माना जनाब ने पुकारा नहीं
क्या मेरा साथ भी गवारा नहीं
मुफ्त में बनके चल दिए तन के
वल्ला जवाब तुम्हारा नहीं...
... गुस्सा ना कीजिए जाने भी दीजिए
बंदगी तो बंदगी तो लीजिए साहब...
...इधर देखिए, नजर फेंकिए
दिल्लगी ना दिल्लगी तो कीजिए साहब...
फिल्म पेइंग गेस्ट (1957) के लिए मजरूह सुल्तानपुरी ने एक से बढ़कर एक गीत लिखे- ओ …निगाहे मस्ताना … चाँद फिर निकला … छोड़ दो आंचल जमाना क्या कहेगा …जैसे ऑल टाइम हिट गीत, वो भी एक ही फिल्म में. इन गीतों को जाने-अनजाने कई पीढ़ियों ने गुनगुनाया.
माना जनाब ने पुकारा नहीं… गीत को लिखने से पहले मजरूह ने निर्देशक सुबोध बनर्जी से इस फिल्म के नायक के प्रोफेशन के बाबत जानकारी हासिल करनी चाही, तो निर्देशक ने उन्हें बताया कि फिल्म का नायक एक वकील के किरदार में है.
तब वकालत का पेशा मानिंद पेशा होता था और जीवन शैली नफासत भरी. इस लिहाज से मजरुह ने सोची हुई सिचुएशन के हिसाब से कई-कई सोफिस्टिकेटेड गीत लिखे, लेकिन निर्देशक ने सब-के-सब खारिज कर दिए. उन्हें बात कुछ जमी नहीं. जब मजरूह को कुछ नहीं सूझा, तो उन्होंने निर्देशक के सामने फिल्म के कुछ दृश्य देखने की माँग रखी.
जैसे ही उन्होंने कुछ विजुअल्स देखे, तो निर्देशक से बोले, “मैंने समझा था कि, ये सोफिस्टिकेटेड होगा, मैनर्स वाला होगा, लेकिन ये तो सड़क पर घूमने वाला लोफर निकला. बस मुझे कुछ मिनट दीजिए, मैं चुटकी में गीत लिखकर लाता हूँ…”
और सचमुच कुछ ही मिनटों में उन्होंने यह गीत फिल्म निर्देशक के सामने रख दिया. इस गीत का पिक्चराइजेशन नॉस्टैल्जिक है—
अचकन-शेरवानी पहने देव साहब, बैडमिंटन रैकेट लिए छरहरी नूतन. साइकिल की लग्जरी, घंटी का जबरदस्त प्रयोग. गीत को देखकर महसूस होता है कि, मजरूह ने किरदारों के सूक्ष्म गहरे भावों के मुताबिक शब्दों को इस गीत में उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
अजीम शायर और गीतकार मजरूह सुलतानपुरी पेशे से यूनानी हकीम थे. शायरी का उन्हें खूब शौक था. उन्हें मुशायरों में खूब शोहरत मिली, लेकिन शुरूआती दौर में फिल्मी गीत लिखने से वे परहेज करते रहे. तब के लिहाज से उन्हें यह स्तरीय नहीं लगता था. कारदार जैसे मशहूर निर्माता ने जब उनके सामने फिल्मी गीत लिखने की पेशकश की, तो मजरूह ने उन्हें मना कर दिया.
जिगर मुरादाबादी की सलाह पर उन्होंने एक बार गीत लिखना जो शुरू किया, तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. हिंदी सिनेमा के लिए उन्होंने एक से बढ़कर एक गीत लिखे.
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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