4G माँ के ख़त 6G बच्चे के नाम – चौबीसवीं किस्त
पिछली क़िस्त का लिंक: इस दुनिया में आते ही तुम्हें सबसे पहले रोना होगा
मेरे बछड़े! तुम आजकल खूब उछल-कूद मचा रहे हो मेरे पेट में. मैं जब भी पढ़ने बैठती हूं अक्सर मुझे तुम्हारी कूद-फांद दिखाई देती है बाहर से. मैं साफ-साफ देख पाती हूं कि तुम मेरे पेट में जगह बदल-बदल कर कुदकियां मार रहे हो. कभी नाभि के पास, कभी पेट के दाहिने हिस्से में, तो कभी निचले हिस्से में. कभी-कभी तुम मुझे गाय के बछड़े जैसे लगते हो जिसे घास के हरे-भरे मैदान के बीच एक लंबी रस्सी से बांध दिया गया हो. और जो बंधे हुए चारों तरफ घूमकर घास तो खा सकता है पर कहीं जा नहीं सकता. तुम भी ऐसे ही मेरी नाल से बंधे हो, जुड़े हो. चारों तरफ आ-जा सकते हो, घूम सकते हो पर कहीं जा नहीं सकते. तुम्हें बांधने वाली रस्सी मेरी गर्भनाल है. ये जुड़ाव मेरे मरने तक रहेगा हमारे बीच. मैं ऐसी उम्मीद करती हूं मेरे गुड्डे.
तुम्हें पता भी नहीं चल रहा मेरे बच्चे, लेकिन तुम जहाज का पंछी बनते जा रहे हो. बल्कि बन चुके हो! सारे बच्चे अपनी मांओं के लिए जहाज का पंछी ही होते हैं. मतलब ये कि बड़े होने पर वे चाहे कहीं भी चले जाएं, बार-बार लौट कर अपनी मां के पास जरूर आते हैं. मां के होने भर का अहसास कितना सुकून देने वाला है अभी तुम्हें नहीं पता मेरी जान, लेकिन भविष्य में तुम भी यह अहसास जीने वाले हो. मुझे लगता कि इससे ज्यादा विवश कोई कभी नहीं हो सकता, जब वो देख रहा हो कि उसकी मां मर रही है और वो कुछ नहीं कर सकता! मैं पता नहीं कब से इस खौफ में जी रही हूं, कि मेरी मां हर पल बूढ़ी होती जा रही हैं और एक दिन वे नहीं रहेंगी! अफसोस कि वो दिन कयामत का भी नहीं होगा! मां की मौत के डर को दिल में छिपाए मैं भी मां बन रही हूं! ये कैसा अहसास है मेरी जान, यदि तुम लड़की ही हुए तो जान पाओगे,वर्ना तो नहीं. घनघोर पीड़ा, खुशी, हंसी, रुलाई, सुख-दुख, मोह-माया से आकंठ भरी इस दुनिया में तुम्हारा स्वागत है मेरी जान!
(10ए.एम./8.5.09)
तुम्हारी मां का ये जो कमरा है न हॉस्टल का, बहुत छोटा सा है. हम दो लड़कियां इसमें रहती हैं. सबसे अच्छी बात है यह कि हम दोनों की बहुत पटती है आपस में. एक छत के नीचे घुल-मिलकर रहने की बात ही अलग है मेरी बच्ची. पर आजकल ऐसा कम ही होता है. इस कमरे में दो बैड़, दो कुर्सियां, दो मेज से अलग बहुत थोड़ी ही जगह बचती है चहलकदमी के लिए. इस कमरे को सजाने के लिए मैंने कुछ भी नहीं किया है और न ही मेरी रूममेट ने. सिर्फ ‘गुडलक’ का एक पोस्टर लगा है रूममेट की दीवार पर, जो उसे उसकी दोस्त ने दिया था. बाकि इसमें सुंदर लगने लायक, मन को लुभाने वाला कुछ भी नहीं है.
मेरे बिस्तर की बगल में ऊपर की तरफ किताबों की शेल्फ है, जिसमें हम जनसत्ता और टाइम्स ऑफ इंडिया की रद्दी भी रखते हैं. टाइम्स की रद्दी बढ़ती भी तो बहुत जल्दी है, पर अफसोस कि फिर भी रद्दी बेचकर कुछ ज्यादा पैसा हाथ में नहीं आता! रद्दी बेचना अपने आप में बड़ा सुखद है पता नहीं क्यों? तुम्हें भी शायद इसमें मजा आएगा. रद्दी बिकने से मिले पैसों में (चाहे वे कम ही क्यों न हों) बड़ी अमीरी झलकती है! हमारा रद्दी का ढेर इतना बढ़ चुका है, कि एक दिन मैंने रूममेट से कहा ‘किसी दिन मैं सुबह-सुबह इस रद्दी के ढेर के नीचे मिलूंगी. तभी तुम बिकवाओगी इसे. अब मैं समझी तुम रद्दी में बिकवाना चाह रही हो मुझे’ और वह खिलखिला पड़ी जोर से, मुझे बहुत अच्छा लगा. दूसरों के हंसाने में अदभुत आनंद है मेरी बच्ची, इस काम के लिए मैं बहुत बार खुद पर भी हंसती हूं. तुम भी हंसोड़ बनना.
हां तो मैं तुम्हें अपने कमरे के बारे में बता रही थी. हम दोनों ही सफाई का भी कोई विशेष ध्यान नहीं रखते. हां झाडू रोज लगाते हैं पोछा कभी-कभी. धूल पोंछना मुझे बेहद बोरिंग काम लगता है. हां लेकिन सामान, किताबें व्यवस्थित रखती हूं ताकि कमरा होच-पोच न लगे. कमरे की दीवारों का रंग सफेद है जो कि मुझे बहुत डल लगता है. पर फिर भी पता नहीं क्यों, कुछ बात है इस कमरे में. बल्कि कहूं कि बड़ी बात है इस रंगहीन, बेरौनक और गंदे से कमरे में मेरी रूह! ये कमरा आजादी की खान है.
हालांकि मैं उन बेहद-बेहद कम खुशनसीबों में में से हूं जिन्हें शादी के बाद भी काफी आजादी मिली है. उसके बावजूद भी हॉस्टल के कमरे से मिलने वाली आजादी की बात ही अलग है. रात के किसी भी पहर, कहीं से भी आकर, कितनी भी बार मैं इसके दरवाजे पर दस्तक दे सकती हूं…देती हूं. कोई सवाल, कोई शिकन, कोई डर, कोई गुस्सा या झुंझलाहट नहीं होती इस कमरे में घुसते वक्त. भारत में रहने वाली एक मध्यवर्गीय लड़की के लिए यह कितनी बड़ी बात है, कि उसके नाम का एक कमरा ऐसा है जहां शाम या रात के किसी भी पहर घुसते वक्त उसे डर नहीं लगता. कोई उस पर शक नहीं करता, उसे ताने नहीं सुनाता. उस कमरे में घुसते वक्त सवालों के जवाब देने के लिए मुझे खुद को तैयार नहीं करना पड़ता. न ही सवालों का ढेर और न ही घूरती हुई आंखें कमरे की चौखट पर मेरा स्वागत करते हैं.
उससे भी बड़ी बात है अंतहीन जिम्मेदारियों से आजादी और साथ ही निर्णय की आजादी. न कोई रसोई है, जो दिन के तीनों पहर मेरी राह देखती है. न ही गंदे बर्तन-भांडों का ढेर है जो साफ होने के इंतजार में सूखता जा रहा हो. न ही गंदे कपड़ों का गठ्ठर है जो धुलने की ख्वाहिश में मुझे घूर रहा है.न ही कमरे का फर्श, दीवारें और छत अपनी सफाई के लिए मुझे ताने से देते रहते हैं. जब मन किया कपड़े धो लिए, जब मन किया झाडू लगा ली, बर्तन के नाम पर सिर्फ चम्मच और दूध का कप धोती हूं! और सच कहूं तो वे भी कई बार रातभर साफ होने का इंतजार करते रह जाते हैं बेचारे! न ही रोज-रोज के मैन्यू में अपना दिमाग लगाना होता है, कि कौन सी सब्जी खरीदूं जो जेब और स्वाद दोनों में निभ जाए. ये क्या कम आजादी हैं एक लड़की/महिला के लिए?
सच ये है कि ये सारी नन्ही-मुन्नी दिखने वाली आजादियां एक लड़की के लिए, किसी विवाहित स्त्री के लिए बहुत बड़ी हैं मेरी जान. ऐसी अथाह आजादी शायद जन्नत में ही किसी लड़की को मिल सके, जिसके लिए मरना होगा! पर मरने के बाद किसने जिया है? लेकिन यहां जीते-जी ऐसी आजादी मिलती है जो शायद लड़कियों का सपना भी न होती हो, क्योंकि लड़कियों को सपने देखने की भी बहुत आजादी नहीं हैं मेरी गुड़िया! बहुत कड़े पहरों में सांस लेते-लेते उनका सोचना, समझना, सपने देखना, रचनात्मकता सब कुछ कुंद हो जाता है! किसी लड़के के लिए जे.एन.यू के कैंपस में मिलने वाली आजादी शायद उतनी महत्वपूर्ण नहीं होगी जितनी किसी लड़की के लिए.
सबसे बड़ी बात घर और ससुराल की जिम्मेदारियों से पूरी तरह मुक्त होती हूं मैं यहां. दिमाग बिल्कुल फ्री रहता है बस पढ़ना-लिखना, फिल्म, थियेटर, दोस्त, थोड़ी-बहुत शापिंग, घूमना यही सब दिमाग में रहता है. जे.एन.यू अभी तक तो लड़कियों के लिए एक आदर्श जगह है, इतनी आजादी, इतनी सुरक्षा भारत में शायद ही कहीं महसूस हो. रात के बारह-एक बजे मैं जे.एन.यू. रिंग रोड पर घने जंगलों के बीच अकेली घूमी हूं गाने सुनते हुए. मैं कैसे भूल करती हूं भला इस आजादी को. कैंपस से बाहर तो घर के सामने वाली गली में रात के नौ-दस बजे भी खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करती. काश तुम भी इस आजादी और सुरक्षा को अपने जीवन में महसूस कर सको मेरी बच्ची! ‘आजादी और सुरक्षा’ एक लड़की के जीवन के सबसे कीमती, बल्कि ‘बेशकीमती तोहफे’ हैं जो कि हर किसी को जिंदगी नहीं देती!
आजकल मेरी तबीयत काफी ठीक है, उल्टियां और गैस लगभग नियंत्रित है. मैं अपने सारे काम बेखौफ कर पा रही हूं. उसी तेज रफ्तार से घूमती हूं तुम्हें अपने पेट में लिए, सिर्फ पांच महीने बचे हैं तुम्हें इस बंधनों और असुरक्षा से भरी दुनिया में आने में.
(1.35ए.एम / 3.4.09)
उत्तर प्रदेश के बागपत से ताल्लुक रखने वाली गायत्री आर्य की आधा दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में महिला मुद्दों पर लगातार लिखने वाली गायत्री साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली से कविता व कहानियों के लिए पुरस्कृत हैं.
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