पूरब के कुछ इलाकों में दुश्मन के नाम का कुत्ता पालने का रिवाज रहा लेकिन कुत्ता पालने का असली मकसद ये कभी नहीं था. शुरुआत में तो उसे साथ के लिए पाला गया, फिर चौकीदारी के लिए. जब इंसान अकेला रहा, आसपास उसकी मौजूदगी ने इंसान की उदासी को दूर किया. पहाड़ों में देखिए पनिहारिनों के साथ पंधेरे (पनघट) जाता है, घराट तक साथ देता है. उस निर्जन एकांत का वह पक्का साथी होता है. (Column by Lalit Mohan Rayal)
परोक्ष रूप से वह कई तरह से अपराध-निवारण का काम करता है. वह इंसान के किस काम नहीं आया, लेकिन समय बीतने के साथ कुछ लोग उससे रोब-दाब गांठने का काम लेने लगे. बाज-बाज कुत्ते क्या नहीं करते? सुबह का अखबार उठा कर लाते हैं. छू कर देने पर जिन्न बन जाते हैं, पल भर में काम निपटाके हाथ बांधे ‘क्या हुकुम है मेरे आका’ का भाव लिए दुम हिलाने लगते हैं.
फिर उनके बहाने सुबह-शाम टहलना हो जाता है, जिससे शरीर की अकड़न जाती रहती है.उसके रहते आस-पड़ोस के लोगों की चाल में तेजी आ जाती है. लाइलाज लो बीपी रोगियों का तो वह शर्तिया इलाज कर देता है. अगर घर में कुत्ता हो तो दो-तीन दिन छोड़कर उसके लिए फॉरेन फूड या गोश्त मंगाना पड़ता है, इसी बहाने छठे-छमाहे मालिक भी हेल्थी डाइट का सेवन कर लेते हैं.
कुछ घरों में बच्चों की जिद के चलते कुत्ते पाले जाते हैं. बच्चे इसरार करते हैं. मचलते हैं. खाना-पीना छोड़ देते हैं, डॉगी नहीं लाए तो मैं ऐसे ही हठयोग में पड़ा रहूंगा. किसी का कहना नहीं मानूंगा. थक-हारकर अच्छी नस्ल का पप्पी मंगा लिया जाता है. उसके लिए कम टीमटाम नहीं करना पड़ता. जंजीर, गले का कॉलर, पट्टा, फिर सारा परिवार उस मासूम से अंग्रेजी में बतियाने लगता है. वो ढिठाई दिखाए तो उससे अंग्रेजी में टोकाटोकी की नौबत आने लगती है. इसी बहाने अंग्रेजी सीखने में वह पूरे परिवार की मदद करता है. ज्यादा नहीं तो रोजमर्रा के बोलचाल के कुछ शब्द तो सिखा ही देता है.
कुछ घरों में स्टेटस सिंबल के लिए डॉग्स पाले जाते हैं. विदेशी नस्ल के कुत्ते; ग्रेहाउंड, टिब्बेटन मेस्टीफ, ग्रेट डेन, अल्सेशियन, साइबेरियन हस्क, भेड़िए-लोमड़ी जैसी शक्ल के अलग-अलग नस्ल के कुत्ते. माना जाता है कि दोगली नस्ल ज्यादा खूंखार होती है. कुछ लोग उनको ज्यादा खूंखार बनाने के लिए उनकी दुम कटवाते हैं, लटके कानों की सर्जरी करवाते हैं, उनके लिए बाकायदा ट्यूटर रखते हैं, डॉग शो के लिए ट्रेनिंग दिलाते हैं. इतिहास गवाह है, यह नस्ली दृष्टिकोण कभी ठीक नहीं रहा, पर क्या करें, ले-देकर यही नस्लें जालिमाना हद तक काबिल होती हैं, ऊपर से इंपोर्टेड की फीलिंग दे जाती है, उनका रखरखाव ऐसा, जिसको इंसान तरसे.
मनसुख ऐसा नहीं था. कुछ दिन पहले ऑर्गन सिस्टम फेल्योर से वह जाता रहा. विशु भीगे शब्दों में याद करते हुए बताते हैं, “आवाज लगाओ तो अधिकांश कुकुर मुंह उठाकर देखते हैं, लेकिन मनसुख इंसानों की तरह भौंह उठाकर देखता था. बगल से गुजरो तो तिरछी नजर फेंकता था. इशारेबाजी करता ही नहीं था, बाकायदा समझता भी था.”
वे बीते दिनों को याद करते हुए बताते हैं, “कार्तिक का महीना था. उसने रात को बड़ा आतंक मचा दिया. बिच सड़क से गुजरती तो उनकी देह की गंध से यह बेचैन हो जाता. घर का गेट बंद था तो ये बावला हो गया. उसने बाथरूम में मार तमाम बाल्टी-वाल्टी सब गिरा दीं, मग फेंक दिया, साबुनदानी चबा दी. मुझे गुस्सा आया तो मैंने उसे तीन-चार चपत लगा दी. उसने मुझसे बात करनी छोड़ दी. फॉलो करता था लेकिन उस दिन से सामने आकर दुम हिलाना छोड़ दिया. कहा मानता, लेकिन ऐसे जताता- तुझसे बात नहीं करूंगा.”
थियोसॉफिस्ट्स की अपनी अलग तरह की मान्यताएं होती हैं. विशु भाई उसके अहसान याद करते हुए बताते हैं, “इसने सारी आधि-व्याधियां अपने ऊपर ले लीं, मेरा फ्रैक्चर हुआ तो इसे भी हुआ. तब छोटा ही था. टूटी टांग लेकर भागते-भागते मेरे पास आया, मानो शिकायत कर रहा हो, ये क्या हुआ? बहुत सफर किया उसने. मैं उसे इलाज के लिए बरेली लेकर गया. ब्रेस बनाके… यहां पर अटकता है… आगे वाले पैर के सबसे ऊपर वाली जॉइंट पर… ये बात ही ना समझे. एक जगह बैठा नहीं. चलता रहा, इसके ऊपर जख्म हो गया. जख्म के ऊपर का ब्रेस हटाना पड़ा. ब्रेस हटने से पैर गलत जगह जुड़ गया…”
“इसके साथ बड़ा चक्कर रहा. तब बच्चा ही था. तीन-चार महीने का रहा होगा. बाहर पर दवाई डाली होगी, इसने फर्श चाट लिया. घर से मुझे फोन आया कि वोमिटिंग कर रहा है. रात भर निगरानी की. माली से पूछा, क्या दवाई डाली थी, उसने बताया- फोरेट. मैंने फोरेट का एंटीडोट ढूंढा. डॉक्टर के पास गया तो डॉक्टर ने कहा कि ये इसका एंटीडोट नहीं है, ये तो मर जाएगा फिर वह तरह-तरह का इलाज बताने लगे. ये कराते हैं. वह कराते हैं. मुझे गुस्सा आ गया. मैंने कहा- डॉक्! बिल बनाने के चक्कर में तो पड़ना मत. जितना सोचते हो, उससे बढ़कर दूंगा. सीधी सी बात है, ये एंटीडोट है. ये इसे लगना है.”
इसको लेकर बड़े परेशान थे, कहा”… लगता है कि ड्रिप चलनी चाहिए तो चढ़ा दो, लेकिन ड्रिप का तो मतलब ही नहीं है. डिहाइड्रेशन तो हो ही नहीं रहा है. फिर मैंने कहा कि एक छोड़ दो ठोक दो. मात्रा बढ़ जाएगी, कोई बात नहीं बच्चा है, झेल जाएगा. तो भाई साहब! मनसुख बच गया.”
“… ये शुरू से ही ऐसा था. एकदम साउक सा. रोड पर चल रहा होता तो कहो मनसुख! ऑब्जर्ब करता था, दोबारा आवाज लगा रहे हैं कि नहीं. दोबारा बुला लिया तो घूमकर वापस आ जाता. इधर आ जा भाई, कहां जा रहा है. सारी बातें समझता था. दरवाजा खोलने के लिए पंजे मारता था. न खोलो तो बाहर बैठा रहता था.”
“… शरारतें बहुत कम की. घर के अंदर तो नहीं की. करनी होती तो बाहर जाता था. बगल वालों की सारी मुर्गियां मारकर खा गया. साइज में बड़ा तो था ही. एक दिन मैडम शाम को वॉक करके आ रही थी तो देखा एक महिला पीछे से बड़बड़ाते हुए आ रही थी. ये काला कुत्ता किसका है? ये काला कुत्ता… लाल पट्टे वाला… मैडम ने सोचा, ये तो हमारा ही है. बड़ा सा है, भालू जैसा. औरत चिल्लाने लगी, हमारी मुर्गियां मार देता है. मैडम आगे निकल आई, घर के पास पहुंचीं तो देखा मनसुख पूरे गेटअप में गेट पर बैठा हुआ मिला. ‘यही तो है, यही तो है, मेरी मुर्गियां मारता है. मुर्गीबाड़े के बाहर बैठा रहता है…”
“… हमें भी लगता था, इसे रोज नहलाते हैं, इस पर अजीब सी स्मेल कैसे आती है, मुर्गीबाड़े की स्मेल होती थी. इसके जाने का बड़ा अजीब लगा..”
जाने से पहले दो रात मनु भाई के साथ रहकर गया. मनु भाई का उससे अटूट लगाव था इसलिए वे ज्यादा व्यथित हैं. उसे भैरव की सवारी मानते रहे. नाइजीरिया में एक ट्राइब होती है, इगबो. उनमें हर एक ह्यूमन बींग का एक ची होता है. ची माने पर्सनल गॉड. मनु भाई भावुक होकर बताते हैं, “मेरा मनसुख था न जो, वो मेरा पर्सनल गॉड था. आप मानोगे नहीं, कोई भी मामला फंसता था, तो मैं मनौती मानता था- मनसुख भाई! मेरा एक काम करा दे, मेरा यह जो काम है, इसे भैरव बाबा करा देंगे.
कुछ दिनों से उसकी हालत ठीक नहीं थी. वे रुआंसे होकर बताते हैं, “क्या बताएं, ही वाज वेरी क्लोज टू मी.” (Column by Lalit Mohan Rayal)
बेईमान भूत और तोतले पंडिज्जी का किस्सा
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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