Featured

बैठी हूँ कब हो सवेरा रुला के गया सपना मेरा

रुला के गया सपना मेरा
बैठी हूँ कब हो सवेरा
वही है गमे दिल वही है चंदा तारे
वही हम बेसहारे
आधी रात वहीं है और हर बात वही है
फिर भी ना आया लुटेरा…

कैसी ये जिंदगी साँसों से हम ऊबे
के दिल डूबा हम डूबे
एक दुखिया बेचारी इस जीवन से हारी
उस पर ये गम का अंधेरा…

फिल्म ज्वेल थीफ के सारे-के-सारे गीत, मजरूह सुलतानपुरी ने लिखे, सिवाय ‘रुला के गया सपना मेरा…’गीत के. विजय आनंद चाहते थे कि, उनकी फिल्म के गीत शैलेंद्र ही लिखें, लेकिन शैलेंद्र किसी भी तरह राजी नहीं हुए. गोल्डी के लगातार शैलेंद्र के यहाँ आ धमकने और इस अनुरोध पर कि, एक गीत तो आपको लिखना ही पड़ेगा… आखिर कविराज शैलेंद्र ने फिल्म के लिए एक गीत लिखा- ‘रुला के गया सपना मेरा…

फिल्म में यह गीत डिफरेंट सा है. उदासी भरा. इसका फिल्मांकन वैजयंती माला पर किया गया है. नाव चलाते हुए वह उदास सी दिखती है. आँखों में आँसू है. चेहरे पर वेदना.. देवानंद पीछे से नाव खेते हुए गर्दन उठा-उठाकर देखते हैं. उनके चेहरे पर किसी रहस्य को जानने की जिज्ञासा जैसा भाव दिखाई देता है.

यह गीतकार शैलेंद्र की खूबी ही कही जाएगी कि वे सरल और सहज शब्दों के जरिए गीतों में जादूगरी भरना जानते थे. वे अधिकतर अपने जीवन के अनुभवों को ही कविता में उतारते रहे.

राज कपूर तो उनसे इतना आच्छादित रहते थे कि, ‘कविराज ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा’ किस्म की धारणा पाले रहते थे. इसलिए कभी भी उनकी सलाह को हल्के में नहीं लेते थे. उनके गीतों की विशेषता बताई जाती है कि, भले ही उनके बोलों में ऊपर से शांत सी नदी दिखाई पड़ती है, जरूरी नहीं कि वे अर्थों में भी उतने ही सीधे-सपाट हों. उनका अर्थ समुद्र सा गहरा भी हो सकता है.

बहरहाल ज्वेल थीफ के ‘रुला के गया सपना मेरा…’ गीत के बारे में कहा जाता है कि, इस गीत में शैलेन्द्र ने अपने मन की दशा को कागज पर उतारकर रख दिया. यह गीत उनके अंतिम दौर के लिखे गीतों में से है.

दरअसल ‘तीसरी कसम’ फिल्म के बाद उनकी आर्थिक मुश्किलों का दौर चल रहा था. हालांकि बाद में फिल्म को कल्ट मिला, राष्ट्रपति स्वर्ण पदक मिला. के. अब्बास ने तो उसे सेलुलॉइड पर लिखी हुई कविता तक कहा.

सार्थक और उद्देश्य से भरपूर फिल्म बनाना तब भी कठिन और जोखिम भरा काम होता था. सफलता की कोई गारंटी नहीं. राज कपूर ने अपने कविराज मित्र को इस बात के लिए चेताया भी. फिर एक रुपए मेहनताने पर काम करके फिल्म को पूरा भी किया.

आँखों से अभिनय करने, विशेषतया सीधे-सादे किरदार के रूप में चेहरे पर दयनीय भाव पैदा करने में राजकपूर, विलक्षण थे. इस फिल्म में तो उन्होंने गाड़ीवान का बहुत ही खूबसूरत अभिनय किया. वहीदा भी कहीं पीछे नहीं रही.

लेकिन कला से परिपूर्ण होने के बावजूद फिल्म का विषय मुनाफा कमाने के लिए इतना आसान नहीं था. शैलेंद्र ने इस फिल्म के निर्माण के दौरान अपनों को पराए होते हुए देखा. आर्थिक उतार-चढ़ाव तो देखे ही. उससे ज्यादा दुनियावी लोगों के अविश्वास ने उनके भावुक मन पर गहरा असर डाला, जिससे वे कभी नहीं उबर पाए और मात्र तेतालीस बरस की उम्र में भग्न मनोदशा में ‘कविराज’ ने इस दुनिया को छोड़ दिया.

 

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

वाट्सएप में पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

नेत्रदान करने वाली चम्पावत की पहली महिला हरिप्रिया गहतोड़ी और उनका प्रेरणादायी परिवार

लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…

1 week ago

भैलो रे भैलो काखड़ी को रैलू उज्यालू आलो अंधेरो भगलू

इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …

1 week ago

ये मुर्दानी तस्वीर बदलनी चाहिए

तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…

2 weeks ago

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

2 weeks ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

3 weeks ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

3 weeks ago