प्रिय अभिषेक

पटवारी साथ हो तो आप सकल विश्व को विजय कर सकते हैं

एक समय की बात है प्रभास क्षेत्र में मल्लिका नामक राज्य था, जिसकी राजधानी विराट नगर थी. यहाँ मल्लिका के पुष्प बहुतायत में होते थे. निरंतर मल्लिका के पुष्पों से सुवासित रहने के कारण ही इस राज्य का यह नाम पड़ा. यहाँ पर राजा भूदेव वर्मन का शासन था. राजा के तीन पुत्र थे. संतोषवर्धन, तर्कवर्धन और भोगवर्धन.

वह राजा अत्यंत ही न्यायप्रिय, धर्मज्ञ, नीतिज्ञ था. उसके राज्य में प्रजा अत्यंत प्रसन्न रहती थी. राजा धर्मशास्त्रों, स्मृतियों का निरंतर अध्ययन करता और तदनुसार राज्य का शासन चलाता था.

एक दिन राजा भूदेव ने अपने महामंत्री से कहा -निरन्तर शास्त्रों का अध्ययन करने से मेरे अंदर वैराग्य की भावना जागृत हुई है. साथ ही मेरी आयु भी अब वानप्रस्थ आश्रम में प्रस्थान करने योग्य हो गई है. परन्तु मैं निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ कि तीनों राजकुमारों में से किसे राज्य सौंपा जाय. परम्परागत रूप से ज्येष्ठ पुत्र ही सिंहासन का उत्तराधिकारी होता है. परन्तु मैं चाहता हूँ कि तीनों राजकुमारों में जो सर्वाधिक योग्य हो उसे राज्य का शासन दिया जाय.

‘विचार उत्तम है महाराज’, महामंत्री ने कहा,’ उचित होगा कि तीनों राजकुमारों की परीक्षा ली जाय. जो सफल हो, उसे राजा घोषित किया जाय. इससे राज्य को उपयुक्त उत्तराधिकारी मिलेगा.’

राजा ने तीनों राजकुमारों को बुलाकर  एक-एक सहस्त्र स्वर्णमुद्रायें प्रदान कीं और कहा – ‘दो वर्ष के भीतर इन मुद्राओं का जो सर्वश्रेष्ठ प्रयोग करेगा उसे ही मैं इस राज्य का राजा घोषित करूँगा.’

दो वर्ष बाद पुनः उसी स्थान पर मिलने की प्रतिज्ञा करके तीनों राजकुमारों ने राजमहल से प्रस्थान किया.

दो वर्ष बाद वे राजभवन में उपस्थित हुए. सबसे पहले संतोषवर्धन आया. वह राज्य के एक सामान्य मध्यम वर्गीय नागरिक जैसा दिखता था. उसके बाद तर्कवर्धन उपस्थित हुआ.

तर्कवर्धन अत्यंत दीन-हीन सी अवस्था में था. कांतिहीन, मैले-कुचले कपड़े पहने, स्वर्णाभूषणों से रिक्त, शिथिल वह राजसभा के मध्य आ खड़ा हुआ. अब केवल भोगवर्धन का आगमन शेष था.

कुछ ही समय में भोगवर्धन का आगमन हुआ. कंठ में पन्ना, वैदूर्य, माणिक्य के हार, स्वर्ण मंडित रुद्राक्ष की माला, हीरक मुद्रिकायें ,स्वर्ण करधनी और साथ में चँवर डुलाते अनेक सेवक-सेविकाएँ. भोगवर्धन ,महाराज से भी अधिक  वैभवशाली लग रहा था. उसकी आभा से पूरा सभाकक्ष आलोकित था.

महाराज ने कहा आप तीनों ने एक सहस्त्र मुद्राओं का क्या किया ,कृपया राजसभा को विस्तार से कहें.

संतोषवर्धन ने कहा – महाराज मैं जानता था कि आपके द्वारा प्रदत्त धन सीमित है. अतः पहले मैंने आधा धन सुनिश्चित ब्याज वाली योजना में डाला. कुछ धन प्रतियोगी परीक्षा का प्रशिक्षण देने वाले अल्पकालीन  गुरुकुल में डाला. तदुपरान्त कोष लिपिक परीक्षा का आवेदन डाला, जिसमें मैं सफल रहा. शेष धन मैंने विकास प्राधिकरण की आवासीय योजना के आवास आवंटन और इस हेतु आवश्यक धरोहर राशि में डाला. अब मैं अपने निजी आवास में रहता हूँ और नौकरी से प्राप्त धन से ऋण की किश्तें भरता रहता हूँ.’

तर्कवर्धन ने बताया-‘ पिताजी मैं एक सहस्त्र मुद्राएं लेकर दूसरे राज्य गया. मैंने वहाँ के प्रतिभूति बाज़ार का सूक्ष्म अध्ययन किया. जिस कम्पनी में वृद्धि की सर्वाधिक सम्भावना थी उसमें आधा धन निवेश कर डाला. फिर शेष धन से मैंने जूते बनाने का कारखाना डाला. क्योंकि जूता ही वह एक मात्र उत्पाद है जो सदा चलता है. सब कुशल चल रहा था, तभी उस राज्य में नोटबंदी हो गई. वह कम्पनी जिसमें मैंने निवेश किया था विलुप्त हो गई और कारखाने के जूतों के क्रय आदेश निरस्त हो गये. अब मैं उन्हीं जूतों को खाता हूँ, कभी स्वयं तो कभी मजदूरों के हाथ से.’

अब भोगवर्धन की बारी आई. जिसका अनुभव सुनने की पूरी राजसभा को उत्कंठा थी. भोगवर्धन ने कहा- ‘पिताजी न तो मैंने सुनिश्चित ब्याज वाली किसी योजना में धन डाला ,और न ही कोई कारखाना डाला.’

‘फिर? फिर क्या डाला?’ महाराज ने पूछा.

‘मैंने एक मंदिर डाला.’

‘मंदिर?’

‘जी पिताजी, मंदिर. एक भव्य मंदिर.’

‘परन्तु पुत्र, भूमि की गगनभेदी कीमतों को देखते हुए इतनी मुद्राओं में एक वर्ग सूत भूखण्ड मिलना भी असम्भव था. फिर तुमने भव्य मंदिर कैसे डाला?’ केवल महाराज ही नहीं पूर्ण राजसभा को कौतूहल हो उठा.

भोगवर्धन ने उत्तर दिया,’पिताश्री मैंने मंदिर शासकीय भूमि पर डाला. अतः भूमि क्रय करने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता.’

‘क्या कहा, राजकीय भूमि पर मंदिर? क्या शासन ने तुम्हें ऐसा करने से रोका नहीं?’

‘महाराज पटवारी जी को हमने पहले ही पचास प्रतिशत का भागीदार बना लिया था. पटवारी साथ हो तो आप सकल विश्व को विजय कर सकते हैं. जो पटवारी पर विश्वास किया होता, तो महाभारत भी न होता. पाण्डव बिना युद्ध के जीत जाते.’

‘अर्थात?’

‘अर्थात यदि श्री कृष्ण दुर्योधन से पांच ग्राम माँगने की बजाय पटवारी के पास जाते, तो वह फौती नामांतरण कर महाराज पाण्डु की जगह कुंती बेवा पाण्डु और शेष पांच भाइयों का नाम खसरे में चढ़ा देता. और दुर्योधन हाथ मलता रह जाता.’

‘परन्तु इतना भ्रष्टाचार? शासन की भूमि पर मंदिर?आख़िर तुम किस राज्य में गये थे भोगवर्धन?’

‘यहीं, चोरपुरा ग्राम में महाराज.’

‘चोरपुरा? राजभवन के पीछे वाला?’

‘जी पिताजी, वही चोरपुरा.’

‘तो क्या किया फ़िर? उन मुद्राओं से मंदिर का निर्माण किया?’

‘नहीं पिताजी! व्यापार के नियमों से ऐसा करना मूर्खता होती.’

‘तो फिर?’

‘पिताजी जैसा कि विदित है, पटवारी साथ हो तो आप सकल विश्व जीत सकते हैं. मैंने पटवारी महोदय से निवेदन किया तो उन्होंने दो सौ साल पहले तक के भू-अभिलेख में मंदिर की प्रविष्टि इंद्राज कर दी. वे बोले टोडरमल तक ले आया हूँ, इससे पहले का बस्ता नहीं है, वरना सिंधु घाटी तक खींच देता. मैंने कहा नहीं इतना ही पर्याप्त है.’

‘इस सब का मंदिर निर्माण से क्या लेना-देना है?’ महाराज  ने टोका. पूरी राजसभा भी सुन रही थी.

‘ है महाराज, लेना-देना है. वह स्थान जहाँ ऐतिहासिक रूप से मंदिर होने के प्रमाण मिलते थे, वहाँ एक मूर्ति प्रकट हो गई.’

‘प्रकट हो गई?’

‘हाँ, वहाँ कुछ श्रमिक खुदाई करने आये और फावड़े के पहले ही प्रहार से मूर्ति निकल आई. मैंने पटवारी जी से कहा – यही समय है सहभागी, व्यापार प्रारम्भ किया जाय. बस वहाँ तत्काल एक लघु मंदिर बनवाया गया. और मैं स्वयं वहाँ पुजारी के रूप में विराजमान हुआ.’

‘और प्रजा ने तुम्हें पुजारी स्वीकार कर लिया? बोलो भोगवर्धन!’ महाराज ने पूछा.

‘जी पिताजी, क्योंकि प्रभु ने मुझे ही स्वप्न देकर बताया था कि अमुक स्थान पर प्राचीन मंदिर था, जहाँ मेरी मूर्ति दबी है. स्वप्न में प्रभु ने आदेश दिया था कि वहाँ खुदाई करवाओ और भव्य मंदिर बनवाओ. मैंने सम्पूर्ण ग्राम के समक्ष खुदाई करवाई और मूर्ति ठीक उसी स्थान पर निकली. मेरी जय-जयकार होने लगी. सम्पूर्ण ग्राम मेरे चरणों मे नतमस्तक हो गया.’

आश्चर्य! इतना सब हो रहा था तब राज्य के वरिष्ठ अधिकारी क्या कर रहे थे?

‘महाराज आप को विदित है कि यदि पटवारी साथ हो तो…’

‘हाँ, हाँ पता है, आप सकल विश्व विजय कर सकते हैं. आगे कहिये भोगवर्धन!’ महाराज ने कहा.

‘तो महाराज पटवारी जी ने मंदिर की महिमा उपजनपदाधिकारी महोदय को बताई, जो स्वयं प्रभु के अनन्य भक्त थे. वे तत्काल वहाँ प्रभु के दर्शन करने पधारे. पटवारी जी की कृपा से मुख्य जनपदाधिकारी और आरक्षी अधीक्षक महोदय भी वहाँ दर्शन करने आने लगे. वे आये तो जनपद के अन्य अधिकारियों को भी आना पड़ा. शनैः-शनैः मंदिर की लोकप्रियता बढ़ने लगी.’

भोगवर्धन के वृत्तांत को पूरी राजसभा मौन हो कर सुन रही थी. सभी कर्मचारियों को भारी उत्कंठा थी.

महाराज ने पुनः प्रश्न किया, ‘भोगवर्धन प्रारम्भ में तुमने कहा था कि तुमने भव्य मंदिर डाला है. पर अभी तुमने बताया कि मंदिर लघु है. फिर यह लघु मंदिर, भव्य कैसे बना? मुझे संदेह है कि तुम कोई मनगढ़ंत कहानी सुना रहे हो. यदि ऐसा हुआ तो इसके लिये तुम्हें दंडित भी किया जा सकता है.’

‘महाराज प्रथमतः यह कहानी पूर्ण सत्य है’, भोगवर्धन ने कहा,’ और द्वितीयतः आप मुझे दण्डित नहीं कर सकते. इसका कारण आपको कहानी के अंत में पता चलेगा.’

यह कह कर भोगवर्धन ने कहानी को जारी रखा -‘ तो महाराज मंदिर को नित भारी मात्रा में चढ़ावा प्राप्त होने लगा. बीच में कुछ सामान्य चमत्कार भी होते रहे.’

‘सामान्य भी, चमत्कार भी? यह कैसे सम्भव है?’ सेनापति ने कहा.

‘अरे! सामान्य ये कि नवागत जनपदाधिकारी को संतान प्राप्ति हुई. चमत्कार ये कि ये संतान प्राप्ति मंदिर की कृपा से हुई. समझे!’

‘अहो! धन्य,धन्य’, सेनापति ने कहा. कुछ पार्षदों ने ईर्ष्या भरी नजरों से ने सेनापति को देखा. वे सेनापति के चाटुकारिता के प्रयास को ताड़ गये थे. भोगवर्धन ने अपना कथन निरन्तर रखा.

‘तो प्राप्त चढ़ावे से मंदिर का भव्य निर्माण प्रारम्भ हुआ.’

‘मंदिर की भव्यता का आपकी व्यकितगत भव्यता से क्या लेना-देना है? ये आभूषण, ये रत्न ,ये चँवर डुलाते दास-दासी. क्या चढ़ावे का प्रयोग व्यक्तिगत हितों के लिये किया आपने?’ महाराज ने टोका.

‘कदापि नहीं महाराज. और चँवर डुला रहे ये लोग मेरे दास-दासी नहीं , शिष्य और शिष्याएं हैं. मेरे दीक्षित शिष्य और शिष्याएं. मैं इनका गुरु हूँ. प्राप्त चढ़ावे का उपयोग मंदिर के भव्य निर्माण के लिये किया जाने लगा. और हमने पटवारी जी के साथ मंदिर के बाहर पूजन सामिग्री और मिष्ठान्न विक्रय का व्यापार प्रारम्भ किया. हम दोनों भागीदारों में से एक धर्म सम्भालता था और दूसरा व्यापार. आस्था की डोर पर व्यापार की बेल बहुत तेजी से चढ़ती है. ‘

तभी तर्कवर्धन चीखा-‘कितनी भी तेजी से चढ़े ,पर इतनी भी तेजी से नहीं चढ़ सकती कि दो साल में ये ठाठ-बाट हो जाएं. तुम सत्य नहीं बोल रहे भोगवर्धन!’

‘भ्राता ये तो केवल प्रथम वर्ष की कहानी है. द्वितीय वर्ष में मैंने प्रतिपक्ष के निर्माण का निर्णय किया. आंतरिक प्रतिपक्ष और बाह्य प्रतिपक्ष दोनों.’

‘प्रतिपक्ष का निर्माण? और ये आंतरिक-बाह्य क्या बला है?’

‘महाराज पक्ष से प्रतिपक्ष निर्मित होता है यह स्वतः सिद्ध है. परन्तु मुझे प्रियोस्की ऋषि का वह सूत्र याद रहा कि समाजवादी, चातक की तरह मुँह ऊपर करके प्रतिपक्ष के निर्माण की प्रतीक्षा करते रहते हैं और पूँजी स्वयं ही, स्वयं का प्रतिपक्ष बना कर विस्तार करती रहती है.’

‘तो आपने क्या किया?’

‘मैंने सबसे पहले आंतरिक प्रतिपक्ष के निर्माण के लिये वैष्णव मंदिर में शिव लिंग की स्थापना की. प्रियोस्की कहते हैं जो प्रतिपक्ष का निर्माण स्वयं करते हैं वे सम्पक्ष पर भी नियंत्रण प्राप्त कर लेते हैं. अब कुछ दिनों में मैं वहाँ शक्ति की स्थापना करूँगा.’

‘और बाह्य प्रतिपक्ष?’ महामंत्री ने पूछा. राजसभा इससे पहले इतनी देर कभी न बैठी थी. आज किसी को शीघ्रता नहीं थी.

‘बाह्य प्रतिपक्ष हेतु मैंने इस्लाम की ओर देखा. मंदिर के पार्श्व में एक मज़ार बनाई और उसके पार्श्व में आधी बनी मस्ज़िद.’

‘आधी बनी मस्ज़िद? ये क्या बात हुई भला?’

‘जी महाराज. मज़ार पूरी बनी, और मस्ज़िद आधी बनी, कमाऊ होती है. अब पटवारी जी ने मस्ज़िद का व्यापार सम्भाला.’

‘तो इस प्रकार आप धन कमाने लगे.’ महाराज ने निष्कर्ष दिया.

‘नहीं महाराज. ये तो प्रतिपक्ष था. मैंने बताया था कि प्रियोस्की ऋषि ने कहा है कि जो प्रतिपक्ष का निर्माण स्वयं करते हैं ..’

‘वे सम्पक्ष पर भी नियंत्रण प्राप्त कर लेते है’, महाराज और कुछ राजसभा के सदस्यों ने एक साथ कहा. उनकी एकाग्रता अद्भुत थी.

‘मुझे अपने द्वारा सृजित सम्पक्ष की स्पष्ट जानकारी थी.  इसलिये हमने और पटवारी जी ने वहां अस्त्र-शस्त्रों का व्यापार आरम्भ किया. भाले, कृपाण, धनुष-बाण,असि, क्या नहीं है हमारे आगार में! शस्त्रास्त्रों का व्यापार आरम्भ करते ही हमारी आय अविश्वसनीय गति से बढ़ी. हथियारों के व्यापार में धर्म उत्प्रेरक का कार्य करता है.’

‘साधु! साधु! साधु! ‘ पूरी राजसभा गूँज उठी.

‘शांत!’ महाराज गरजे ,पूरी राजसभा शांत हो गई, ‘भोगवर्धन आपकी कथा निश्चित ही अद्भुत है ,परन्तु यदि ये मिथ्या हुई तो आपको कठोर दण्ड मिलेगा.’

‘क्षमा करें महाराज, परन्तु राजमाता ने आपको राजकाज की बाधाओं से मुक्ति के लिये एक विशेष स्थान पर पूजा-अर्चना करने को कहा है.’

‘हाँ तो, राजमाता और हमारी पूजा-अर्चना का इस संवाद से क्या सम्बंध है?’

‘वह स्थान मेरे द्वारा डाला गया मंदिर ही है. ये आपकी एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्रायें मैं आपको लौटाता हूँ ,जो व्यापार से प्राप्त आय का कर है. मंदिर, मज़ार और आधी बनी मस्ज़िद से प्राप्त आय कर मुक्त है.

पूरी राजसभा ,महाराज समवेत स्तब्ध थी.

फिर महाराज  ने कहा,’ भोगवर्धन आपने अपनी सूझबूझ, दूरदृष्टि, साहस और नेतृत्व से एक सहस्त्र मुद्राओं का तीनों राजकुमारों में सर्वाधिक उपयुक्त प्रयोग किया है. अतः मैं भूदेव वर्मन, मल्लिका राज्य का राजा, आपको मल्लिका राज्य के राजसिंहासन का उत्तराधिकारी घोषित करता हूँ.’

‘साधु! साधु! साधु! ‘ राजसभा पुनः गूँजने लगी.

प्रिय अभिषेक
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.

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Girish Lohani

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