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फेल होने पर भागने का एक ट्रेंड

परीक्षाफल का दिन नजदीक आते ही डर और आशंका का माहौल बनने लगता था. तब रिजल्ट निकलता भी बहुत खौफनाक तरीक़े से था. इलाके-के-इलाके साफ हो जाते. कई दिनों तक भारी नरसंहार जैसा माहौल बना रहता था. तो जैसे-जैसे दिन नजदीक आते, वैसे- वैसे खून सूखने लगता था. चेहरा लटका रहता था, बल्कि हमेशा बारह बजे रहते. यार दोस्तों के साथ सनीमा-खेल की बातें चलती रहती, फिर अचानक मन दौड़-दौड़कर आने वाले नतीजे की तरफ भागने लगता था. मन, आशंका और पूर्वाभास में डूबकर रह जाता.

दूसरी तरफ मन के किसी कोने में एक धुँधली सी उम्मीद बंधी रहती थी, क्या पता पास हो ही जाएँ. मन खुद को दिलासा देता रहता- ‘दुनिया में चमत्कार होते हैं कि नहीं. जहाँ पर दो-चार नंबरों की कमी-बेशी रहती हो, वहाँ पे तो हल्का हाथ रख ही लेते होंगे. इतने में उनकी जेब से कुछ जाता थोड़े ही है. करीब-करीब वालों को तो पार करा ही देते होंगे. आखिर, इंसानियत भी तो कोई चीज है. वो भी तो बाल बच्चों वाले होते हैं.’ उम्मीद पर दुनिया कायम रहती- ‘लिखा भी तो पूरा है. एक भी पन्ना कोरा नहीं छोड़ा. हैंडराइटिंग साफ-सुथरी है. खूब बना- बनाकर लिखा था. और क्या चाहिए.’

पर हर बार, हर गलतफहमी की तरह, यह उम्मीद टूटके रह जाती. फेल होने का अनुभव, बहुत बुरा अनुभव होता था. एकदम से दुनिया बदल के रह जाती. अपने एकदम से पराए हो जाते. जो खुद अपने समय में, कई-कई बार लटका हो, वो भी नसीहत देने लगता. पूरा-का-पूरा खानदान दुश्मन बनके रह जाता. जिन्हें अपना समझते थे, उनके रुख में भी अचानक तब्दीली आ जाती थी. कुल मिलाकर, सबकी बेरुखी बढ़ जाती.

फेल होना अच्छी बात नहीं, है तो एकदम जग-हँसाई वाला काम. पर अब घर वालों को कैसे समझाएँ कि, मैं जानबूझकर फेल नहीं हुआ हूँ. मेरी भी वही इच्छा थी, जो तुम्हारी थी.’ अचानक से चर्चाओं में ‘वाजिब स्थान’ मिलने लगता. लोग खोद-खोदकर पुरानी बातें सामने लाते, ‘साथ देखा, कभी उसका. मैं तो तभी उसके लच्छन जान गया था. फैशन पट्टी देखी कभी उसकी. ऐसे लड़के कभी पास होते हैं, भला.’

बचाव का उपाय बहुत आसान था- बवाल तभी होगा न, जब उनसे सामना-सामना हो. अगर अपनी शक्ल ही न दिखाई दे, तो काहे की दिक्कत. वो अपनी जगह सही, आप अपनी जगह. तो फिर, नतीजा पता चलते ही लड़के फौरन घर से भाग जाते थे. नई दुनिया, नए लोग, मौज कटेगी.

आस-पड़ोस के पुराने भागे लड़कों का थोड़ा बहुत प्रभाव तो रहता ही था. वे जब लौटकर आते, तो एकांत में हरदम लड़कों से घिरे रहते. उनके देखे नये अनुभव-संसार का अजीब सा आकर्षण रहता था. वो बताते भी बेजोड़ तरीके से थे. स्वप्निल संसार का हू-ब-हू खाका खींच के धर देते. एकदम ग्लैमराइज्ड कर के रख देते. नादान श्रोता, अकस्मात् अपराध-बोध से भर जाते. उन्हें फौरन आत्मग्लानि घेर लेती , “हम खामोखाँ, अभी तक यहाँ पड़े हुए हैं. दुनिया ने कितनी तरक्की कर ली और एक हम हैं कि, कूपमंडूक बने हुए हैं. इतनी उम्र हो गई, अभी तक कुछ भी तो नहीं देखा. ठीक तो कहता है. थोड़ा साहस बटोरकर भागने में ही भलाई है.’ इस तरह से वे लड़कों को, कई- कई बार, उस संसार की वैचारिक सैर करा चुके होते. जब आस-पास, इतने सारे उदाहरण मौजूद हों, तो किसका साहसिक भाव जाग्रत नहीं होगा. तो लड़के इस ‘पलायन-परंपरा’ को पहचानते थे, उसे आगे बढ़ाते. क्या मजाल कि, ‘निजी मान-मर्यादा’ पर कभी आँच आने दी हो. इस प्रकार, हर साल भागने वाले लड़के पर्याप्त संख्या में मौजूद मिलते थे. ‘किसी ने फिर न सुना दर्द के फसाने को. मेरे न होने से राहत मिली जमाने को..

नतीजा निकलते ही, लड़के फरार हो जाते. फुर्र से उड़ जाते. फिर कहीं अता-पता नहीं चलता था. बस अफवाहें पीछे शेष रह जाती थीं. योजना बहुत सोच – समझकर बनाई जाती थी. कपड़े – लत्ते – झोला संभालना, उसको किसी मंदिर या किसी वटवृक्ष की ओट में छिपाना, निगाह बचाकर चुपके से निकल पड़ना. कुछ तो पोटली, शमी के छतनार से वृक्ष में छिपाये रखते थे. नतीजा ठीक रहा, तो आगे की कार्रवाई की जरूरत नहीं पड़ती थी. अगर शंका सच साबित होती, तो निगाह बचाकर निकल पड़ते. इसमें खास बात यह रहती थी कि, फरार होने में अचूक टाइमिंग की जरूरत पड़ती थी. बिल्कुल व्याकरण सम्मत स्थिति – जैसे ही नतीजा निकला, कुंवर सिंह घर से भाग गया.

इसमें जरा सी भी चूक होती, तो एकदम से धर-पकड़ लिए जाते. श्याम सुंदर के साथ क्या हुआ था. उसका रिजल्ट, ‘गत वर्षो की भाँति’ आया था. सो उसने भागने में ही भलाई समझी. उनकी पुश्तैनी सैलून की दुकान थी. उसने घरवालों से निगाह बचाकर, माल – असबाब समेटा. जाने से पहले उसने एक बात का खास ख्याल रखा. जाते-जाते, कैंची-कंघी और एक उस्तरा भी साथ मे ले गया. महानगर की बस पकड़ी और फरार हो गया. कुछ दिनों तक फुल मजे लूटे. सिनेमा देखा, पार्क घूमे. रौनक देखी. जब तक जेब में पैसा रहा, खूब मौज-मस्ती की, गुलछर्रे उड़ाए. जब पैसा – टक्का खत्म हो गया, तो बस-अड्डे पर लोगों की हजामत बनाने लगा. जीवन-यापन के लिए उसने स्वावलंबन का रास्ता चुना. बस यहीं पर उससे चूक हुई. घरवाले उसे खोजते- खोजते उसी शहर में जा पहुँचे. उन्हें उसे ज्यादा नहीं खोजना पड़ा. कहीं भटकना तक नहीं पड़ा, वह ऐन मौके पर ही धर लिया गया.

तो फेल होने पर भागने का एक ट्रेंड सा रहता था. जो इस ट्रेंड को आजमा चुके होते थे, वे काफी अनुभव लेकर लौटे हुए रहते थे. अपने जीवन- अनुभव को सूक्तियों में बयान कर डालते – जिंदगी का सफर, अनजाने में वो सब सिखा जाता है, जो किताबों में दर्ज नहीं रहता. सिर्फ बाजी हाथ से निकली है, जिंदगी नहीं. सिर्फ कॉन्फिडेंस होना चाहिए, जिंदगी का क्या है. वो तो कहीं से भी शुरू की जाती सकती है. मन से मत हारो. कोशिश जारी रहनी चाहिए. मंजिल मिले न मिले. तजुर्बा तो बहुत मिल जाता है. नतीजा, मन मुताबिक न आए, तो परेशान मत हो. बिल्कुल घबराओ मत. बस एक उपाय करो, मन की स्थिति बदल दो. सब कुछ अपने आप बदल जाएगा.

सुविधाएँ तब बहुत ही कम होती थी. जो भी सुविधाएँ थी, वे शहरों में पाई जाती थी. शेष जगह सुविधाओं का अभाव सा रहता था. नगरीकरण तब तक बहुत कम हुआ था. तो लड़के, अक्सर महानगरों का रूख अपनाते थे. जो थोड़ी सी चालाकी दिखाते, वे प्रांतों की राजधानियों की तरफ का रुख कर जाते. एटलस से जितना पढ़ा-सुना रहता, उन्हीं नगरों को जानते थे. भागने के बाद सबसे पहले जीवन-यापन की समस्या सामने आती थी. खाना-पहनना और सिर छुपाना, बस इन्हीं तीन चीजों की जरूरत पड़ती थी. तो लड़के होटल – ढा़बे – धर्मशाला पकड़ लेते थे. एक अनुमान के मुताबिक, होटल-धर्मशाला के संचालन का जिम्मा, सबसे पहले भागे हुए लड़कों ने ही संभाला. इस सेक्टर में उनके योगदान को, कम करके नहीं आँका जा सकता. दो-चार काम के आइटम, कायदे से बनाना सीख लिए, तो फौरन ‘फॉरेन’ का रास्ता खुल जाता. एक बार ‘फॉरेन’ जो पहुँचे, तो फिर कुछ शेष नहीं रह जाता. एक बार, जिसने इनका बनाया हुआ मसालेदार हिंदुस्तानी खाना खा लिया, तो फिर वो बचकर कहीं नहीं जा सकता.

बिजली के खंभों में चढ़ने में, पहाड़ी लड़के बड़े माहिर होते थे. उस समय देश में विद्युतीकरण का जोर चल रहा था. जगह-जगह लाइने खींची जा रही थीं. तो इन लड़कों ने, पहले ‘मस्टर रोल’ पर लाइन खींचने का काम किया, वो भी पूरी मुस्तैदी के साथ. कुछ समय बाद, वही के बिजली-बोर्ड में पक्के लाइनमैन होकर रह गए. उसकी तुलना, किसी सम्मान और प्रतिष्ठा से नहीं की जा सकती थी.

पुरानी पीढ़ी के लोग भी घर से भागकर बंबई – लाहौर जाते थे. वहाँ से अच्छी-खासी पढ़ाई करके, कामयाब होकर घर लौटते. सुंदरलाल बहुगुणा जी भागकर लाहौर में पढ़ रहे थे. वे रियासती पुलिस की आँखों में धूल झोंककर घर से भागे थे. ग्रेजुएशन में वे सनातन धर्म कॉलेज में पढ़ रहे थे. वेश बदलकर रहते थे. इन मुश्किल हालातों में भी उन्होंने संस्थान में पहली पोजीशन पाई.

तीन दोस्त थे, जो तब की दोस्ती के हिसाब से एक-दूसरे के बिना नहीं रह पाते थे. दोस्ती के तब अलग मायने होते थे, भावुक सा गठबंधन. तो तीनों दोस्त, सुबह-शाम साथ-साथ उठते-बैठते. साथ-साथ खेलते-कूदते. वे स्कूल में एक ही बेंच पर घुल-मिलकर बैठते थे. नतीजतन, तीनों का नतीजा एक जैसा रहा. ट्रेंड के मुताबिक, तीनों घर से भाग निकले. घरवालों ने पहले तो सोचा कि, ‘उसके घर गया होगा.’ उसके घर वालों ने सोचा कि, ‘इसके घर गया होगा.’ रात घिर आई. तब जाकर घरवालों को यकीन हुआ कि, लौंडे हाथ से निकल गए. रात भर रोना-पीटना मचा रहा. अगली सुबह, रिश्तेदारी में ढूँढ-खोज शुरू हुई, लड़के नहीं मिले. परिवारों में तलवारे खिंच गई. पहले आरोप-प्रत्यारोप हुए, “तुम्हारे लड़के की संगत में हमारा लड़का भी बिगड़ गया.”

उनकी मान्यता एकदम विपरीत थी, “हमारा तो एकदम गऊस्वरूप था. तुम्हारे सपूत की संगत में हमारा सीधा-साधा लड़का बिगड़कर रह गया.” तो इस संगति-दोष पर जमकर शास्त्रार्थ हुआ. वाक् युद्ध से जब जी ऊब गया, तब जाकर उन्हें समझ में आया कि, हमने काफी समय नष्ट कर दिया है. उन्हें खोजने के साझा प्रयास चालू हुए. आस-पास के इलाकों में खोजा गया, लेकिन कोई सुराग हाथ नहीं लगा.

जैसा कि, ऐसे मामलों में तब अक्सर होता था, अभिभावक दैवी-समाधान खोजने लगे. विधि-विधान के मुताबिक दिन-वार देखा गया. नियत दिन पर वे चावल की पोटली और दक्षिणा लेकर ‘बाकी’ के डेरे पर जा पहुँचे. ‘बाकी’ शब्द का अभिप्राय, ‘बाक’ (वाक्) बोलने वाले से है. वह ईश्वर भक्त होकर, बहुत ही संयमित जीवन जीते थे. लोक विश्वास के मुताबिक ‘बाकी’ दैवीय प्रभाव में आकर, खोई हुई वस्तु अथवा प्राणी का दिशा-ज्ञान एवम् उसकी वर्तमान स्थिति के संकेत देने में समर्थ हुआ करते थे.

लय में आकर ‘बाक्की’ ने ज्यूँदाल़(अक्षत) फेंकी और दोपाया-चौपाया कहना शुरू कर दिया. उसके संकेतों से जो निष्कर्ष सामने आया, वह था- चौपाया, दक्षिण दिशा. नौजवान लड़के इस निष्कर्ष से हतप्रभ होकर रह गए. कहाँ तो वे ‘मिसिंग’ लड़कों की समस्या को लेकर आए थे. यहाँ नतीजे कुछ और ही निकल रहे थे. जबकि अभिभावकों में से एक, जो कुछ ज्यादा ही रुष्ट थे, उनके मुताबिक निष्कर्ष बिल्कुल सही था, क्योंकि “लौंडे साले नतीजा सुनते ही हिरन हो गए. बदमाशों ने हवा तक नहीं लगने दी. इन पाँच-सात दिनों में कुकुर की तरह डगर-डगर फिर रहे होंगे.”

सयानो ने आपस में सोच- विचार किया, तो वे इस नतीजे पर पहुँचे कि, बापू ग्राम वाले ‘झाड़कंडी’ को भी देख लेते हैं. इन पहुँचे हुए संत के विषय में एक मिथक प्रचलित था कि, वह किसी अबोध बच्चे, जिसका निर्मल अंतःकरण हो, के नाखून पर, उसे वांछित या अभीष्ट घटना का सीधा प्रसारण दिखा देता है. तो सीधा प्रसारण देखने के लिए गाँव से बलवीर को ले जाया गया. वह उन तीनों में से एक का छोटा भाई होता था, इसलिए इस भूमिका के लिए उसे उपयुक्त पाया गया. लोक मान्यता के अनुसार, बलवीर ने जो-जो देखा, उसका सीधा प्रसारण उपस्थित जन समुदाय को सुनाया. उसके मुताबिक, “इस समय वे लोग किसी धर्मशाला में हैं. आलथी- पालथी मारकर, खिचड़ी खाने में जुटे हैं.” बड़ों ने उससे, उस स्थान-विशेष के संकेत-चिह्न, गौर से देखने को कहे, तो उसने सही-सही दोहरा दिया. अभिभावकों ने बिना समय गँवाए, उस जगह पर धावा बोल दिया. यह देखकर उनके अचरज का ठिकाना न रहा कि, उस समय उनमें से एक खिचड़ी के बर्तन धो रहा था. तीनों मौके पर धर लिए गए. घर पर उनकी मरम्मत हुई और तबसे कड़ी निगरानी रखी जाने लगी. बच्चा जब कभी उन्हें एक साथ देखता, तो उँगली उठाकर चेतावनी देता, “अगर तुम फिर से भागे, तो मैं तुम्हें फिर से नाखून में देखूँगा. सोच लो, अब कोई चालाकी नहीं चलेगी.”

काफी समय तक, यह चेतावनी अपना काम करती रही. इस वाकये पर अविश्वास करने का कोई उपाय न था. ‘फर्स्ट हैंड इंफॉर्मेशन’ के साथ यह मजबूरी तो रहती ही है. प्रवीर भाई की बात थोड़ी अलग थी. फेल तो वह भी हुआ, लेकिन उसने अगले साल मन लगाकर पढ़ने की ठानी. नतीजा सुनकर वह सीधे घर आया. उसने सहज भाव से सबको, अपने विफल परिणाम की सूचना दी. खरीफ की बुवाई का काम शुरू होने जा रहा था. उसने किसी काम के लिए अपने भाई से पाँच रुपयों की माँग की. भाई उसका तुनकमिजाज था. रुपए की बात सुनते ही तुनककर बोला, “तेरा क्या भरोसा. तू तो वैसे भी फेलियर है. मेरे पाँच रुपए लेकर भाग गया, तो मेरी तो रकम डूब जाएगी.” प्रवीर को बात लग गई. बात उसे तीर की तरह लगती थी. भाई ने आखिर उसे आईडिया दे ही दिया. जब उसकी माँग ठुकरा दी गई, तो उसने मन-ही-मन निश्चय किया, “पहले तो मेरे मन में ऐसा कोई विचार नहीं था. अब जब तेरी यही इच्छा है, तो मैं उसे अवश्य पूरी करूँगा. जब तू चाहता ही है, तो मैं मना करने वाला होता कौन हूँ. अब तो मैं पक्का भागूँगा. जैसे ही पाँच रुपये हाथ में आए, सीधे आगे का रास्ता पकड़ लूँगा.”

वह मौका देखता रहा. आखिर एक दिन उसे उसके भाई ने हल-हँसिया तेज कराने लोहार के पास भेजा. उसने कसर निकाल कर रख दी. उसने मौका भुनाने में जरा भी देरी नहीं की. खेती के औजार लोहार के यहाँ पटके और लोहार की फीस लेकर आगे बढ़ गया. वह बेटिकट ट्रेन में चढ़ा और शहर के स्टेशन पर उतर गया. स्टेशन पर एक कैंटीन थी, जो अपने ही गाँव वालों की होती थी. उन्होंने खाने के लिए पूछा तो उसने छककर खाया. फिर तफरीह के लिए शहर में निकल पड़ा. इसी बीच उसने नौकरी की बात भी पक्की कर ली. एक ट्रक ड्राइवर को खलासी की सख्त जरूरत थी. प्रवीर भाई ने उसे फौरन अपनी सेवाएँ अर्पित करने का निश्चय किया. मेहनताना तय हुआ, तीन टाइम का मनपसंद खाना और ऊपर से सौ रुपए की तनख्वाह. इस पैकेज में खास बात यह थी कि, सारा जोर खाने पर रखा गया था.

ट्रक का ‘ऑल इंडिया परमिट’ था. फिर क्या था. नेकी और पूछ-पूछ. प्रवीर भाई, ऑल इंडिया घूमे. आदमी वे मेहनतकश थे. कुदरती तौर पर मजबूत. ओजगुण, उनमें प्रमुख था. चाहे समर्थन करना हो या विरोध, जो भी करना हो, खुलकर करते. जो समस्या एक बार उनके पास आ गई, तो फिर उसे सुलझी ही समझो. चाहे वह लोडिंग-अनलोडिंग की समस्या हो या नाके को पार करने की, चाहे ट्रक-मरम्मत की.

जहाँ पर भी ट्रक रुकता, वह मनपसंद खाना खाते. पानी अगर खारा होता, तो वे ड्राइवर से कहते, ‘माजा पिलाओ.’ ड्राइवर खुशी-खुशी उसके नखरे उठाता रहा. वैसे भी बात खाने पर ही तय हुई थी. तनख्वाह पर तो कोई जोर ही नहीं दिया गया था. यात्राएँ, दूरदराज की रहती थी. लारियाँ, सुरक्षा की दृष्टि से ‘कॉनवॉय’ में निकलती थी. कारवाँ बीच-बीच में पड़ाव पर रुकते, तो सभी सामूहिक रूप से खाना खाते थे. ड्राइवरों ने जब प्रवीर भाई का आहार देखा, तो वे अचरज में पड़कर रह गए. वे उसकी खुराक देखते और मन-ही-मन तुलना करते. किसी तरह की आशंका को भाँपते हुए वे अपने खलासी- कंडक्टरों को उससे बड़ी सावधानी से दूर रखने लगे. उन्हें इस बात का भय था कि, कहीं इसकी सोहबत में पड़कर, उनके खलासी- कंडक्टर भी ‘चूजी’ खाने की माँग न करने लगें. उन बेचारों को कहाँ से मालूम होता कि, उसकी तो तनख्वाह ही, तन पर लगने वाले भोजन के रूप में तय हुई है.

तो प्रवीर भाई ने पूरब- पश्चिम, उत्तर-दक्षिण तक कई स्थानों की यात्रा की. खूब शहर घूमे. पर्यटक स्थलों को जी-भरकर देखा. लंबे अरसे बाद जब वह लौटा, तो बुनियादी धरातल के ठोस अनुभव लेकर लौटा. संक्षेप में, आटे-दाल का भाव मालूम करके और खूब परिपक्व होकर लौटा. हालांकि, दक्षिण के तीन- चार राज्यों को न देख पाने का मलाल, उसे लंबे समय तक बना रहा.

 

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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Girish Lohani

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