ये बातें अनजानी सी होकर भी, अबोध बच्चों तक को मोहने की सामर्थ्य रखती हैं.

 

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

उत्तराखण्ड : धधकते जंगल, सुलगते सवाल

-अशोक पाण्डे पहाड़ों में आग धधकी हुई है. अकेले कुमाऊँ में पांच सौ से अधिक…

12 hours ago

अब्बू खाँ की बकरी : डॉ. जाकिर हुसैन

हिमालय पहाड़ पर अल्मोड़ा नाम की एक बस्ती है. उसमें एक बड़े मियाँ रहते थे.…

13 hours ago

नीचे के कपड़े : अमृता प्रीतम

जिसके मन की पीड़ा को लेकर मैंने कहानी लिखी थी ‘नीचे के कपड़े’ उसका नाम…

14 hours ago

रबिंद्रनाथ टैगोर की कहानी: तोता

एक था तोता. वह बड़ा मूर्ख था. गाता तो था, पर शास्त्र नहीं पढ़ता था.…

1 day ago

यम और नचिकेता की कथा

https://www.youtube.com/embed/sGts_iy4Pqk Mindfit GROWTH ये कहानी है कठोपनिषद की ! इसके अनुसार ऋषि वाज्श्र्वा, जो कि…

2 days ago

अप्रैल 2024 की चोपता-तुंगनाथ यात्रा के संस्मरण

-कमल कुमार जोशी समुद्र-सतह से 12,073 फुट की ऊंचाई पर स्थित तुंगनाथ को संसार में…

2 days ago