ललित मोहन रयाल

बरखा-बहार पर सिनेमाई गीत

जल स्रोत और हरियाली, कुदरत की ऐसी नियामते हैं जो आँखों को सुकून देती हैं और मन को खुशी. पेड़- पौधे, पशु-पक्षी हों, चाहे मनुष्य, सभी बरसा से आनंदित होते हैं. इस खास मौसम में समूची कुदरत झूमने लगती है. वर्षा की बूँदे पड़ते ही, मन का ताप हर जाता है. उमस से निजात मिलती है, तो हरियाली भी लौटने लगती है. पहली बारिश में मिट्टी की सोंधी खुशबू और पानी की सौगात तन-मन को सराबोर कर जाती है. मन हरा-भरा होने लगता है. इसीलिए कविता-सिनेमा-गीतों में वर्षा ऋतु का चित्रण खूब देखने को मिलता है.

हिंदी सिनेमा भी इस अनुभव से अछूता नहीं रहा. बरखा, बदरा, बहार, सावन, झूले, रिमझिम बारिश का सिनेमा में प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है. इतना ही नहीं, कोई विशेष घटनाक्रम दिखाना हो, या नाटकीयता, कहानी को ट्विस्ट देना हो अथवा कोई अकस्मात घटना दिखानी हो, कथा में यू टर्न लाना हो या प्रभावी क्राइम सीन खींचना हो, रोमांटिक सीन दर्शाने हों, इन सबके लिए बरसात, सबसे सहज-सुलभ मौसम रहा है.

बरसात में… हमसे मिले तुम सजन… तुमसे मिले हम… बरसात में… बरसात (1949)

इस फिल्म से निम्मी के फिल्मी सफर की शुरुआत हुई. शंकर जयकिशन की भी यह डेब्यू फिल्म थी. फिल्म आग के लिए राज कपूर, शैलेंद्र से गीत लिखवाना चाहते थे, लेकिन शैलेंद्र ने इंकार कर दिया. कुछ समय बाद पत्नी की बीमारी के चलते शैलेंद्र को राज कपूर से आर्थिक मदद लेनी पड़ी. बाद में जब शैलेंद्र रुपया लौटाने गए, तो राज कपूर में लेने से इंकार कर दिया. इसके बजाए उन्होंने शर्त रख दी कि उनकी फिल्म बरसात के लिए दो गीत दे दो. शैलेंद्र ने फिल्म बरसात के लिए दो गीत दिए- ‘बरसात में हमसे मिले…’ और ‘पतली कमर है…’

फिल्म के शेष गीत हसरत जयपुरी ने लिखे.

प्यार हुआ इकरार हुआ… श्री 420 (1953)

गीत के मुखड़े को सुनते ही राज-नरगिस की जोड़ी, सांध्यकालीन वर्षा, छाते की साझेदारी वाला दृश्य स्मृति-पटल पर कौंध जाता है. यह हिंदी सिनेमा का एक क्लासिक गीत है. उस दौर की हिट जोड़ी बूँदों-फुहारों के मध्य इस खूबसूरत युगल गीत को गाती है.

गीत के आरंभ में नायिका के मन में झिझक सी दिखाई देती है, अनिश्चितता और आशंका झलकती है, लेकिन जैसे ही उसे प्रेम का उदात्त भाव दिखता है, गीत गति पकड़ने लगता है.

गीत के बोलों को लेकर शैलेंद्र अड़ गए. दरअसल ‘रातें दसों दिशाओं से कहेंगी अपनी कहानियां’ पंक्ति को लेकर शंकर-जयकिशन असमंजस में थे. उनके मुताबिक दिशाएँ तो चार ही होती थी. यह आशंका उन्होंने राज कपूर को बताई, तो राज ने कहा कि मैं भी चार ही दिशाएँ जानता हूँ, लेकिन कविराज (शैलेंद्र) ने लिखा है, तो कुछ सोचकर ही लिखा होगा. कविराज जब सामने पड़े, तो उन्होंने दसों दिशाएँ – ऊर्ध्व-अधो, ईशान-नैऋत्य, आग्नेय-वायव्य, पूरब-पच्छिम, उत्तर-दक्खिन गिनाकर रख दी.

प्रेम के वृहद् अर्थों में गाए इस गीत में बंबई की भीगी सड़कें दिखाई देती हैं और सड़कों पर इक्का- दुक्का लोग भी.

इक लड़की भीगी भागी सी… चलती का नाम गाड़ी (1958)

रात की मूसलाधार बारिश में एक खूबसूरत युवती की मोटर का खराब होना और उसका मोटर मरम्मत के लिए मोहन गैराज पहुँचना, इस गीत की और फिल्म की भी खास सिचुएशन है. मोटर मैकेनिक मन्नू, मनमौजी स्वभाव का रहता है. वर्षा, सौंदर्य और रोमानियत के अद्भुत संगम में मजरूह के बोलो ने चार चाँद लगा दिए.

भीगी भीगी रातों में, ऐसी बरसातों में कैसा लगता है… अजनबी (1974)

छत की टेरिस पर बारिश में भीगती युगल जोड़ी, गरजते बादलों के बीच बिजली का चमकना, वर्षा का आनंद लेते हुए उनका परस्पर भावों का आदान-प्रदान इस गीत का मूल भाव है. बीच-बीच में फुहारों की बौछार के मध्य नव युगल के मनोभावों को खूबसूरती से व्यंजित किया गया है. जीनत का ग्लैमर उस समय चरम पर था. एक दृश्य में राजेश खन्ना अपने जै जै शिव शंकर… (आप की कसम) वाले ट्रेडमार्क स्टाइल में आलथी- पालथी बाँधे नजर आते हैं.

रिमझिम गिरे सावन… सुलग सुलग जाए मन… मंजिल (1979)

योगेश जी का लिखा यह खूबसूरत गीत फिल्म में दो वर्जन में मौजूद हैं.

किशोर कुमार के स्वर में गीत ज्यादा संजीदा लगता है, जिसमें किसी मांगलिक कार्यक्रम में थोड़ी सी घरेलू ऑडियंस के सामने अमिताभ बच्चन हारमोनियम पर इस खूबसूरत गीत को गाते हैं. वे कवि के भेष में दिखते हैं और पूरी तन्मयता के साथ सुर-ताल साधते हुए दिखाई देते हैं.
दूसरे वर्जन में नवयुगल बंबई की सड़कों पर भीगते हुए दिखाई देता है. यह प्रीकंजेशन दौर का बंबई है, जिसमें मैरिन ड्राइव से लेकर शहर के पुराने लैंडमार्क, बरबस उस दौर की याद दिला जाते हैं.

बारिश से भीगी सड़कें, भीगा-भीगा शहर, बारिश से ताजा-ताजा नहाए पेड़ बहुत ही खूबसूरत लगते हैं.

आज रपट जाएँ… नमक हलाल (1982)

ठेठ गँवई संस्कार का आदमी (अमिताभ बच्चन) जब बारिश में भीगता है, तो उसके अंदर का मूल इंसान जाग उठता है. उसे वही आनंद आने लगता है, जो उसे गाँव में भीगने में आता था.

पुरवा हवा के झोंंके से जब उसकी सहकर्मी (स्मिता पाटिल) का छाता उड़ जाता है, तो उसे नायिका को अपनी खुशी में शामिल करने का मौका मिल जाता है. गीत में नायक का सिगनेचर स्टाइल डाँस, लोट लगाकर, फिसल-फिसलकर युगल गीत गाना तब खूब चला. बप्पी लहरी की नये फ्लेवर की धुन लोगोंं को खूब रास आई.

लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है… चांदनी (1989)

रिमझिम बारिश, हरियाली. संतूर-जलतरंग साज के साथ, सुरेश वाडेकर की मीठी आवाज में यह एक उदासी भरा गीत है.

इस मौसम में उसकी पुरानी स्मृतियां जाग उठती हैं और वह उदास हो उठता है- कुछ ऐसे ही दिन थे वो जब हम मिले थे

चमन में नहीं फूल दिल में खिले थे

वही तो है मौसम मगर रुत नहीं वो

मेरे साथ बरसात भी रो पड़ी है

फिर कहीं उम्मीद और आशा दिखाई पड़ती है-

कोई काश दिल पे जरा हाथ रख दे

मेरे दिल के टुकड़ों को एक साथ रख दे

मगर ये है ख्वाबों खयालों की बातें
कभी टूट कर चीज कोई जुड़ी है…

श्रीदेवी की पीली साड़ी और बरसा में भीगना खूब पसंद किया गया. बाजार में चांदनी साड़ी की बहार आ गई. चांदनी फिल्म के गीतों के लिए सुरेश वाडेकर को सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का फिल्म फेयर अवार्ड मिला.

कोई लड़की है… दिल तो पागल है (1997)

बारिश में भीगना किसे अच्छा नहीं लगता. खासकर बच्चों की बात करें, तो जिसने बारिश में भीगने का आनंद न उठाया हो, जो बारिश में भीगने को न मचला हो, उसने ईमानदारी से बचपन को जीया ही नहीं.

प्रेमी युगल में भी कहीं-न-कहीं वह बचपना आ ही जाता है. प्रेम का मतलब ही है, सरल हो जाना. बाल- मन जैसे कोमल भाव हो जाना.

इस गीत में बारिश में भीगते, स्ट्रीट डांस करते बच्चे सावन की अगवानी कर रहे होते हैं. बच्चों की मस्ती में बड़े (नायक-नायिका) भी शामिल हो जाते हैं.

कोई लड़की है… जब वो हँसती है.. बारिश होती है… झनन झनन… झन झन
कोई लड़का है… जब वो गाता है… सावन आता है… घुमड़ घुमड़ घुम-घुम…

जैसे प्रशंसा-बोलों के माध्यम से उनमें परस्पर भावों का आदान-प्रदान होता है. ये सब भाव प्रकृति के ही हैं. उन्हीं भावों को प्रतीक बनाकर, वे एक-दूसरे की जर्रानवाजी कर रहे होते हैं.
बाएँ घुटने के ऊपर रुमाल बाँधकर डांस करने का फैशन उन दिनों नौजवानों ने खूब दोहराया.

काले मेघा, काले मेघा, पानी तो बरसा… लगान (2001)

सूखा प्रभावित किसान, किस बेसब्री से मानसून का इंतजार करते हैं, इस गीत में यह भाव बड़े गहरे से आया है. बादलों को ताकती निगाहों से देखना दर्शाता है कि मन में कहीं-न-कहीं, कोई आस बाकी है.

यह गीत ‘लगान’ फिल्म का मास्टरपीस गीत था, जो ग्रामीण भारत के बहुत करीब महसूस किया गया.

जैसे ही बादलों का घेरा दिखता है, रोजमर्रा के काम में लगे लोग, काम-धाम छोड़कर उल्लास से भर उठते हैं. आश्चर्य मिश्रित भाव से उन काले मेघों को ताकते हैं. परंपरा अनुसार काले मेघा. काले मेघा… पानी तो बरसा… घनन घनन.. घिर घिर आए बदरा… गाकर अच्छी बारिश की कामना करते हैं. मन धड़काए बदरवा.. क्या खूबसूरत बोल हैं. जावेद अख्तर ने हिंदी सिनेमा को एक-से-एक खूबसूरत नगमे दिये, यह उनमें से एक है. तो बारिश की उम्मीद में यकायक उत्सव का सा माहौल बन जाता है. ऐसे माहौल में बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सभी मचल उठते हैं.

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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Sudhir Kumar

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